खुर्रम मल्लिक, TwoCircles.net के लिए
एक तरफ़ तो सरकार शहीदों और किसानों के सम्मान की बातें करते नहीं थकती है, दूसरी तरफ़ किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं.
यह एक ऐसी कड़वी हक़ीक़त है, जिसे मजबूरन हमें मानना ही पड़ेगा कि सरकार की नज़र में शहीदों और किसानों का सम्मान सिर्फ़ कागज़ों और भाषणों में ही सिमट कर रह गया है.
2014 के लोकसभा चुनाव में इसी मुद्दे को भुनाकर मौजूदा सरकार सत्ता में आई थी. ना जाने कितने बड़े-बड़े वादे किए गए थे. किसानों के उत्थान हेतु कई सारे सब्ज़बाग़ दिखाए गए थे. अनगिनत रैलियां की गई थीं. और हर रैली में किसान क़र्ज़ माफ़ी के मुद्दे को पूरी तत्परता से उठाया गया था. ऐसा लगा कि अब तो किसानों के दिन बहुरने वाले हैं. उनके सारे दुःख अब सुख में बदलने वाले हैं. रैलियों के भाषणों से ऐसा प्रतीत होने लगा कि अब तो आने वाली सरकार ही इनकी समस्या का समाधान कर सकती है. अपने हर एक भाषण में देश के तत्कालीन प्रधानसेवक ने एक ही बात कही कि “मित्रों!” 70 सालों से आपका दमन हुआ, आपको सताया गया, आपकी मेहनत की सही मज़दूरी नहीं दी गई, लेकिन अब आपको आपका हक़ मिलेगा, मैं दूंगा, हां! हमारी सरकार बनते ही आप के अकाउंट में 15 लाख आ जाएंगे. आपके सारे पिछले क़र्ज़ को माफ़ कर दिया जाएगा. आपकी सारी समस्याओं का समाधान कर दिया जाएगा.
किसानों ने भी भरोसा कर के बंपर वोट दिया और फलस्वरूप भाजपा की सरकार बनी और वह भी पूर्ण बहुमत से. इंदिरा गांधी के बाद यह दूसरा मौक़ा था जब विपक्ष का वजूद ही ख़त्म हो गया. लेकिन सत्ता की कुर्सी मिलते ही प्रधानसेवक साहब अपने सारे वादे भूल गए. और गांधी जी के बंदरों की तरह अपनी आँख, कान, ज़ुबान को बंद कर लिया. जिसका नतीजा यह हुआ कि देश की रीढ़ समझे जाने वाले किसान बदहाली का शिकार हो गए. और सरकारी मदद के अभाव में उनके सामने एक ही रास्ता बचा, और वह था “मौत…”
शहीद ऊधम सिंह के पोते की आत्महत्या सीधे-सीधे सरकारी नाकामी का एक आईना है. शहीद ऊधम सिंह देश के उन जांबाज़ सपूतों में से एक हैं, जिन्होंने अंग्रेज़ों को उनके ही घर में घुसकर मारा था. आज उसका सिला यह मिला कि क़र्ज़ के भारी बोझ के तले दबकर उनके पोते ने मौत को गले लगा लिया.
महात्मा गांधी ने कभी कहा था कि ‘देश के अर्थव्यवस्था की रीढ़ है कृषि’. यक़ीनन किसान हमारे देश भारत की अर्थव्यवस्था में एक तरह से रीढ़ की हड्डी समान हैं. आज भी देश की 60 फ़ीसदी जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है.
सकल घरेलु उत्पाद में 14 फ़ीसदी की हिस्सेदारी यह समझने के लिए पर्याप्त है कि कृषि देश की अर्थव्यवस्था में कितना महत्वपूर्ण योगदान कर रही है. इतना सब कुछ के बाद भी आज उत्पाद के सभी क्षेत्रों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि सबसे ज़्यादा बदहाल स्थिति कृषि और किसानों की है.
1995 में जहां 10,720 किसानों ने आत्महत्या किया वहीं 2004 में ये ग्राफ़ उछल कर 18,241 का आंकड़ा छू लिया. पिछले कई सालों की स्थिति में सुधार दर्ज करते हुए 2013 में 11,772 किसानों के आत्महत्या की ख़बर आई पर 2014 में स्थिति फिर से बिगड़ कर 12,360 पर पहुंच गई.
आंकड़ों की माने तो किसानों की आत्महत्या में महाराष्ट्र सबसे आगे रहा है. महाराष्ट्र में 2012 में 3,789 आत्म-हत्याओं को दर्ज किया गया तो वही जनसंख्या के नज़रिए से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश 745 मौतों के साथ छठे स्थान पर विराजमान हुआ तो बिहार में भी 68 किसानों ने आत्महत्या किया.
अब सवाल यह उठता है कि क्या मौजूदा सरकार जो बड़े-बड़े वादे और दावे करते नहीं थकती है, किसानों के क़र्ज़ को माफ़ करेगी? उनकी भलाई हेतु कोई अच्छी स्कीम लाएगी? उनके अनाज का सही मुआवज़ा देगी? क्या कोई ऐसा क़दम उठाएगी कि जिससे आत्महत्या जैसी वारदात आगे से ना हो, और क्या अपने इस नारे को हक़ीक़त में बदल पाएगी —“सबका साथ सबका विकास”.
(लेखक पटना में एक बिजनेसमैन हैं.)