‘सर सैयद के मजार पर फातिहा, फूल चढ़ाने से कौम का कुछ भी भला न हो सकेगा’

मुर्शिद कमाल

हालांकि वो कभी अलीगढ़ का छात्र तो नहीं रहा लेकिन एक जमाने तक अलीगढ़ की सभ्यता पर मोहित और आसक्त जरूर था। अलीगढ़ वालों की बोली में विनम्रता, हास्य की समझ और कला पर चर्चा ने एक लम्बे समय तक उसे अपना मुरीद बनाए रखा…


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छात्र जीवन के दौरान कई बार उसका अलीगढ़ आना जाना होता। कैम्पस के दिन-रात से उस का वास्ता पड़ता तो उसे अलीगढ़ का छात्र न होने पर बहुत मलाल होता और जब सर्दियों की छुट्टियों में उसका गुजर अलीगढ़ स्टेशन से होता तो वो रेल की खिड़की से काले शेरवानी पहने छात्रों की भीड़ को बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखा करता।

पेड़ की जड़ अगर मजबूत न हो तो इसकी डालियां भला क्यों हरी-भरी हों।

वक़्त बीता चीजों की असलियत बदली और फिर देखने का नजरिया भी… बाहरी चमक दमक में अब वो पहले सा आकर्षण बाकी न रहा। वो तिलिस्म जो सालों से दिल और दिमाग पर छाया रहा उसका असर जाता रहा। वो शिष्टाचारी अंदाज, वो औपचारिकताओं में लिपटी हुई बोली की चाशनी और वो बातचीत का मनमोहक तरीका, सब ‘रस्मे अजां’ लगने लगे। ‘रूहे बिलाली’ कहीं गुम सी हो गई।

सर सैयद के देहांत के बाद उनके उत्तराधिकारी मुहसिनुलमलिक ने अपनी प्रबंधन क्षमता से संस्थान को खूब तरक्की दी और उसे बुलंदी पर पहुंचा दिया। मुहसिनुल मलिक की जिंदगी में ही जो राजनीतिक खींच-तान और आपसी लड़ाई की शुरूआत हुई उसने उनकी मौत के बाद और तेजी से सर उठाना शुरू कर दिया।

वो महान उद्देश्य नजरों से ओझल हो गए जिनके लिए अलीगढ़ कॉलेज की स्थापना हुई थी। हालत ये हुआ कि ‘‘न दाएं हाथ में फलसफा रहा और न बाएं हाथ में साईंस और न सर पर ला इलाहा इल्लल्लाह और मुहम्मदुररसूल अल्लाह का ताज’’।

सर सैयद का शैक्षिक मिशन या अलीगढ़ तहरीक केवल हिन्दुस्तानी मुसलमानों के शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ेपन को दूर करने या उन्हें अंग्रेजी सरकार में वेतन प्राप्त करने वाला कर्मचारी बनाने के लिए नहीं था। सर सैयद अपने दौर के सर्वश्रेष्ठ चिंतक थे, उनकी दूरगामी आँखें भविष्य के हिंदुस्तान को देख रही थीं, वो भविष्य के हिन्दुस्तान में मुसलमानों को सम्मानजनक स्थिति में बल्कि नेतृत्व की भूमिका निभाते हुए देखना चाहते थे।

सर सैयद इस सोच में थे के किस प्रकार मुसलमानों की खोई हुई प्रतिष्ठा और सम्मान दोबारा प्राप्त हो। सर सैयद एक ऐसी संस्था का सपना देख रहे थे जो हिन्दुस्तानी मुसलमान की शिक्षा और बौद्धिकता के क्षेत्र में नेतृत्व कर सके। वो अलीगढ़ को मुसलमानों का शैक्षिक, संस्कृतिक और वैचारिक केन्द्र बनाना चाहते थे। उन्होंने एक रणनीति के साथ सुलह के रास्ते को अपनाया।

