‘हमें मदद के नाम पर ट्रक में बैठाकर जंगल मे छोड़ दिया गया’, ख़ाली पेट सैकड़ों किमी पैदल घर लौट रहे मजदूरों की व्यथा

Photo: Aas Mohammed Kaif/ TwoCircles.net

आस मोहम्मद कैफ।Twocircles.net

रात के आठ बजे रहे हैं। छोटी गंगनहर पटरी पर हरिद्वार से 150 किमी और दिल्ली से 140 किमी के मध्य में दर्जनों मजदूर बैठे हुए है। एक समूह स्किल डेवलपमेंट के एक संस्थान में हरिद्वार में पढ़ाई कर रहे युवकों का है। इसमे 11 लोग हैं। दूसरा समूह हरिद्वार की एक फैक्ट्री में काम कर रहे कामगारों का है। इसमे 14 लोग हैं। इनसे बातचीत के दौरान एक तीसरा समूह साइकिल से आता है। ये 20 लोग हैं। पहले दो समूह हरिद्वार से आएं है जबकि तीसरा साइकिल वाला दल पंजाब से आया है।

तीन दिन चलने के बाद 250 किमी की दूरी तय करने वाले हरिद्वार में स्किल डेवलपमेंट सीखने गए दल के सबसे कम उम्र के सदस्य श्रवण कुमार हमें पांव के छाले दिखाते हुए बताते हैं, ‘जिसे दया आती है वो खाने के लिए दे देता है। तीन दिन से चल रहे हैं। जंगल जंगल चलना पड़ता है। सड़क से नही जा सकते। नहर के किनारे-किनारे चल रहे हैं।’


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हरिद्वार से कन्नौज जा रहे श्रवण कुमार भी केंद्र सरकार की बहुप्रचारित योजना स्किल डेवलपमेंट इंडिया के अंतर्गत अपनी प्रतिभा को निखारने हरिद्वार पहुंचे थे। उत्तराखंड में कोर्स करने के बाद इनको निश्चित नौकरी मिलने का वादा किया गया था। यही कारण लगता है कि दर्जन भर युवक कन्नौज और मैनपुरी जैसी जगह से यहां पढ़ाई करने आएं थे।

18 साल के श्रवण बताते हैं कि वो परिवार में सबसे बड़े हैं। उनसे बात करके माता पिता रोते हैं।अब फ़ोन चार्ज नही है। ऐसी जिंदगी के बारे में सोचा नही था।
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फर्रुखाबाद के बाद अनूप कुमार (20) हरिद्वार अपने हुनर का विकास करने पहुंचे थे। अनूप बताते हैं कि उनके दोस्त वहां थे, इसलिए वो भी चले गए। वो पहुंचे ही थे कि लॉकडाऊन लग गया। जब तक पैसा था, वो खाना खाते रहे। उसके बाद एक पूर्व प्रधान थे। उन्होंने हमें एक टाइम का खाना देना शुरू कर दिया। धीरे धीरे वो भी थकने लगे। हमें लगा बोझ नही बनना चाहिए। हमनें वहां से लौटने का इरादा किया। हम पैदल ही चल दिए।’

कोटा के स्टूडेंट और हरिद्वार के स्किल डेवलपमेंट सेंटर में इन बच्चों में वही फर्क है जो हिंदी और अंग्रेजी में होता है। आकाश राजपूत बताते हैं जब उन्होंने यह ख़बर सुनी कि कोटा के स्टूडेंट्स को लेने के लिए बस भेजी गई है। तो उनकी उम्मीद बढ़ गई। सरकार ने भी कहा कि वो अब फंसे हुए लोगो को उनके घर पहुंचा रही है। हम लोग हरिद्वार में एक अधिकारी के पास गए उनसे कहा तो उन्होंने बताया कि आवेदन कर दीजिए, हमनें आवेदन कर दिया। इसके बाद हमें बताया गया है आपको भिजवाने के लिए हमारे पास फिलहाल कोई सुविधा नही है आपको 15 दिन इंतेजार करना पड़ेगा।

15 दिन बहुत भारी थे अब, एक टाइम खाना रहे थे सब। बहुत ज्यादा कहने पर अधिकारी ने कहा कि अब हम कुछ नही कर सकते। हमनें आपकी समस्या ‘ऊपर’ बता दी है।15 दिन तो लगेंगे। आप जो करना चाहे कर सकते हैं। इसके बाद हमनें तय किया, हम पैदल ही चलेंगे। 11 स्टुडेंटस के इस दल में कन्नौज, मैनपुरी और फ़र्रुखाबाद के युवक है।

