सवर्ण आरक्षण: लम्बी बहस का अंत और सामाजिक न्याय के संघर्ष का अगला चरण

मोदी सरकार का 10% सवर्ण आरक्षण का ताज़ा प्रस्ताव लोक सभा और राज्य सभा की दहलीज़ आसानी से पार कर गया। इस विधेयक ने कुछ पुरानी चर्चाओं पर लगाम लगायी है और साथ ही सामाजिक न्याय की मुहीम को आगे ले जाने के लिये कुछ नये रास्ते भी सुझाये है।

आरिफ़ हुसैन,


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दशकों से, विशेषकर 1990  में मंडल आयोग की अनुशंसाओं के आंशिक क्रियान्वयन के बाद, सवर्ण बुद्धिजीवियों, सवर्ण राजनीतिज्ञों और मध्यवर्गीय सवर्णो के साथ-साथ सड़क-छाप कुपढ़ सवर्ण जमात द्वारा चलाई जा रही इस बहस का विषय था शिक्षा और नौकरियों में शोषित जातियों को आरक्षण के उद्देश्य और देश-समाज पर उसका दुष्प्रभाव।

भारत में शोषक और शोषित जातियों के बीच ये वैचारिक सहमति ऐतिहासिक है और सामाजिक न्याय की दिशा में शोषित जातियों और सवर्ण समाज के कमज़ोर तबके के बीच एक नयी भागीदारी का सबब बन सकती है।

सवर्ण जमात की ओर से उस बहस के मुख्य बिंदु थे; 
  • आरक्षण एक प्रकार की भीख है जो ‘मेरिट’ की कीमत पर शोषित जातियों को दी जा रही है
  • देश की प्रगति के लिये आरक्षण को तत्काल समाप्त किये जाने की आवश्यकता है
  • आगे बढ़ने के लिये शोषित जातियों को आरक्षण नहीं बल्कि मेहनत और लगन की ज़रुरत है
  • जाति-आधारित आरक्षण राजनितिक दलों की ‘वोट-बैंक’ की राजनीति का परिणाम है।

सवर्ण समाज द्वारा सवर्णो को आय-आधारित आरक्षण का सोल्लास स्वागत इस बात का द्योतक है कि वो उन घिसी-पिटी दकियानूसी बातों में विश्वास नहीं रखते और आरक्षण को सामाजिक न्याय के एक साधन के रूप में स्वीकार करते हैं।

मोदी सरकार ने सवर्ण समूहों, जिनकी कुल जनसँख्या लगभग 15% है, को 10% आरक्षण दे के ये भी सन्देश दिया है कि 52% बहुजन-पसमांदा (मंडल आयोग, 1980)  को कम से कम 35% (वर्तमान 27%) आरक्षण मिलना न्यायसंगत होगा। साथ ही दलित-आदिवासी समुह भी नये सिरे से अपने अंदर आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिये, वर्तमान विनियोजन के परे, अतिरिक्त आरक्षण के लिये दावा ठोंक सकते हैं।

मोदी सरकार का ये फ़ैसला इस मायने में भी क्रांतिकारी है की ये मनुवादी मीडिया और सवर्ण बुद्धिजीवीवर्ग की उस गप्प को भी अन्ततोगत्वा तोह देता है कि 50% से अधिक आरक्षण दिया जाना संवैधानिक रूप से सम्भव  नहीं है। कई राज्यों जैसे तमिल नाडु (69%), हरयाणा (67%), तेलंगाना (62%)  में पहले से ही कुल आरक्षण 50% से कहीं ज़्यादा है और अब केन्द्र के स्तर पर भी मोदी सरकार ने इस दावे को ख़ारिज कर दिया है। शोषित समूहों विशेषकर बहुजन-पसमांदा के लिये अब अपनी असल जनसँख्या के अनुपात में आरक्षण की माँग करना पहले से कुछ कम दुष्कर होगा।

