उषा राय
समय के साथ भारत तेज़ी से लैंगिक समानता की ओर बढ़ रहा है. यहां इसी परिप्रेक्ष्य में कुछ रोचक कहानियां मौजुद हैं, जो ग्रामीण भारत की हैं.
‘रूरल एजुकेशन एंड डेवलपमेंट’ (रिड) अपनी कम्यूनिटी लाईब्रेरीज़ एंड रिसोर्स सेन्टर्स द्वारा भारत के 107 गांवों तथा 12 राज्यों की महिलाओं को सशक्त करके उनके साथ होने वाले भेदभाव को समाप्त करने तथा लैंगिक समानता के लक्ष्य को पाने का प्रयत्न कर रहा है.
2007 में इस प्रोग्राम की शुरुआत हुई, जिसे सरकार के साथ–साथ कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के अंतर्गत व्यवसायिक संगठनों का भी सहयोग प्राप्त हुआ.
स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल जैसे मुद्दों पर ग्रामीण समुदाय के साथ काम करके ‘रिड’ समुदाय में वो क्षमता पैदा करना चाहता है, जिसके बाद उनमें आत्मविश्वास पैदा हो, विशेषकर महिलाओं में. इस संबध में संस्था की कंटरी हेड गीता मल्होत्रा कहती हैं, “ग्रामीण समुदाय को सश्क्त करके ही हम वैश्विक ग़रीबी को समाप्त कर सकते हैं.”
बता दें कि इस समय संस्था के 42 नियमित कम्यूनिटी लाईब्रेरीज़ एंड रिसोर्स सेन्टर्स मौजूद हैं, जहां महिलाएं अपने बच्चों और कभी-कभी अपनी सास के साथ आने में भी सुरक्षा महसूस करती हैं. वो इन सामुदायिक पुस्तकालय और संसाधन केंद्र को अपनी जगह की तरह समझती हैं. प्रत्येक पुस्तकालय में हिंदी, उर्दू, बंगाली, मराठी जैसी क्षेत्रीय भाषाओं की 2000 से 3000 पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिससे लगभग 24000 महिलाएं शिक्षा पाने के साथ-साथ कई तरह के कौशल जैसे सिलाई, कढ़ाई, कंप्यूटर चलाने से लेकर नर्सिंग का प्रशिक्षण पा रही हैं. इनमें से कई महिलाएं पहली बार अपने घर से बाहर निकली हैं. परंतु आज़ादी और हुनर से भरे इस जीवन का आनंद उठा रही हैं. वित्तीय साक्षरता और व्यापार के प्रशिक्षण के माध्यम से वे उद्यमी बनने की ओर अपने क़दम बढ़ा रही हैं.
उत्तर प्रदेश, रामपुर के आगापुर गांव की 22 वर्षीय फ़राह का जीवन ‘रिड’ से जुड़ने के दो सालों के भीतर बहुत बदल गया है. इससे पहले वो गांव के निजी स्कूल में उर्दू, हिन्दी जैसे विषयों को पढ़ाया करती थी. परंतु ‘रिड’ के को-ऑर्डिनेटर मिस्टर योगराज से मिलने के बाद उसने इंटरव्यू दिया और अर्ली चाईल्डहुड डेवलपमेंट ट्रेनर के रुप में कार्यरत हुई.
फ़राह की ही तरह लगभग 100 महिलाएं इस संस्था द्वारा कौशल से जुड़कर मन के आत्मविश्वास और जेब के पैसे को बढ़ा रही हैं. ये बड़ा प्रतीक है महिलाओं के सश्क्त जीवन का, जो अब कम उम्र में शादी करने को नहीं, बल्कि अपने भविष्य को बनाने के लिए प्रयास में लगी हैं.
महाराष्ट्र के करमाड गांव की 24 वर्षीय स्वाती बाबूराय पिलबल ने 5 सालों तक शिक्षिका के रुप में काम किया. जब वो सेंटर को-ऑर्डिनेटर के रुप में ‘रिड’ में शामिल हुई तो ये नई ज़िम्मेदारी काफ़ी अलग थी, परंतु उसने इस काम में आनंद उठाया, क्योंकि इस कार्य द्वारा नए-नए कई कौशल को सीखने और समुदाय के क़रीब आने का अवसर प्रदान हुआ. सिलाई, कढ़ाई जैसे प्रोग्राम को संचालिच करना, महिलाओं का पंजीकरन करना जैसे मुख्य कामों को करके 6000 रुपए मासिक वेतन कमाने वाली स्वाती आज एक आत्मनिर्भर जीवन जी रही है.
