आसमोहम्मद कैफ़ । Twocircles.net
“मैं वो बात कहने जा रहा हूँ। जो बहुत बड़े लोगों को बुरी लग सकती है। मगर मुझे इसकी कोई परवाह नही। मैं जब लखनऊ के इमामबाड़े की ऊंची दीवारों से नीचे देखते हूँ तो मुझे दर्जनों प्लास्टिक की पन्नी से बनाई गई झोपड़ी दिखाई देती है। यह झोपड़ियां हर उस इंसान को दिखती है जो लखनऊ के इमामबाड़े की शानो-शौकत पर वाह-वाह करता है। ये ग़रीब बेसहारा ,बेघर लोग, ऊंचाई पर पहुंचने से बहुत नीचे दिखाई देते हैं। मैं कह रहा हूँ कि अगर हम ग़रीब लोगों के दिल मे जगह नही बना सकते अगर हम उन पर रहम नही कर सकते तो ऊंचे-ऊंचे इमामबाड़े,मस्जिदें, मंदिर बनाने से खुदा खुश नही होगा। ख़ुदा के रहमोकरम के लिए हमें,मजबूर, मजलूम के दर्द को अपना समझना होगा। इनके लिए रहमदिल होना होगा।”
2003 में मेरठ में की एक कॉन्फ्रेंस हजारों लोगों के दरमियान जब मौलाना कल्बे सादिक़ ने यह बात कही तो तमाम मजमें में ख़ामोशी छा गई। सब एक दम शांत। इतनी दमदार बात। कब उन्होंने अपनी बात शुरू की और कब ख़त्म की,पता ही नही चला था।मेरठ के फ़ैज़ ए आम डिग्री कॉलेज के मैदान में हजारों सुन्नी मुसलमानों और दर्जनों बड़े उलेमाओं (जिनमे मौलाना अंजरशाह कश्मीरी, मौलाना अरशद मदनी,मौलाना जलालूद्दीन उमरी भी थे ) के बीच मौलाना कल्बे सादिक़ ने गहरी छाप छोड़ी। उनके 20 मिनट के बयान के बाद भी लोगों में पूरी तरह चुप्पी रही। जब मौलाना अपनी जगह जाकर बैठ गए तो पूरा मज़मा उनके सम्मान में अपनी जगह पर खड़ा हो गया। जमात ए इस्लामी के मंच पर ‘चार बात’ कहने वाले मौलाना कल्बे सादिक़ की बात का ही यह असर था।
ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष, मुसलमानों के समाज सुधारक,लखनऊ में शैक्षिक क्रांति लाने वाले मौलाना कल्बे सादिक़ का मंगलवार को लखनऊ में देहांत हो गया। उनके देहांत के बाद उनकी दो नमाज़े-जनाज़ा हुई, इसे एक बार शिया और दूसरी बार सुन्नी मुसलमानों ने नमाज़ अदा किया । इस दिन बाज़ार पूरी तरह बंद हो गए। लाखों लोगों में दुःख की लहर दौड़ गई। हजारों लोग सड़कों के किनारे खड़े हो गए। शिया -सुन्नी कंधे से कंधे मिलाकर मौलाना को आखिरी कंधा देने के लिए डेढ़ किमो तक खड़े रहे। इस दीवानगी की सबसे बड़ी वज़ह यह थी कि मौलाना कल्बे सादिक़
ऐसे शिया मौलाना थे जो सुन्नियों के दिलों में बसते थे। वो सुन्नियों में सुन्नी थे और शियाओं में शिया। लखनऊ के उर्दू साहित्यकार सुहैल वहीद बताते हैं ” वो मुसलमानों के वास्तविक समाज सुधारक थे। उनके यहां कभी किसी के साथ कोई भेदभाव नही हुआ। उन्होंने शिया और सुन्नियों के बीच दूरियां मिटाने का काम किया। वो पहले शिया मौलाना थे जिन्होंने ऐलानिया सुन्नी मुसलमानों के साथ नमाज़ पढ़ी,सुन्नी इमाम के पीछे भी नमाज़ पढ़ी और सुन्नी मुसलमानों की इमामत भी की। उनके इंतेक़ाल के बाद शिया और सुन्नी मुसलमानों ने एक साथ कंधे से कंधे मिलाकर उनकी नमाज़ जनाज़ा पढ़ी। सुन्नियों से अलग भी इनके लिए नमाज़ अदा की। भारत मे एक भी मौलाना ऐसा नही बताया जा सकता जिनके लिए शिया और सुन्नी मुसलमानों का इतना प्यार एक साथ मिला हो, सिर्फ इनसे पहले इनके भाई मौलाना कल्बे आबिद की नमाज़ ए जनाजा में शिया और सुन्नी दोनों फिरकों के मौलानाओं ने शिरकत की थी ” !
