पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों का हितैषी कौन?

पंकज सिंह बिष्ट


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उत्तराखंड : एक तरफ़ सरकार 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने के दावे कर रही है. वहीं दूसरी तरफ़ पर्वतीय क्षेत्रों के किसानों की हालत पर नज़र डालें तो इस लक्ष्य को पाना नामुमकिन तो नहीं, कठिन ज़रुर दिखाई देता है.

ज़मीनी हक़ीक़त का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि किसान की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर बिचौलिए अपना हित साधने में लगे हैं. ऐसे में सरकार किसानों की समस्याओं को नज़रअंदाज़ करते हुए कौन सी जादुई छड़ी घुमाकर किसान की आय दोगुनी करने वाली है? यह समझ से परे है.

उत्तराखंड के पहाड़ी जनपद नैनीताल, अल्मोड़ा के कई विकास खण्डों में पूस का महीना (15 दिसंबर-15 जनवरी) शुरु होते ही हमारे पहाड़ी क्षेत्र के किसान जहां अपने फल के बगीचों में पेड़ों की छटाई का कार्य प्रारंभ करते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ माघ-फ़ागुन के महीने में लगने वाली आलू की फ़सल की तैयारी में लग जाते हैं. यह तैयारी आलू के बीज और खाद को लेकर की जाती है.

मसला कुछ ऐसा है कि इस समय अवधि के दौरान किसान की इन्हीं ज़रूरतों को देखते हुए कुछ बिचौलिए भी सक्रिय हो जाते हैं, जो किसानों को उन्नत प्रजाति का बीज और अच्छी खाद देने का दावा करते हैं.

यही कोई डेढ़ दशक पूर्व इन क्षेत्रों में किसान आलू के बीज के लिए आत्मनिर्भर था. शिमला और गोला नाम से प्रसिद्ध दो प्रजातियों का आलू ही प्रमुखता से किसानों द्वारा लगाया जाता था. जो स्वाद में बेहतरीन, रोग प्रतिरोधी, टिकाऊ, मौसम के अनुसार विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी किसान को अच्छा उत्पादन देता था. किसान द्वारा प्रतिवर्ष आलू की उत्पादित फ़सल में से अगले वर्ष की फ़सल लगाने के लिए बीज भी रख लिया जाता था. इससे किसान की लागत कम हो जाती थी.

फिर कुछ किसानों ने नई प्रजाति के हाईब्रिड बीजों को लगाना प्रारंभ किया. जिसके बाद उन्हें उत्पादन में कुछ बढ़ोतरी दिखाई दी. लेकिन वह इसके दूरगामी परिणामों से वाक़िफ़ नहीं थे. कुछ प्रतिशत अच्छे उत्पादन की लालच में वह अपने पारम्परिक बीज को ही ख़त्म कर बैठे.

वहीं दूसरी तरफ़ किसान को बिचौलियों ने अच्छा बीज देने का झांसा देकर मनमानी क़ीमत में बीज देने का धंधा शुरु कर दिया. हर वर्ष बीज की गुणवत्ता में कमी जबकि क़ीमत में वृद्धि होती गई. जिससे लागत तो बढ़ी लेकिन उत्पादन कम होता गया. वर्तमान स्थिति यह है कि किसान फ़सल की लागत तक नहीं वसूल पाता.

उत्पादित आलू का कम टिकाऊ होना इसका एक और प्रमुख कारण है, जिससे किसान को फ़सल तैयार होते ही जल्दी से जल्दी बाज़ार में बेचनी पड़ती है. सामान्य परिस्थिति में वह आलू की पैदावार को स्टोर नहीं कर सकता, क्योंकि इससे आलू में सड़न की समस्या पैदा हो जाती है. किसान की इस समस्या का समाधान स्टोरेज के लिए कोल्ड स्टोर की सुविधाएं  मुहैया कराना है जो इन क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं है.

