चाहे ऋषिकेश के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में थोड़ा अधिक मात्रा में पोटैसियम से पड़ा दिल का दौरा हो या 112 दिनों तक गंगा के संरक्षण हेतु कानून बनाने की मांग को लेकर उनके आमरण अनशन को नजरअंदाज करने का परिणाम प्रोफेसर गुरु दास अग्रवाल, जिन्हें अब स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के नाम से भी जाना जाने लगा था उनकी मौत के लिए केन्द सरकार और खासतौर पर सीधे प्रधान मंत्री जिम्मेदार हैं।
स्वामी सानंद ने प्रधान मंत्री को अनशन पर बैठने से पहले दो बार पत्र लिखकर चेतावनी दे दी थी और फिर अनशन के दौरान भी दो बाद पत्र लिखे। लेकिन प्रधान मंत्री जिन्हें देश की जनता से संवाद करने के लिए ’मन की बात’ कार्यक्रम का नियमित प्रसारण करने की जरूरत महसूस होती है वो स्वामी सानंद की मौत हो जाने पर ही ट्वीट भेजकर अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करने की औपचारिकता पूरी कर ली।
स्वामी सानंद से उनके लम्बे अनशन के दौरान उनके जो हितैषी उनसे मिलने आते थे उनसे वे कहते थे, ’मेरी चिंता मत करो, गंगा की चिंता करो।’ उन्होंने गंगा दशहरे के दिन अपना अनशन शुरू किया, नवरात्रि के पहले दिन पानी छोड़ दिया और उन्होंने यह भविष्यवाणी की थी कि विजयदशमी से पहले उनका प्रणांत हो जाएगा। एक अच्छे वैज्ञानिक होने के नाते उन्होंने अपनी मृत्यु को भी योजनाबद्ध तरीके से गले लगाया।
असल में सरकार यह आरोप लगा कर कि स्वामी सांनद किसी के दबाव में अनशन कर रहे थे लोगों का ध्यान उनकी मुख्य मांगों की ओर से हटाना चाहती है। उनकी मांगें थीं – गंगा के संरक्षण हेतु एक कानून बनाना, गंगा पर सभी प्रस्तावित या निर्माणाधीन बांधों को तत्काल रोकना, गंगा क्षेत्र में वन कटान व खनन पर पूर्ण रोक लगाना व ’गंगा भक्त परिषद’ का गठन जो गंगा के हित में काम करेगी। किंतु उस सरकार के लिए जिसके प्रधान मंत्री ने वाराणसी से चुनाव लड़ने का नामंकन करते समय देश को बताया कि मां गंगा ने उन्हें बुलाया है, जिसने जल संसाधन मंत्रालय का नाम परिवर्तित करके उसमें ’गंगा संरक्षण’ जुड़वाया, जिसने 2019 तक गंगा को साफ करने का वायदा किया था, हलांकि अब यह समय 2020 तक बढ़ा दिया गया है और जिसकी सरकार ने गंगा संरक्षण हेतु पारित रु. 23,323 करोड़ बजट में से 23 प्रतिशत खर्च भी कर दिया हो, यह कबूल करना मुश्किल हो रहा था कि उसके कार्यकाल के दौरान गंगा का स्वास्थ्य ठीक होने के बजाए और गिर गया है जिसकी वजह से प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल को आमरण अनशन पर बैठना पड़ा।
जबकि देश व दुनिया केरल के सबरीमाला मंदिर में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले द्वारा सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश के अधिकार को लागू कराने के खिलाफ हो रहे विरोध प्रदर्शन, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख ने भी अपना समर्थन दिया उसे देखकर स्तब्ध है, स्वामी सानंद के गंगा को बचाने के प्रयास पर सभी हिन्दुववादी संगठनों, जो आमतौर पर लोगों की धार्मिक भावनाओं के दोहन का कोई भी मौका चूकते नहीं और हिंसा की विभिन्न हदों तक जा सकते हैं। ऐसे में उनके द्वारा मौन साध लेना इन हिन्दुत्ववादी संगठनों की असलियत उजागर करता है।
जाहिर है कि उनके लिए किसी भी धार्मिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी मुद्दे से बड़ी ध्रुवीकरण की राजनीति है। रा.स्वं.सं. के पास बहुत से हथियार हैं। स्वामी सानंद के लिए उन्होंने सामूहिक बहिष्कार के हथियार का इस्तेमाल किया और यह सुनिश्चित किया कि अखबारों या चैनलों पर उनका अनशन कोई मुद्दा न बन पाए। यह किसी भीड़ द्वारा की गई हिंसा की ही तरह है। फर्क सिर्फ इतना है कि हिंसा की जगह मरने के लिए अकेला छोड़ दिया गया।
जरा तुलना कीजिए कुछ वर्ष पहले अण्णा हजारे के छोटे-छोटे अनशनों पर कैसे देश पागल हो रहा था, जिसे तूल पकड़ाने में रा.स्वं.सं. भी पीछे से लगा हुआ था, और स्वामी सानंद के इतने लम्बे अनशन पर कहीं कोई सुगबुगाहट भी नहीं? क्या स्वामी सानंद का मुद्दा भ्रष्टाचार से कम महत्वपूर्ण था? भ्रष्टाचार से निजात पाने से, विकास नीतियों से होने वाले पर्यावरण को नुकसान को दुरुस्त करना ज्यादा कठिन काम है।
शबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का भाजपा-रा.स्वं.सं. द्वारा विरोध करना शर्मनाक है और उतनी ही शर्मनाक है स्वामी सानंद के गंगा को बचाने के प्रयास के प्रति उनकी संवेदनहीनता।
मोहन भागवत ने नागपुर में विजयदश्मी के अपने भाषण में सवाल खड़ा किया कि हमेशा हिन्दू समाज का ही उत्पीड़न क्यों होता है लेकिन भाजपा से सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि एक अध्यादेश लाकर मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए तीन तलाक को गैर कानूनी बनाया गया, जिसमें पति को जेल हो सकती है, किंतु हिन्दू महिलाओं के शबरीमाला मंदिर में प्रवेश के अधिकार का वे क्यों विरोध करते हैं?
इससे पहले भी देखा गया है कि प्रधान मंत्री दलितों, मुसलमानों के साथ हिंसा या महिलाओं द्वारा यौन शोषण की शिकायतों जैसे संवेदनशील मुद्दों पर मौन धारण कर लेते हैं। वैसे तो सरकारें यह खेल खेलती हैं कि जब राजनीतिक जरूरत होती है तो किसी पीड़ित को ही आरोपी बना देती हैं लेकिन भाजपा की सरकार में यह प्रवृत्ति बढ़ गई है।
स्वामी सानंद व सरकार के नजरिए में फर्क था और इसलिए दोनों का एकमत होना सम्भव नहीं हुआ।
हकीकत यह है कि स्वामी सानंद यह नहीं चाहते थे कि गंगा संरक्षण हेतु गठित इकाई में ऐसे नौकरशाह हों जो अपने राजनीतिक आकाओं की मिलीभगत से गंगा का व्यवसायिक दोहन करें। अभी पांच साल पूरे भी नहीं हुए हैं और ‘स्वच्छ गंगा हेतु राष्ट्रीय मिशन‘ के सात बार प्रमुख बदले जा चुके हैं। सरकार का नजरिया लालफीताशाही वाला है जसमें सशस्त्र सुरक्षा बल गंगा का संरक्षण करेगा जबकि स्वामी सानंद का नजरिया मानवीय व परिस्थितिकीय था जो लोगों की सहभागिता पर आधारित था।