महिलाओं की इस दुर्दशा पर कब तक हम सिर्फ़ और सिर्फ़ घड़ियाली आंसू ही बहाते रहेंगे !

दीप्ति कश्यप Two circles.net के लिए 

बचपन से हमें सिखाया जाता है कि हमारा देश भिन्नता में भी एकता वाला देश है। कई दफ़े यह वाक्य सही भी लगा, मगर आज हमारा समाज किस  ओर अग्रसर हो रहा है? यह समझ से परे है। अगर शरीर के किसी भाग में कोई परेशानी होती है तो उसे सबसे पहले सही करने का हर संभव उपाय किया जाता है और जब मामला जान पर आ जाए तथा उस भाग को शरीर से अलग करना ही एकमात्र उपाय हो, तो हम सहज़ ही उसे भी स्वीकार कर लेते हैं। फ़िर आज हम समाज को क्यों बद-से-बदत्तर होते हुए देख कर भी उसे सहज़ स्वीकार ही कर रहे हैं ? क्यों उसके उपचार से हम कतरा रहे हैं? सतत पोषणीय विकास की अवधारणा समझ में आती है जो हम अपनी भावी पीढ़ी को देना चाहते हैं मगर आज जिस प्रकार का समाज हम बना रहे हैं क्या वाकई में वह हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को देना चाहेंगे ?


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हमारा अतीत अनेक सकारात्मक उपलब्धियों को समाहित किए हुए हैं। आज बात बस राजनीति से संबंधित है तो राजनीति में भी हमारे देश ने अनेक सकारात्मक उदाहरण पेश किए हैं जिसके लिए हम अपने पूर्वजों के सदा ऋणी रहेंगे। आजादी प्राप्त किए हुए अभी हमें इतना भी वक्त नहीं हो गया है इतिहास की जुबान में कि हम एक संक्रमण के दौर को पार कर एक नए युग में प्रवेश कर चुके हैं जहां अतीत की बातें अब पुरानी हो गई है और अब बेईमानी से लगती हैं और इस कारण हम अपने सारे आदर्शों को भूल कर एक नई किस्म की राजनीति की दुहाई दें। राजनीति किसके लिए पहला प्रश्न-उत्तर राजनेता भी खुद देंगें जनता के लिय, हमारे अवाम के लिए। एक लोकतांत्रिक देश की नींव की आधारभूत संरचना और सबसे जरूरी स्तंभ भी यही होती हैं। राजनेता हमने पहले भी देखें हैं जो एक रेल दुर्घटना के लिए अपने रेलमंत्री पद का परित्याग करते हैं क्योंकि उन्हें अपनी नैतिकता का आभाष बख़ूबी था। नेहरू-गांधी-आजाद-पटेल-मौलाना सबों के बीच आपसी मतभेद थे लेकिन बात देश की होती थी तो देश सर्वोपरि और व्यक्तिगत रूप से भी एक-दूसरे से तहज़ीब से पेश आते थे, मतभेद होते थे पर मतभेद में भी सहमति होती थी और एक-दूसरे की इज़्ज़त करते थे।

आज हम किस युग में प्रवेश कर चुके हैं? ऐसा लगता हैं मानों राजनेताओं को मर्यादित भाषा के इस्तेमाल पर संसद से पास कानून के आधार पर प्रतिबंध लगा हुआ हैं। निम्न स्तर कि व्यक्तिगत टिप्पणी करना जैसे राजनीति का एकमात्र विकल्प हो और मानना अवाम को भी पड़ेगा, पुरज़ोर तालियों की गड़गड़ाहट उन्हें( राजनेताओं) को हौसला देती हैं,क्योंकि दर्शक-दीर्घा आनंदित होती भी हैं। हमारे सोचने समझने का दायरा इतना कब गिर गया कि हम अपराध को अपराध मानने के लिए अपने आप को तैयार ही नहीं कर सकें?

पहले हमने खुद को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बांटा, फ़िर हिन्दू-मुस्लिम में बांटा,फ़िर अब हिन्दू में भी सवर्ण और दलित में बांट रहे हैं, मुझे पूरी आशा हैं ये विभाजन अभी और बहुत आगे जाना हैं। राजनेता तो अपनी रोटी सेंकते हैं, अवाम को क्या हो गया हैं? किस आधुनिक तकनीक को प्राप्त करके हमने ऐसी महान मानसिकता हासिल की है? कहने को एक विकासशील देश के सारे मापदंडों में हम अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं मगर ऐसे विकास का क्या करना हैं ? जहाँ एक स्वस्थ मानसिकता को समझना उसे ढूँढना दुर्लभ हो!

