ऐसा कुछ करके चलो यहां कि बहुत याद रहो…

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

कश्मीर के सोपोर और हैदरपुरा का नाम सुनते भले ही आपके ज़ेहन में जो भी तस्वीर सामने आती हो, लेकिन उम्मीद है अब फ़ज़लूल हसीब का नाम भी ज़रूर ज़ेहन में आएगा.


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फ़ज़लूल हसीब ने इस बार यूपीएससी में एक शानदार कामयाबी हासिल की है. इनकी रैंक 36वीं है और ये मुसमलानों में दूसरे तथा जम्मू-कश्मीर के 15 उम्मीदवारों में पहले स्थान पर हैं.   

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26 साल के हसीब कश्मीर के सोपोर इलाक़े से हैं और इन दिनों इनका परिवार श्रीनगर के हैदरपुरा इलाक़े में रहता है. इनका हमेशा से ये ख़्वाब था कि वो आईएएस बनें और वो अब बन गए हैं.

हसीब ने श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल से दसवीं व बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद जम्मू के मॉडल इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्यूनिकेशन में बी.टेक की डिग्री हासिल की.

हसीब कहते हैं कि एडमिनिस्ट्रेशन की खामियों की वजह से क्या-क्या प्रॉब्लम होती है, ये मैंने क़रीब से देखा है. बस मुझे यहीं से लगा कि एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस में जाना चाहिए. देश के लिए मुझे भी अपना कुछ योगदान देना चाहिए. सिस्टम में रहकर ही सिस्टम को बेहतर बनाया जा सकता है. और फिर ये इतनी बेहतरीन सर्विस है कि इसमें कौन नहीं जाना चाहेगा.

आईएएस बनने के बाद अपने कश्मीर में सबसे पहले क्या तब्दील करना चाहेंगे? इस सवाल के जवाब में हसीब कहते हैं कि तब्दीली किसी एक के चाहने से नहीं आती. इसमें सबका साथ चाहिए होता है. मैं ये बिल्कुल नहीं कहूंगा कि मेरे आते ही सारी चीज़ें बदल जाएंगी. लेकिन हां, अगर मैं कुछ चेंज ला सका तो पहला चेंज लड़कियों को लेकर लोगों की बनी सोच में लाने की कोशिश करूंगा.

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वो बताते हैं कि, जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाक़ों में सेक्स रेशियो एक बहुत बड़ी प्रॉब्लम है. हालांकि पहले के मुक़ाबले ये समस्या थोड़ी कम ज़रूर हुई है. बावजूद इसके मैं इस पर काम करना चाहूंगा, ताकि लोगों की सोच में और तब्दीली लाई जा सके. दूसरी समस्या एजुकेशन को लेकर है. सरकारी एजुकेशन का आउटकम काफ़ी ख़राब है. तो ऐसे में मेरी कोशिश होगी कि कैसे मैं यहां के एजुकेशन सिस्टम को बेहतर कर सकूं. क्योंकि अगर हमारा एजुकेशन सिस्टम बेहतर हो गया तो आधी समस्या ऐसे ही हल हो जाएंगी.

हसीब के पिता डॉ. फ़ारूक़ पीर पहले एक कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे. लेकिन इन दिनों जम्मू-कश्मीर बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन में निदेशक (अकादमिक) हैं. मां एक सरकारी स्कूल में टीचर हैं. हसीब की एक छोटी बहन हैं, जो इन दिनों जामिया मिल्लिया इस्लामिया की छात्रा हैं.

वो बताते हैं कि सिविल सर्विस में आने की प्रेरणा मुझे अपने अब्बू से मिली. उन्होंने मुझे हर बार एक नया हौसला दिया. मुझे कभी मायूस नहीं होने दिया. मुझे हमेशा उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला, जो मेरी इस कामयाबी में काफ़ी मददगार साबित हुई हैं.

इस परीक्षा के लिए कौन सा विषय लिया था और क्यों? इस सवाल के जवाब में हसीब बताते हैं कि उन्होंने इस परीक्षा के लिए उर्दू अदब का चयन किया था. क्योंकि शुरू से ही उन्हें उर्दू अदब से लगाव रहा है. कॉलेज में मेरी दिलचस्पी शायरी सुनने-सुनाने में भी ख़ूब रही है. घर का माहौल भी लिट्रेटी ही रहा है. मेरे अब्बू ने इंग्लिश लिट्रेचर में पीएचडी की है.