वर्ष 2017 में किसानों ने लगभग 3000 से 3500 रूपया प्रति क्विंटल का बीज लगाया. उत्पादन के समय प्रति क्विंटल बीज लगाए गए क्षेत्रफल से 5 क्विंटल आलू का औसत उत्पादन हुआ. जब किसान ने अपने आलू को बाज़ार में बेचा तो उसे 500 से 900 रुपया प्रति क्विंटल (अर्थात 5 से 7 रुपया प्रति किलोग्राम) का मूल्य ही मिल सका. जिसका सीधा मतलब निकलता है कि किसान अपने द्वारा लगाए गए आलू के बीज की क़ीमत तक ठीक से नहीं वसूल सका.

गजार गांव की महिला किसान मुन्नी बिष्ट इस बार के आलू बिक्री का पर्चा दिखाते हुए कहती हैं कि, “पिछले कई वर्षों से आलू की पैदावार कम होने के चलते हमने 2017 में 1 क्विंटल आलू का बीज लगाया था. जिससे लगभग 6 क्विंटल पैदावार हुई. जिसमें से हमने 11 कट्टा (बोरे) आलू बाज़ार भेजा था जो तोल में 549 किलोग्राम निकला जो 8.93 रुपये की दर से बिका और उससे 4902.57 रुपये की कुल आय प्राप्त हुई. जिसमें से 66 रुपया मंडी में पल्लेदारी, 275 रुपया एजेंटी और 330 रुपया मंडी तक का भाड़ा कुल 671 रुपये की कटौती के बाद 4232 रुपये की आय हुई.

वो आगे बताती हैं कि, फ़सल लगाते समय हमने कुफरी ज्योति प्रजाति का आलू लगाया था, जिसका बीज अन्य प्रजातियों की अपेक्षा आधी क़ीमत में मिल जाता है. अन्य किसान बिचौलियों के झांसे में आकर 3000 से 3500 रुपये क्विंटल की क़ीमत का बीज भी लगाते हैं. बिचौलिये किसानों को अधिक पैदावार का झांसा देकर महंगा बीज बेचते हैं. किन्तु पैदावार हर प्रजाति से लगभग समान ही मिलती है.

वह आगे कहती हैं कि, आलू से प्राप्त कुल बचत 4232 रुपये में से अगर 1600 बीज की क़ीमत और 500 रुपया खाद की लागत कुल 2100 रुपया और कम कर लें तो आलू की फ़सल से 2132 रुपया बचत हुई. बस यही हमारी तीन माह की कमाई है. क्योंकि आलू की फ़सल लगभग 3 माह की ही होती है. साल के अंत में जब बनिये के यहां हिसाब करने गए तो पता चला कि बनिये ने पहले ही अपना 6 प्रतिशत कमीशन काट कर पर्चा बनाया था, जिसका विवरण पर्चे पर नहीं दिया गया है.

वो बताती हैं कि, मेरे पति नज़दीकी बाज़ार में एक छोटी सी मिठाई की दुकान चलाते हैं, और बच्चे नौकरी करते हैं. घर का खर्च चल जाता है. खेती के भरोसे रहते तो भुखमरी की स्थिति आ जाती. इसके बाद किसान की पारिवारिक और आर्थिक हालत क्या होगी इसकी कल्पना आप कर सकते हैं. क्या ऐसे में लिए गए ऋण का भुगतान करना किसान के लिए संभव है?

इस समस्या की जड़ तक जाने का कोई प्रयास नहीं करता. इसकी शुरुआत फ़सल लगने से पूर्व ही हो जाती है. इन क्षेत्रों में किसान सदियों से खेती कर रहा है. पहले पर्याप्त मात्रा में गोबर और पत्तियों से बनी खाद का प्रयोग किया जाता था. लेकिन हरित क्रांति के बाद रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़ता गया. बिना मिट्टी की जांच करे रासायनिक खाद को खेतों में डाला जाता है और हैरानी तो तब होती है जब सरकार द्वारा संचालित मृदा परीक्षण कार्यक्रम के बाद भी 99 प्रतिशत किसानों द्वारा बिना मिट्टी जांच के ही रासायनिक खादों का प्रयोग किया जाता है. परिणामस्वरूप फ़सल उत्पादन में विकार पैदा होते हैं. इसलिए धरातल स्तर पर किसानों को जागरूक करने और प्रैक्टिकल नॉलेज उपलब्ध कराने की आवश्यकता है, जिस ओर प्रयास नहीं किया जाता.

ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों तक पहुंचने वाली रासायनिक खाद का मुख्य स्रोत राज्य सरकार द्वारा संचालित सहकारी साधन समितियां हैं. यह किसानों को रासायनिक खाद तो उपलब्ध करा देती हैं किन्तु उसका प्रयोग कैसे और किस मात्रा में करना है? यह बताने की ज़हमत नहीं उठाती.

राज्य स्थापना से पूर्व इन क्षेत्रों में आलू बीज उत्पादन के लिए उद्ययान विभाग के तहत सरकारी फर्मों की स्थापना की गई थी. जिनकी स्थापना का प्रमुख उद्देश्य इन क्षेत्र के किसानों को अच्छी गुणवत्ता का आलू बीज व फलों के पेड़ उपलब्ध कराना था. लेकिन राज्य स्थापना के बाद ये उद्ययान या तो बंजर पड़े हैं या फिर कुछ प्रभावशाली लोगों व संस्थाओं को नाममात्र की लीज पर दे दिए गए हैं. जहां व्यक्तिगत व्यवसायिक कार्य संचालित किए जाते हैं.

अल्मोड़ा जनपद के तहत विकास खंड लमगड़ा में स्थित राजकीय प्रजनन उद्यान डोल के प्रभारी व सहायक उद्यान अधिकारी गिरीश चन्द्र वर्मा बताते हैं कि, इस उद्यान में आज से लगभग 17 साल पूर्व आलू के बीज का उत्पादन होता था, लेकिन फिर सरकार ने उद्यान को लीज में ठेकेदारी में दे दिया, जिससे बीज उत्पादन का काम बंद हो गया.

वह आगे बताते हैं कि, वर्ष 2014 में उद्यान दुबारा विभाग को मिला लेकिन बहुत बुरी हालत में विभाग को कई बार उद्यान के सुधार हेतु बजट के लिए लिखा लेकिन प्रशासन सुनता ही नहीं, इसलिए हम भी कुछ नहीं कर पाते. अब तो सरकार उद्यान विभाग को ही कृषि विभाग में विलय करने का प्रयास कर रही हैं, ऐसे में सुधार की गुंजाईश कम ही दिखती है.

सरकार को चाहिए कि किसानों के हित के लिए स्थापित इन उद्ययान फर्मों को अपने क़ब्ज़े में लेकर किसानों के लिए बीज उत्पादन और फलदार पेड़ों के पौधे तैयार करने का कार्य करे ताकि किसानों को उचित मूल्य में आलू बीज और पौधे उपलब्ध हो सकें, जिससे न केवल किसान की लागत कम होगी, साथ ही किसान बीज के लिए मुनाफ़ाखोरी करने वाले बिचौलियों के चंगुल से भी आज़ाद होगा.

इस प्रकार किसान द्वारा उत्पादित उत्पाद के स्टोरेज की उचित व्यवस्था, अच्छी गुणवत्ता के बीज की व्यवस्था, रासायनिक खाद के नियंत्रित प्रयोग की प्रयोगात्मक जानकारी के धरातल पर प्रचार-प्रसार तथा मार्केटिंग की व्यवस्था व सरकार द्वारा उत्पाद को एक समर्थन मूल्य प्रदान करने से ही पर्वतीय क्षेत्र के किसानों का कल्याण संभव है.

नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब अन्य राज्यों की भांति इन क्षेत्रों का किसान भी आत्महत्या करने को विवश होगा. हांलाकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसान चाहे किसी भी क्षेत्र के हों परंतु देश के अनमोल धरोहर हैं, इस वर्ग की उन्नति के बिना देश की उन्नति की कल्पना नहीं की जा सकती. (चरखा फीचर्स)

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