शिक्षा के पैमाने पर हमने लगातार बेहतर प्रदर्शन किया हैं, मगर ऐसी शिक्षा को हासिल करने का अर्थ क्या हैं? मीडिया को अपने टी आर पी से मतलब हैं जनमानस के सरोकार को अलविदा कहें उन्हें वर्षों हो गए हैं और इस सब के जिम्मेदार हम खुद हैं। हमने उनके तथ्यों और समाचारों को देख कर उन्हें अपनी सहमति दी है तभी हमारे पसंद को ध्यान में रख कर वो उसी अनुरूप समाचार भी चलाते है। हुकूमत के लिये 9 दिन बहुत होते हैं अगर वाकई में इंसाफ देना ही उनका एकमात्र लक्ष्य हो। ये प्रशासन कैसे काम करता हैं जहाँ मंत्रियों कि पैरवी, उनके केस का समाधान मिनटों में संभव हो जाता हैं और शोषित, पीड़ित, वंचित जिनकी पहुँच सरकार तक नहीं होती वो दर-दर भटकते हैं? 16 दिसंबर 2012 और उसके पूर्व भी तथा 14 सिंतबर 2020 के बीच क्या बदला है? बदली हैं तो सिर्फ़ तारीख़े ! महिलाओं की अस्मत लूटने पर कब तक हम सिर्फ़ और सिर्फ़ घड़ियाली आंसू ही बहाते रहेंगे ? और कितनी निर्भया ? आख़िर कब तक? क्या वाकई में वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर बिना हिन्दू-मुस्लिम, सवर्ण-दलित,अगड़ा-पिछड़ा, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक किए, महिलाओं को सिर्फ़ एक महिला के समान ही सम्मान,अधिकार,इंसाफ,स्वतंत्रता,इज़्ज़त और उन्हें उनका हक देना इतना मुश्किल है? मत मानो उन्हें पूज्नीय अपने बराबर कर दो ना ! उनके दर्द को सिर्फ़ दर्द ही समझो ना ! मत चलाओ फर्ज़ी नारी सम्मान योजना, उन्हें बस जितना अधिकार हमारे संविधान ने दिया है, उसे ही सही से मिल जाने दो ना!

सबसे विशाल प्रदेश के सबसे यशस्वी माननीय मुख्यमंत्री जी ने अपनी करुणा का परिचय एक बार फिर दिया हैं,पीड़िता के परिवार से वीडियो-कॉलिंग पर बात की हैं, एक सदस्य को सरकारी नौकरी का आश्वासन दिया हैं, एक मकान का वायदा किया हैं और वो यहीं नहीं रुके पच्चीस लाख रुपये की मुवावजे की भी घोषणा कर दी। प्रश्न बस एक हैं सरकारी आंकड़े के अनुसार ही भारत में 87 रेप केस प्रतिदिन होते हैं, इस एक पर इतनी रहमोकरम का आशय?सवाल बस इतना है कि अगर सरकार की नज़र में इंसाफ यही है तो 86 अन्य पीड़िता के साथ अभी तक प्रतिवर्ष नाइंसाफ़ी क्यों? और अगर इंसाफ की परिभाषा यही हैं तो  संविधान,विधि-व्यवस्था, कानून की हमें क्या आवस्यकता है? सबसे यशश्वी मुख्यमंत्री के निर्णय-क्षमता से हर प्रदेश के राजनेता को सीख लेने की आवश्यकता है। एक साथ उन्होंने अनेकों कृतिमान स्थापित किए हैं, जिसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी।  प्रदेश अध्यक्ष को जैसे ही खबर लगी कि अब दाग उनके प्रशासन-तंत्र और महकमे पर लगने वाला है, उन्होंने सबको आनन-फानन में क्लीन चिट दे कर घोषणाओं की बारिश कर दी और समस्त तंत्र का अपने काम को पूरी ईमानदारी से करने का भरोसा भी दिया। विरले ऐसे नेता होते हैं जो अपनी छवि की चिंता किए बगैर दूसरे की ग़लती को नजरअंदाज करने का जज़्बा रखते हैं।

(बिहार के भागलपुर की दीप्ति कश्यप  इतिहास की छात्रा हैं, डीयू से पढ़ी है और सर्विस की तैयारियों में जुटी हैं यह उनके निजी विचार है)

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