वो बताते हैं कि, उर्दू अदब का सिलेबस काफी बेहतर है. इसमें नंबर भी ठीक-ठाक आ जाते हैं.

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हसीब ये भी बताते हैं कि, उर्दू के स्टूडेंट अब ख़ूब सेलेक्ट हो रहे हैं. इस बार कामयाब होने वालों में मैं अकेला नहीं हूं, बल्कि कई लोग हैं और कई लोगों को इंटरव्यू के लिए कॉल भी आया था. उम्मीद है कि वो इस बार भले ही कामयाब न हुए हों, लेकिन अगली बार वो भी ज़रूर बाज़ी मारेंगे. इसलिए उर्दू पढ़ने वाले स्टूडेन्ट खुद को कभी कमज़ोर न समझें, आपके लिए ख़ूब सारे मौक़े हैं.

परीक्षा की तैयारी कैसे और कहां की? इस पर हसीब बताते हैं, ‘2014 में बी.टेक ख़त्म करते ही मैं दिल्ली आ गया. यहां दिल्ली में 9 महीने एक प्राईवेट कोचिंग में तैयारी की. फिर जामिया मिल्लिया इस्लामिया आ गया. इस बीच मैं तैयारी के लिए जामिया हमदर्द भी गया.’

एक लंबी बातचीत में हसीब बताते हैं कि, मैंने ये सिविल सर्विस तीसरी कोशिश में निकाला है. पिछले दोनों बार मेन्स लिखकर भी नाकाम रहा था.

यूपीएससी की तैयारी करने वालों को क्या संदेश देना चाहेंगे? इस सवाल पर हसीब बताते हैं कि मैं ख़ासतौर पर दो बातें कहना चाहूंगा. सबसे पहले सिलेबस को ज़रूर पढ़ें. दूसरी बात सही गाईडेंस बहुत ज़रूरी होती है, इसलिए उन लोगों से राब्ता करने की कोशिश करें जो इस सर्विस में हैं, पहले से ये एग्ज़ाम क्रैक कर चुके हैं. उनके तजुर्बों से आपको बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है.

फिर वो आगे बताते हैं कि, इसमें सफलता मिल जाती है, बस थोड़ा सा वक़्त लगता है. सिविल सर्विस की बेस्ट चीज़ ये है कि इसकी तैयारी के दौरान हम बहुत कुछ सीखते हैं. बल्कि हर दिन कुछ न कुछ सीखने को ज़रूर मिलता है. हर चीज़ को पढ़ने व समझने का तरीक़ा बदल जाता है. अख़बार तक को आप समझकर गंभीरता के साथ पढ़ना शुरू कर देते हैं. मैं दो बार नाकाम होने के बाद भी यही सोचता था कि अगर कुछ नहीं हुआ तो कम से कम इतना कुछ सीख लिया है कि ये कहीं न कहीं काम तो ज़रूर आएगा. और याद रखिए इल्म कभी बेकार नहीं जाती है.

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देश के युवाओं, खास़ तौर से अपने क़ौम के युवाओं को अपना पैग़ाम देते हुए हसीब कहते हैं कि, याद रखिए कि तालीम का कोई विकल्प नहीं है और क़ौम को इस वक़्त सबसे ज़्यादा इल्म की ज़रूरत है. हमारा मज़हब इस्लाम भी यही कहता है. क़ुरआन व हदीस में भी तमाम जगहों पर तालीम की अहमियत को बताया गया है. और फिर हम इस हदीस को कैसे भूल सकते हैं कि, —इल्म हासिल करो, चाहे चीन जाना पड़े.

हसीब कहते हैं कि, अगर तालीम पर फोकस कर लिया तो आपकी बाक़ी के जो तमाम प्रॉब्लम्स हैं, वो अपने आप ही ख़त्म हो जाएंगी. जैसे ही हमारी क़ौम रौशन-ख़्याल हो जाएगी, हर तरफ़ रौशनी हो जाएगी.

इसके अलावा हसीब अपने क़ौम के नौजवानों को अपना पैग़ाम मीर  तक़ी मीर के इस शेर के ज़रिए देना चाहते हैं —

बारे दुनिया में रहो गमज़दा या शाद रहो, ऐसा कुछ करके चलो यहां कि बहुत याद रहो

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