सर सैयद ये तो चाहते थे कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा प्राप्त करके महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर आसीन हों, लेकिन उनकी इच्छा ये बिल्कुल नहीं थी कि मुसलमान नौकरी प्राप्त करने को अपने जीवन का लक्ष्य बना लें। यही कारण था कि जब सर सैयद के सुपुत्र सैयद महमूद की नियुक्ति हाईकोर्ट के जज के रूप में हुई तो अपने विचार उन्होंने कुछ इस प्रकार रखे ‘‘मेरा जो असली उद्देश्य सैयद महमूद की शिक्षा से था वो प्राप्त नहीं हुआ। सैयद महमूद नौकरी के क्षेत्र में चाहे और कितनी ही तरक्की करें लेकिन कौम को जिस प्रकार के शिक्षाविदों की आवश्यकता है इस में सैयद महमूद से कुछ मदद नहीं पहुंच सकती’’।

अलीगढ़ कॉलेज की उठान जितनी शानदार थी वो वैसी न रह सकी। जो कॉलेज हाली, शिबली, नजीर और जकाउल्लाह की छाया में परवान चढ़ी और जिसकी कोख से मोहम्मद अली, शौकत अली, हकीम अजमल खान और जाकिर हुसैन जैसे महान नेतृत्व पैदा हुए वो जल्द ही धरातल में चली गई।

जिन्होंने मस्जिदों और मदरसों की चटाईयों पर बैठ कर शिक्षा प्राप्त की थी उन में तो सर सैयद, मुहसिनुल मलिक और वकारुल मलिक जैसे दूरदर्शी और प्रबंधक पैदा हो गए, और जो पश्चिमी भाषा और साहित्य से लगभग अनजान थे उन्होंने ‘आबे हयात’, ‘सुखनदाने फारस’ और ‘मुसद्दस हाली’ जैसी प्रशंसनीय पुस्तकें लिख डालीं।

इसके विपरीत वो छात्र जिन्होंने कॉलेज की भव्य इमारतों में यूरोप के सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त की वो केवल इस काबिल हो सके कि किसी कार्यालय के मशीन का पार्ट बन सकें। लगभग डेढ़ शताब्दी में शिक्षा के क्षेत्र में कोई ऐसा उल्लेखनीय कार्य देखने को नहीं मिला जो अलीगढ़ में अंजाम पाया हो। कोई तफसीर, कोई फिक्ह, कोई इतिहास, कोई साहित्य ऐसा नहीं जिसके बारे में ये गर्व से कहा जा सके कि ये अलीगढ़ यूनीवर्सिटी की देन है।

जिस आधुनिक उर्दू शायरी और लेखन का जन्म अलीगढ़ में हुआ और जहां सर सैयद ने ‘तहजीबुलअखलाक’ जैसा साहित्यिक जवाहर पारा जारी किया उस अलीगढ़ से बहुत उम्मीदें थीं कि उर्दू भाषा व साहित्य को ये और ऊंचाई तक ले जाएगा।

लेकिन अफसोस कि उर्दू लेखन में भी अलीगढ़ को कोई उल्लेखलीय स्थान प्राप्त न हो सका। साईंस हो या दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र हो या अर्थशास्त्र, पत्रकारिता हो या औद्योगिकता, कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसके बारे में ये कहा जा सके कि इस क्षेत्र में अलीगढ़ ने देश का नेतृत्व किया है। डिजिटल, नैनो और अंतरिक्ष टेक्नॉलोजी में अलीगढ़ की भागीदारी शून्य से ज्यादा कुछ भी नहीं।

जिस अलीगढ़ के बारे में रशीद अहमद सिद्दीकी ये कहते हैं कि ‘‘उर्दू जानना और अलीगढ़ से परिचित न होना अपने आप में किसी फितूर की निशानी है, उर्दू का नाम अलीगढ़ भी है!’’

