फ़हमीना हुसैन, TwoCircles.net
वो कहते हैं न कि अपना घर सभी को अज़ीज़ होता है चाहे वो महल हो या झोपडी हर शख्स सुकून से ज़िन्दगी बसर करना चाहता है. 21वी सदी में अगर लाखों लोग बेघर हो तो किसी देश या राज्य के तरक्की का सारा पैमाना बेमानी लगता है लेकिन ये भी सच है जहाँ एक तबका के पास ज़रूरत के सभी मूलभूत, साजो-सज्जा मौजूद है वहीँ एक ऐसा तबका भी है जिसके पास बुनियादी ज़रूरत तक उपलब्ध नहीं है.
दरअसल ऐसे ही लाखों लोगों में शामिल है मुसलमानों की बक्खो जाति जो दलितों से भी बत्तर ज़िन्दगी गुजरे को मज़बूर है. ना तो मुसलमान इन्हे मुसलमान मानने को तैयार है ना सरकार दलित.
किसी भी परिवार में बच्चे के पैदाइश पर बधाई के गीत गाने वाले बक्खो गुमनामी का जीवन बसर करने पर मज़बूर है. खानाबदोश किस्म की ये जाति वैसे तो मुसलमान है पर हिन्दू धर्म के रीति-रिवाज़ का इन पर प्रभाव भी है.
बिहार में सदियों से रह रही ये जाति पूरी तरह भूमिहीन है. शहरों या कस्बों में नाला या पुल के नीचे गैर इंसानी तौर तरीकों से रहने पर मज़बूर, जो गंदगी के ढेर पर रहने के कारण आए दिन तरह-तरह की बीमारियों का शिकार होना पड़ता है. ऐसे में इनके पास स्वस्थ सेवाएं तक उपलध नहीं.
गरीबी, बीमारी झेल रहे रहे मुसलमानों की बक्खो जाति सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक रूप से अत्यंत ही पिछड़ी हुई है. इनके शिक्षा का स्तर इस बात से भी लगाया जा सकता है कि आज़ादी से लेकर अब तक बिहार में रह रहे 500 से अधिक बक्खो परिवार में से केवल 13 लोग ही गेरजुवेट हो पाएं हैं.
इस बारे में दलित-मुसलमानो के मुद्दों पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्त्ता डॉ अय्यूब राईन ने TwoCircles से बातचीत में बताया कि बक्खो जाति के लगभग सभी मोहल्लों में शैक्षणिक जागरूकता के लिए सरकार द्वारा घोषित तालीमी मर्कज़ भी कहीं नहीं है. ये लोग तालीम में इतने पिछड़े हैं कि खुद से एक मदरसा तक नहीं खोल सकते.
उन्होंने बताया कि अब तक डेढ़ दर्ज़न से ज्यादा सर्वेक्षण में बक्खों जाति एक मात्र ऐसी जाति के रूप में सामने आई है, जिसका एक मात्र सदस्य बिलाल अहमद दक्षिणी रेलवे में यानी सरकारी नौकरी में कार्यरत हुआ है।
उन्होंने बताया कि धार्मिक संगठनों, NGO, ए मारत-ए-शरिया फुलवारी शरीफ, पटना, जमात-ए-इस्लामी हिन्द ये सभी को मिलकर इन बक्खो जाति के शैक्षणिक जागरूकता के लिए आगे आना चाहिए।