निम्मी अब मुजफ्फरनगर के किदवईनगर में रहती है। हो सकता है उसका नाम नईमा हो मगर स्कूल वो कभी गई नही और नईमा उसे किसी ने कभी कहा नही ! निम्मी के पिता शफ़ीक़ ने उसकी शादी,उसकी बड़ी बहन के साथ ही कर दी थी। दोनों एक ही घर मे ब्याही थी। निम्मी तब 14 साल की थी। अब वो 50 की है। शादी में खर्च बचाने के लिए उसके मजदूर पिता शफ़ीक़ ने दोनों बहनों की शादी एक ही घर मे दो भाइयों से कर दी। गांव का नाम था बहावड़ी ! शामली जिले के इस गांव के बारे में दंगे के दौरान एक बात बहुत चर्चा में थी। हुआ यूं था कि इस गांव में पीएसी की एक टीम से जाने से इंकार कर दिया था। तब यहां स्पेशल ड्यूटी भेजे गए आईपीएस रघुवीर लाल अपने दम पर गनर के साथ दंगाइयों से भिड़ गए थे। रघुवीर अक्सर बताते थे कि वो उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा दिन था। मेरी बीवी मुझसे गले लगकर रोई थी और मेरे पिता ने कहा था कि उन्हें नाज़ है कि वो मेरे पिता है।
ख़ैर ! निम्मी इसी गांव में विधवा हुई थी। 8 सितंबर 2013 को सुबह 9 बजे। शामली जनपद के इस गांव में उस दिन निम्मी की मासूम बेटी और शौहर दोनों के गोली लगी थी। निम्मी बताती है कि हम लोग जान बचाकर भाग रहे थे। एक गाड़ी में 15 -16 लोग थे। उसमे पांच ही बैठते थे पहले। मेरे शौहर समेत कुछ लोग रह गए थे। मेरी दो बेटी सयानी थी तो उन्हें बचाना पहले जरूरी था तो उनके बाप ने कुर्बानी दे दी। पता नहीं मेरी 11 साल की बच्ची कैसे मर गई ! वो रसोई में छिपी थी। अंधाधुंध गोलीबारी में उसके भी लग गई। अब गोली किस पर रहम करती है ! उसके बाद पुलिस आ गई जिससे और लोग बच गए !
निम्मी कहती है कि उसके शौहर गांव गांव जाकर बर्तन बेचते थे साइकिल पर, वो साइकिल भी वहीं छूट गई। वहां सब कुछ रह गया। हम कभी वहां लौटकर नही गए। न जाएंगे ! अब वहां हममें से कोई नहीं रहता ! अब कोई वहां की बात करता है तो बताते हैं कि कुछ जाटों को पछतावा है। गांव के ही कुछ लोगों प्रयास किया कि हम जैसे लोग वापस लौट जाएं। हमें जाटों से कोई नाराजगी नही ! वो तो कुछ अच्छे भी है और कुछ बुरे भी।
निम्मी के दस थे।अब आठ है। एक 11 साल लड़की दंगे मर गई। एक जवान बेटे ने पिछले साल आत्महत्या कर ली ! एक और बेटा है जिसे नौकरी मिल गई थी । वो निम्मी को 3000 ₹ महीना देता है। जो मुआवजा मिला था उससे उसने अपनी तीन बेटियों की शादी कर दी। निम्मी बताती है कि वो क़ुरैशी है और उनकी बिरादरी में ‘लेन देन’ (दहेज़) बहुत चलता है। लड़की की ससुराल वालों ने नही मांगा मगर हमें तो देना ही था। अच्छी बात यह है कि ससुराल वाले लालची नही है।
निम्मी के पिता शफ़ीक़ 72 साल के है। वो एक चाय की दुकान पर मिले और निम्मी के घर पहुंचे। निम्मी जब अपनी कहानी बता रही थी तो उसकी आंखों से पानी बहने लगे शफ़ीक़ तब वहीं थे और बेचैन होने लगे। निम्मी की 6 बेटियों में 3 अब सयानी हो रही है। शफ़ीक़ कहते हैं वो अल्लाह से दुआ करते हैं कि इनका निकाह होने तक उनकी रूह कब्ज़ न की जाएं ताकि इन बच्चियों को बाप की कमी न महसूस हूँ। अब तक मैंने इसका ख्याल रखा है।
शफ़ीक़ अपने पास बैठे स्थानीय पार्षद पति मोहम्मद उमर की तरफ़ इशारा करते हुए कहते हैं कि हम इनके शुक्रगुजार है। मोहम्मद उमर बताते हैं कि शफ़ीक़ उन्ही के घर के पास रहते हैं। 8 सितंबर को जब यह उन्हें पता चला तो वो बेचैन होकर उनके पास आएं। दंगा चल रहा था और अब वहां जाकर अस्पताल में जाना, मुक़दमा लिखवाना और दफ़न करवाना जैसी बड़ी चुनौती सामने थी। उस समय सत्यपाल सिंह शहर कोतवाल थे, मेरा उनसे अच्छा परिचय था। वो भी जाट थे, मगर फ़रिश्ता सिम्त इंसान थें,उन्होंने बहुत मदद की। यहां से पुलिस टीम हमारे साथ भेजी। मैंने कत्लोगारत देखी। अस्पताल में लाशों के ढेर देखे। हम उन रास्तों से गुजरे जहां भीड़ हिंसा कर रही थी। मगर हम गए और गांव में फंसे हुए लोगो को वापस भी ले आये।
निम्मी अब मुक़दमा लड़ रही है वो कहती है ” रोज़ दंगो में आरोपी बनाए गए लोगों के बरी होने की ख़बर सुनती हूँ , मुझे भी लोग कहते हैं कि अब कुछ नही होगा ! किसी को सज़ा नही मिलेगी, बहावड़ी में 200 गज के मेरे घर की 30 हजार रुपये क़ीमत लग रही है। यहां शहर में 30 हज़ार प्रति गज जमीन बिकती है। हमारा आशियाना उजड़ गया। मैं बेवा हो गई। मुझे मेरी बेटी याद आती है। मैं बच्चों के सामने नही रोती ! मेरे शौहर की मौत के बाद मुझे मेरे बाप ने संभाल लिया वरना मैं जिंदा नही रह पाती। मुझे इंसाफ की अब कोई उम्मीद नही है। सब किस्मत का लिखा है। “
( मुजफ्फरनगर दंगे के 7 साल बाद अधिकतर आरोपी अदालत से बरी किया जा चुके हैं। दंगे का दंश झेल चुके लोगों की जिंदगी पूरी तरह बदल चुकी है। निम्मी जैसी 25 से ज्यादा विधवाओं की कहानियों का दर्द जुदा है। दंगो में औरतों के पिसने की कहानी का यह सिर्फ एक अंश है। जिन विधवाओं की उम्र कम थी उनमें से अधिकतर ने दूसरी शादी कर ली है। जो इस लायक नही थी उन्होंने अपनी जिंदगी को अपने बच्चों को समर्पित कर दिया है। मुजफ्फरनगर दंगा कल भी एक त्रासदी था,आज भी है। दानिश्वर इसे राजनीतिक दंगा कहते हैं। 7 साल बाद जाटों और मुसलमानों में दूरी खत्म करने के बहुत प्रयास हुए हैं और कुछ सफलताएं भी मिली है, मगर दिलों में दूरियां अब भी बहुत है।)