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गंगनहर की पटरी के दूसरी तरफ़ एक और समूह बैठा है। उनके चेहरे थोड़ा अधिक परेशान दिखते है। यह बात हमें थोड़ा सा चकित करती है। नज]दीक जाकर समझ मे आती है।ये पढ़े लिखे मज़दूर है। इनकी कंपनी बंद हो गई। नौकरी ख़त्म हो गई। 14 लोगो का यह दल भी हरिद्वार से ही आ रहा है। इन्हें प्रयागराज, मऊ और वाराणसी जाना है। एक और तक़लीफ़ की वजह यह तीनों जगह ही एक हज़ार किमी से ज्यादा दूर है।

प्रयागराज के कृष्ण कुमार (24) बताते हैं कि वो शिवम ऑटोटेल्क लिमिटेड में सीएलसी मशीन चलाते थे। कंपनी बंद हो चुकी है। कोई तनख्वाह नही दी जा रही है। वहां के प्रशासन ने हमारी कोई मदद नही की है। कष्ट यह है कि मालिकों न् हमसे किराया भी मांगा। इसलिए मजबूर होकर हम पैदल ही निकल गए। कृष्ण कुमार 250 किमी चल चुके और उन्हें अभी 700 किमी और जाना है। वो एक हैरतंगेज़ बात बताते हैं। वो कहते, ‘मदद के नाम पर उन्हें ट्रक में बैठाकर जंगल मे छोड़ दिया गया। सरकार अमीरों की मदद कर रही है। पता नही क्यों वो ऐसा कर रही है! अब तक खाना भी गांव के लोग ही पहुंचाते हैं अभी भी कुछ लोग कह कर गए हैं कि वो खाना लेकर आ रहे हैं हम उनकी इंतेजार कर रहे हैं आज सिर्फ बिस्कुट खाएं है और पानी पिया है।’

इस समूह में सबसे अनुभवी दिखने वाले नंदन कुमार के चेहरे के भाव उनकी तक़लीफ़ बयां करते हैं। हमसे बात करते समय वो फूट-फुट कर रोने लगते हैं। वो मऊ के रहने वाले हैं। हरिद्वार से मऊ की दूरी 1400 किमी है, वो दस हज़ार रुपये महीने की तनख्वाह पर यहां नौकरी कर रहे थे। नौकरी ख़त्म हो गई है। कंपनी बंद हो गई। वो बारहवीं तक पढ़े लिखे हैं। नंदन यह बताते हुए बुरी तरह रोते हैं कि वो एक घाट के पास गए थे वहां से पानी दिख रहा था। वहां मौजूद पुलिसकर्मियों ने उन्हें ट्रक में बिठाकर जंगल मे छुड़वा दिया। नंदन कहते हैं सबको ज़बरदस्ती बैठा दिया। पैसे वाले लोग अपनी गाड़ी से आ रहे हैं। ग़रीब पैदल चल रहे हैं। नंदन बताते हैं कि हम 4 किमी चलते हैं और पुलिस हमारे साथ खेल कर देती है वो हमें वापस भेज देती है। हमें फिर चलना पड़ता है। अब सीधे रास्ते से नही जा रहे हैं मगर ऐसे भटक जाते हैं। पता नही घर पहुंचगे भी या नही!

नंदन से बात करते हुए ही एक तीसरा समूह यहां आ जाता है। यह हरियाणा और पंजाब से आएं है। ये कामगार लोग हैं। फेक्ट्री में मजदूरी करते थे। सब साइकिल पर हैं। ननकू (39) को बहराइच जाना है। 400 किमी वो चल चुके है। अभी 600 किमी और जाना है। उनके साथी ज़िलेदार (36) रास्ता नही समझ पा रहे। इस दल में कोई भी अच्छा पढ़ा लिखा नही है। रास्तों की जानकारी नही है। इनका सकारात्मक पहलू यह है कि इनके पास साइकिल है। ज़िलेदार बताते हैं, ‘साइकिल होने का तभी लाभ है जब उसे सड़क पर चलाने दिया जाये वहां तो पुलिस हमें जाने ही नही देती। जंगल के न हम रास्ते जानते है और न जंगल मे साइकिल से चलना आसान है। बीमारी से पहले तो एक युद्ध हम खुद से लड़ रहे हैं।’

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