83 साल के मौलाना कल्बे सादिक़ निमोनिया से जूझ रहे थे। वो कैंसर से भी पीड़ित थे। उनके क़रीबी बताते हैं कि शिया सुन्नी एकता के लिए उन्हें सिस्तानी साहब (अयातुल्लाह सिस्तानी) ने कहा था। वो एक बार इराक गए थे और तबसे भारत मे शिया- सुन्नी मोहब्बत मजबूत करने के लिए उन्होंने तहरीक चलाई। मौलाना कल्बे सादिक़ ने शिया और सुन्नियों के बीच ‘शोल्डर बाय शोल्डर तहरीक चलाई। वो अक्सर सुन्नी मुसलमानों के साथ रोजा इफ़्तार करते थे। उनकी हर तक़लीफ़ में साझा करते थे। मौलाना कल्बे सादिक़ के प्रयासों की पाकीज़गी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि लखनऊ के टीले वाली मस्जिद के इमाम मौलाना फजरूलरहमान के इंतेक़ाल के बाद 50 हजार से ज्यादा सुन्नी मुसलमानों ने उनकी क़यादत में नमाज अदा की थी।
मौलाना कल्बे सादिक़ बताते थे कि लोग अक्सर उनसे उनके शिया और सुन्नी होने की बात पूछते थे इस पर वो अकबर इलाहाबादी का एक शेर सुना देते थे ” अकबर का क़ैस – ओ- मसलक क्या पूछती हो मुन्नी शिया के लिए शिया और सुन्नी के लिए सुन्नी। जानसठ के सादात – बाराह के सय्यद दानिश अली खान कहते हैं कि मौलाना कल्बे सादिक़ साहब ने शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच डायलॉग पैदा किया। वो सिस्तानी साहब के संदेश को लेकर आए थे। मौलाना कल्बे सादिक़ ने 2015 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आयोजित कार्यक्रम में इस बारे में बताया था उन्होंने कहा था कि इराक़ में मेरे दौरे के दौरान सिस्तानी साहब ने मुझे अपने घर बुलाया था और मुझसे कहा था कि हिंदुस्तान में जाकर सब शियाओं से कह दो कि सुन्नी सिर्फ उनके भाई ही नही है बल्कि रूह और जान है। इसके बाद मौलाना कल्बे सादिक़ ने अपनी जिंदगी शिया सुन्नी एकता के लिए समर्पित कर दी।
लखनऊ के रंगकर्मी हफ़ीज किदवई बताते हैं ‘शिया और सुन्नी नही बल्कि तमाम इंसानियत के लिए उन्होंने अदुभुत काम किया। जिन बच्चों के पैरों में चप्पल भी नही थी। इनके प्रयासों से वो डॉक्टर बन गए। दुनियाभर में नाम कमा रहे हैं। उन्होंने अपनी जिंदगी खिदमत को समर्पित की। लखनऊ की सड़कों पर बहते आंसू इसकी गवाही दे रहे हैं। आखिरी बार किसी आम जगह पर मौलाना कल्बे सादिक़ बीमारी की हालात में घण्टाघर पर सीएए और एनआरसी के चलते हो रहे प्रदर्शन में शिरकत करने पहुंचे थे। अब इस प्रदर्शन की आयोजको में से एक रही सुमैय्या राणा कहती है ” हममें से कोई भी इस दुःख को बयां नही कर सकता,कोई और कभी उनकी जगह नही ले पायेगा”।