पंजाबः मज़हब से हटकर राजनीतिक होती दलित गायकी

मनीषा भल्ला

बीएसपी दा आ गया हाथी, बणेया जो सबना दा साथी, गरीबी अते गुलामी वाला, जेकर अंत कराणा जी, इस बार वोटां ते सबणे हाथी वाला बटन दबाणा जी……


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पंजाब के दलित गायक राज ददराल का यह नया गीत इन दिनों प्रदेश के दलित समाज में गूंज रहा है। पंजाब में दलित गायकी के दौर को लगभग एक दशक होने जा रहा है। इस एक दशक में दलित गायकी मज़हब से हटकर पूरी तरह से राजनीतिक रंग में रंग चुकी है, जो दलित स्वाभिमान जगाने की भावना से भी भरी हुई है।

मूल्यांकन के तौर पर देखा जाए तो यह गायकी दलित समुदाय को राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर एक मंच पर लाने के लिए पूरी तरह से सफल रही है। वर्ष 2009 से पहले दलित गायक मज़हबी गीत गाया करते थे लेकिन वर्ष 2009 में संत रामानंद (रविदासिया क़ौम के संत ) की हत्या के बाद दलित स्वाभिमान जगाने वाला संगीत गूंजने लगा। जिसने इंग्लैंड, कनाडा, अमेरिका, इटली, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया आदि जैसे देशों धमाल मचा दिया। विदेशों में रह रहे भारतीय दलित समाज की इस संगीत को जनजन तक पहुंचाने में अहम भूमिका रही है।

नवांशहर के गायक राज ददराल ने जब टॉर चमारा दीं, बल्ले बल्ले चमारां दी, मुंडे चमारां दे, झंडे गड्डे रविदासिया ने, बाबा साहब जी तेरे करके चढ़ाइयां दलितां दियां, जैसे गीत गाए तो अपनी जाति छिपाने वाला यह समुदाय बढ़ चढ़ कर अपनी जाति बताने में स्वाभिमान  महसूस करने लगा। आलम यह हो चुका है कि यह गीत महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के दलित समाज में भी बजने लगे हैं।

जिप्सी ते गड्डियां च गेड़े भांवे लांदे, पर किसे माड़े उत्ते रोब नइयों पांदे, जेबां रखदे नोटां दे नाल भरके, करदे ने खुल्ले खर्चे, मैं तां सुणेया चमारां देयां मुंडेया दे आजकल फुल चर्चे…’

गल करेयो सोच के जी हुण साडे नाल सत्कारां दे, किसे तो घट कहाउंदे नहीं हुण मुंडे चमारां दे…’  

‘  थम बणेया तुफानां विच डोलेया न भोरा, जिनू कौम दा सी दिन रात खाई जांदा झोरा, साडे बेड़ेयां नूं अज दित्ता रोशनार, भीमराव जी अंबेडकर ने सानूं अज तख्ता ते दिता ए बिठा… जैसे गीत दलित शादियों मे गाए जाने लगे।

पुराने दलित गायकों में अमर सिंह चमकीला जैसे गायकों ने अपने बेशक अपने गायन से आतंकवाद के दौर में आग लगा दी थी लेकिन वह गायन दलित स्वाभिमान को इस प्रकार पेश नहीं करता था जिस प्रकार आज के दौर में हो रहा है। इनके अलावा पुराने दलित गायकों में एएस आज़ाद, मोहन बंगड़, कोवल सांबरा, मलूक चंद जाडला, कंठ कलोर और अमृता विरक भी शामिल हैं। यह आम लोगों के गायक थे।

दलित गायक रूप लाल धीर का कहना है कि हर वर्ष रविदास जयंती पर लगभग 200 सीडी लॉन्च होती हैं। यह गीत क़ौम को राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर जागृत करने वाले होते हैं। धीर कहते हैं ‘इन गीतों को सुनने से हौसला मिलता है। क़ौम में जज़्बा जगाने का जो काम नेता नहीं कर सकते वह काम गायक कर रहे हैं।‘

धीर वर्ष 1985 से रेडियो पर गीत गा रहे हैं। वर्ष 1986 में उनकी पहली कैसेट मोढ़ी इंकलाब दा रिलीज़ हुई थी। जो रिकॉर्ड तोड़ बिकी। इसका गीत सुत्ती होई कौम नूं जिने आण जगाया, मोढ़ी इंकलाब दा कांशी विच आया…खासा मशहूर हुआ था।

इसके अलावा ‘जदों दा लेया ओने चंडीगढ़ दाखला, ओदों दा बणा के रखदा मेरे नाम फासला, हमर गड्डी च आंदा पुत्त चमारां दा, हुण नीं अख मिलांदा पुत्त चमारां दा… गीत ने आज भी विदेशी स्टेजों तक पर धमाल मचाई हुई है।