दिल्ली के शाहबाद मुहम्मदपुर गांव की लगभग 25 वर्षीय प्रियंका की कहानी काफ़ी रोचक है. स्कूल पूरा करने के बाद एक साल तक दिल्ली में कंप्यूटर कोर्स किया. इसी दौरान ‘रिड’ की लाइब्रेरी में आया करती थी. इसी क्रम में उसे संस्था में आए कंप्यूटर ट्रेनर के खाली पद का पता चला, जिस पर आवेदन करने के बाद साल 2012 में वो नियुक्त हुई. इस समय लगभग 100 बच्चों को कंप्यूटर का प्रशिक्षण दे रही हैं.
साल 2013 में संस्था के पार्टनर अमेरिका इंडिया फाउंडेशन द्वारा चलाए जा रहे Adobe Youth Voices प्रोग्राम के लिए प्रिंयका का चयन फिल्म बनाने के कौशल में दिलचस्पी रखने वाले बच्चों के लिए एक मास्टर ट्रेनर के रुप में हुआ. प्रियंका के अच्छे प्रदर्शन को देखते हुए एआईएफ़ और एडोब ने ग्राफिक डिजाइनिंग में छह महीने के पाठ्यक्रम के लिए उसे प्रायोजित किया.
विभिन्न पाठ्यक्रमों को पूरा करने के बाद वह एक लाइब्रेरियन के रूप में द्वारका सेंटर में शामिल हो गई. वह पुस्तकालय विज्ञान प्रबंधन और आईसीटी कार्यक्रमों में एक मास्टर ट्रेनर भी बनी. शादी के बाद वो अंबाला चली गई लेकिन अपने काम को जारी रखने के लिए कंप्यूटर सेंटर घर से ही चला रही हैं.
इस बारे में वो कहती हैं, ‘रिड’ के कारण मुझे नए कौशल को सीखने का मौक़ा मिला और गांव के बच्चों को सिखाने का भी. मेरा आत्मविश्वास पहले से काफ़ी बढ़ चुका है.
लगभग 80 साल की तौफा देवी संस्था में पुरानी शिक्षिका हैं. परिवार के काफ़ी प्रतिरोध के बावजूद भी तौफा देवी संस्था के साथ जुड़ी और टोकरी बुनाई का प्रशिक्षण लिया, जिसमें वो पहले से ही काफ़ी हद तक निपुण थी.
तौफा देवी एक ऐसी महिला हैं जो कभी घर से बाहर नहीं निकली, परंतु आज वो इस कौशल की हेड ट्रेनर हैं जो महिलाओं को आत्मनिर्भर बना रहा है. वो महिलाओं को ये भी सिखाती हैं कि अपनी ज़िन्दगी को चलाने का बीड़ा खुद ही उठाया जाए.
बताते चलें कि संयुक्त राष्ट्र जेंडर गैप इंडेक्स के 148 देशों की सूची में भारत का स्थान 132वां है. समय के साथ बाल लिंग अनुपात में इंच दर इंच वृद्धि तो हो रही है, लेकिन 2013 तक भी ये अनुपात हज़ार लड़कियों पर 909 का ही रहा. हांलाकि सभी कॉर्पोरेट क्षेत्र भी इस ओर प्रयासरत हैं कि इस अनुपात को जल्द से जल्द समाप्त किया जाए.
एसडीजी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ‘रिड’ अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है. जिसके कारण सतत विकास के लक्ष्य 5 को प्राप्त करना संभव हो सकता है और महिला सशक्तिकरण की परिभाषा को पूर्ण किया जा सकता है. आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे प्रयासों को चारों ओर से पूर्ण सहयोग मिले. इसमें कोई शक नहीं कि जिस दिन देश की आधी आबादी वास्तव में सशक्त और आत्मनिर्भर होगी, उसी दिन वास्तविक महिला दिवस होगा. (चरखा फीचर्स)