इस अलीगढ़ में उर्दू की हालत मिला-जुला कर दयनीय ही है। छात्रों की एक बड़ी संख्या उर्दू लिपि से भी अनजान है, शेरों को समझना और साहित्य की पहचान तो बहुत दूर की बात है। जिस अलीगढ़ की स्थापना ही अंग्रेजी शिक्षा की प्राप्ति के लिए हुआ था और जिस अलीगढ़ को अंग्रेजी के सर्वश्रेष्ठ पश्चिमी शिक्षक की सेवाएं प्राप्त रहीं और जिससे पढ़ कर निकले जाकिर हुसैन जब अंग्रेजी में भाषण देते तो लोग दाँतों तले उंगलियां दबा लेते, उस अलीगढ़ में प्रवाह और स्पष्टता के साथ अंग्रेजी बोलने वाले गिने चुने ही मिल पाऐंगे।

हाँ कभी-कभी कुछ प्रतिष्ठित हस्तियाँ अलीगढ़ में जरूर पैदा हुईं जिन्होंने जिंदगी के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी क्षमताओं का लोहा मनवाया और कुछ सरकार के ऊंचे पदों पर आसीन भी हुईं, लेकिन सर सैयद के कहे अनुसार कौम को ऐसे ‘शिक्षितों’ से कुछ मदद नहीं पहुंच सकी।

अपनी स्थापना के उद्देश्य और भव्य अतीत से मुंह मोड़ने का परिणाम ये हुआ कि देश के
आम शैक्षणिक संस्थानों की तरह अलीगढ़ यूनीवर्सिटी भी डिग्रियों की प्राप्ति का श्रोत बन गया।

शिक्षक अपनी क्षमताओं को परवान चढ़ाने और उसे नई पीढ़ी तक ले जाने की जगह विभागीय राजनीति, ड्राइंगरूम की सजावट और गुल दाऊदी के पौधे लगाने में व्यस्त हो गए। ईरान की कालीन, मध्यकाल के फानूस और तुर्की के फर्नीचर का उल्लेख बड़े गर्व के साथ होने लगा। अध्ययन का शौक खत्म हुआ तो अलमारियों से पुस्तकें गायब होने लगीं और इसकी जगह नवादिरात यानि कलाकृतियों ने ले लीं। शिक्षा एक मिशन की जगह पेशा हो गयी जिसका बुरा असर शिक्षाकी गुणवत्ता पर पड़ना स्वाभाविक था।

भाई-भतीजावाद, नियुक्तियों में सिफारिश और दाखिलों में नामांकन के रस्म ने शिक्षा की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर डाला, जिसका परिणाम ये हुआ कि शिक्षा अपनी गुणवत्ता में धरातल की ओर चल पड़ी। आज अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त कर निकलने वाले छात्र देश के दूसरे शैक्षणिक संस्थानों की तुलना में कोई अलग पहचान तो दूर देश के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों से निकले छात्रों की बराबरी भी नहीं कर पाते।

कहा जाता है कि सर सैयद की जिंदगी के अंतिम दिन बहुत मायूसी भरे थे। जिस पेड़ की उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों में बड़े जी-जान से सिंचाई की थी उस पर फल उनकी उम्मीद के अनुसार नहीं आए थे।

अगर अलीगढ़ में कोई चीज अब भी उसे अपनी ओर खींचती है तो वो अलीगढ़ तहरीक का गौरवपूर्ण इतिहास है, जिसकी महत्ता उसकी नजर में आज भी बरकरार है। सर सैयद का वो सपना है जिसे अभी साकार होना बाकी है। सर सैयद के साथियों का वो मिशन है जो अलीगढ़ को ज्ञान और कला के केन्द्र में परिवर्तित कर देना चाहता था, अलीगढ़ की हवाओं में रची-बसी भाषा और साहित्य की वो खुशबुएं हैं जो उसके दिल और दिमाग को मदहोश किए देती हैं।

सर सैयद की ‘सोच’ को दोबारा से जीवित किया जाना चाहिए। मोहमडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस का सिलसिला फिर से शुरू होना चाहिए। वही दीवानगी और जुनून अपने ऊपर सवार करनी चाहिए जिसने सर सैयद के रातों की नींद और दिन का सुकून छीन रखा था, जिसने हिंदुस्तानी मुसलमानों की निशात सानिया बना लिया था।

सर सैयद के मजार पर केवल फातिहा के रस्म, फूलों का हार चढ़ाने और सर सैयद की याद में डिनर खाने से कौम का कुछ भी भला न हो सकेगा…

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