धीर बताते हैं कि अब तो कितनी सीडी रिलीज़ होती है इसका हिसाब भी नहीं है। इनके कनाडा, अमेरिका, ग्रीस, इटली, फ्रांस, पुर्तगाल में स्टेज शो हो चुके हैं। वह बताते हैं कि पहले के दलित गायकों ने संत रविदास जी पर भक्ति से सराबोर गीत गाए हैं लेकिन उन्होंने समाज में सामाजिक-आर्थिक असमानता दूर करने के लिए दलित कौम में जागृति लाने के लिए, क्रान्ति फूंकने के लिए गीत नहीं गाए। रूपलाल धीर का आरोप है कि पंजाब में सवर्ण जाति के लोगों ने भाईचारे को दबाने की कोशिश की है। चाहे दलित सिख आर्थिक तौर पर कितना ही संपन्न क्यों न हो, उसका कितना ही रूतबा क्यों न हो लेकिन गांव में उसे चमार, मज़हबी या रविदासिया सिख ही कहा जाता है जबकि सिख गुरू साहिबानों ने कभी ऐसा भेदभाव नहीं किया। रूपलाल धीर के अनुसार सिखों में भी दलितों के प्रति हिंदूवादी सोच घर कर चुकी है।

दलित गायकों का आलम यह है कि लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र हर राजनीतिक दल इन गायकों को अपने से जोड़ने की कोशिश भी कर रहा है। वजह है कि इनके प्रोग्रामों में लाखों की संख्या में भीड़ जुटती है। यहां तक कि विदेशों में बसे भारतीय दलित समाज इनके शो करवाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाता है। राज ददराल बताते हैं कि कनाडा में अमरजीत बेगमपुरी, नरेंद्र खेड़ा, यूके में कमल मेंटां, इंग्लैंड में सीके जस्सी जैसे पंजाबियों के लिए देश-विदेश में इन गायकों को शो आयोजित करवाना मिशन, धर्म है।

दलित महिमामंडन करता एक गीत शूट करने के लिए 50 से 60,000 रुपये लगते हैं। दूसरे पंजाबी गीत 10 से 15 लाख रुपमें में शूट करते हैं। राज ददराल का कहना है कि दलित गायकों को यूट्यूब से बहुत मदद मिली है। इसके ज़रिये इनकी गायकी के फलक और बड़ा हुआ है और गीत लॉन्च करने में लागत भी बहुत कम आती है।

बेशक क़ौम को जागृत करने के लिए यह एक लोकप्रिय साधन है लेकिन इसे हर दलित नहीं गा सकता है। मूल रूप से पंजाब तीन भागों में बंटा हुआ है। माझा, मालवा और दोआबा। गायन का चलन ज़्यादातर दोआबा में है। आर्थिक तौर पर यह पंजाब का संपन्न इलाका है। इसमें जालंधर और फगवाड़ा मुख्य हैं।

जालंधर के रिटायर्ड प्रिंसीपल और दलित साहित्य लेखक सतपाल जस्सी का मानना है कि इस गायकी से पंजाब में दलित समुदाय खासकर युवा समुदाय को काफी फायदा हुआ है। इससे पंजाब में दलितों को राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मान्यता मिली है। पहले ज़माने  की गायकी में हमेशा जाट और जाट समुदाय की हिम्मत और जुझारूपन के चर्चे हुआ करते थे। अब ऐसा लगता है कि हम भी किसी से कम नहीं। जैसे बीबे पुत्त चमारां दे आदि जैसे गीतों से दलित समुदाय भावनात्मक तौर पर एक हुआ है। अब ब्याह-शादियों और बच्चा पैदा होने पर हम दलित गायकों के ही गीत बजाते हैं।

सेंट्रल कमेटी सदस्य (सीपीआईएमएल) कंवलजीत सिंह कहते हैं कि 70 के दशक में संतराम उदासी जैसे कवि-गायकों ने भी गायकी की है लेकिन वह आज के दौर जैसी नहीं थी। दोआबा के दलितों के पास पैसा है लेकिन यह उनका बड़पन्न है कि उन्होंने पैसे से पहचान न बनाते हुए अपनी जाति से अपनी मज़बूत पहचान कायम की। पंजाब में 37 फीसदी आबादी दलित है। अत्याचारों की बात करें तो दलित समाज की महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं सुनने में आती रहती हैं। अपनी बेटी के लिए न्याय मांगने वाले दलित बंत सिंह के साथ क्या हुआ था पूरे देश ने देखा था। यहां रविदासिया समुदाय, मज़हबी सिख, बाल्मीकि समुदाय, झीर, जुलाहा मुख्य दलित समुदाय हैं।

पम्मा सुन्नड़ जैसे गायकों का गीत जब डीजे पर बजता है तो युवाओं का झूमता हुजूम इन गीतों की दिवानगी बयां करता है।

पटपट सुट दूं मैं वांग गाजरां, वड्डे वड्डे वेलियां नूं पाऊं भाजड़ां, यारां दा मैं यार, खड़ा बण हथियार,जे कोई आकड़े तां भूत उतारदा, कोई वी नी ओदां फिर मित्रां दे लागे जदों वज्जे ललकारा गबरू चमार दा….’  पम्मा सुन्नड़ बताते हैं कि यह गीत प्राउड फील करवाते हैं। एक प्रकार से सांस्कृतिक बदलाव आया है। इसका असर दूसरे राज्यों में भी देखने को मिला है।

चमार महासभा के अध्यक्ष परमजीत सिंह कैंथ के अनुसार हर दिन दलित समाज जागरूक हो रहा है। जाट गायकों ने अपनी जाति का महिमामंडन करते हुए गीत गाए। जाट का  गुमान, स्वाभिमान, अक्कड़, ज़मीन, बुलेट, बंदूक का ज़िक्र करते हुए गीत गाए गए। ऐसे ही गीत अब दलित समाज में भी गाए जाते हैं। दलित समाज दूसरी जातियों के गानों पर क्यों नाचें।

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