अगला चरण 

अब जब मोदी सरकार ने सवर्ण समाज को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा कर ही दी है तो आदिवासी-दलित-बहुजन-पसमांदा समूहों के लिये आगे का रास्ता साफ़ है। अब ये अनिवार्य हो गया है कि वर्तमान सरकार शोषित जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्तिथि की समीक्षा करे और उसी आधार पर आरक्षण का अनुपात बढ़ाये। इसके लिये अविलम्ब मंडल आयोग के फॉर्मूले को सामाजिक -आर्थिक और जाति जनगणना 2011 के परिणामों के अनुसार अद्यतन करने की आवश्यकता है।

चूँकि मोदी सरकार ने जाति जनगणना 2011 के आठ साल बाद भी इसके समस्त आँकड़े  सार्वजानिक नहीं किये हैं, सभी शोषित और प्रगतिशील समूहों/दलों की ये ज़िम्मेवारी बनती है की इन आँकड़ो के खुलासे के लिये दबाव बनायें। किसी भी स्तिथि में ये आँकड़े 2019 के लोक सभा चुनावों की अधिसूचना जारी होने से पहले सार्वजानिक हों ताकि समय रहते मंडल आयोग के फॉर्मूले को जाति जनगणना 2011 के परिणामों के अनुसार अद्यतन करने की कार्रवाई शुरू हो सके।

शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण द्वारा सामाजिक-आर्थिक उत्थान के सिद्धांत की व्यापक स्वीकार्यता (अब सवर्ण जमात द्वारा भी) के बाद अब प्रश्न ये उठता है कि शिक्षा और नौकरियां हैं कहाँ? नब्बे के दशक से ही उदारीकरण के नाम पर एक के बाद एक सरकारें शिक्षा के क्षेत्र से अपना हाथ खींचती आई हैं और आज स्तिथि ये बन गयी है की लगभग सभी क्षेत्रों में नयी सीटें निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों में ही हैं।  यहाँ तक की सरकारी क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थानों में जो मौजूदा सीटें थी भी उनमें भी लगातार कमी की जा रही है।  जे.एन.यु. और अन्य सरकारी संस्थानों में M.Phil और Ph.D. की सीटें कम करना या समाप्त करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।

रोज़गार के क्षेत्र में तो हालत और भी विकट है। सरकारी संस्थानों और उपक्रमों में भर्तियां या तो बंद कर दी गयीं हैं या फिर आवश्यकता/रिक्तियों से बहुत कम अनुपात में भर्तियां की जा रहीं हैं। साथ ही, बहुत सारे पद संविदां न्यूक्तियों या ठेके द्वारा भरे जा रहें हैं जिनमे वैसे भी आरक्षण की शर्ते लागू नहीं हैं। इसके अलावा,आज के समय में सबसे अधिक रोज़गार सेवा क्षेत्र में है जो भविष्य में और बढ़ने वाला है, परन्तु उभरते सेवा क्षेत्रों में सरकारी नौकरियां लगभग नगण्य हैं।

ऐसी परिस्तिथि में ये ज़ाहिर है की यदि शिक्षा और रोज़गार के द्वारा शोषित समूहों का सशक्तिकरण करना है तो अब निजी क्षेत्र का रास्ता ही बचा है। इस सन्दर्भ में यदि कोई संशय रह जाता है तो वह ये कि निजी क्षेत्र में आरक्षण की प्रक्रिया और सिद्धांत क्या होंगे और इन प्रश्नों के उत्तर सत्ता के गलियारों से निकल के आएंगे या सड़क और ज़मीन की राजनीति से?  चाहे जो भी हो अब ये शोषित और प्रगतिशील समूहों/दलों की ज़िम्मेवारी है की निजी क्षेत्र के संस्थानों में शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण के मुद्दे को इसके सामाजिक न्यायसिद्ध अंजाम तक पहुँचायें।

(आरिफ़ हुसैन एक सामाजिक-राजनितिक कार्यकर्ता एवं शोधकर्ता हैं और ग़ैर-लाभकारी संस्था “लोकतांत्रिक भारत के लिए साझेदारी” से जुड़े हैं. सम्पर्क: Twitter: @Arif_Patnaia

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