स्त्री – शिक्षा के लिए सब कुछ दांव पर लगाने वाली सावित्रीबाई फुले

हमारे जानी दुश्मन का

नाम है अज्ञान


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उसे धर दबोचो

मजबूत पकड़ कर पीटो

और

उसे जीवन से भगा दो!

तन्वी सुमन। Twocircles.net

उपर लिखे हुए एक-एक शब्द भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के हैं। आज उनके जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुए यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिरकार हमें जो आज़ादी नसीब हुई है उसके लिए इन औरतों को कितनी ज्यादा तकलीफ़ों और परेशानियों का सामना करना पड़ा है। उनके संघर्षों को जाने बग़ैर हम अपनी आज़ादी की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।

समाज सेविका और भारत की पहली महिला शिक्षिका के रूप में सावित्रीबाई फुले का नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुका है। समाज सेविका और शिक्षिका के साथ ही वह एक अच्छी कवियित्री भी थी। इन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के अधिकारों और उनके शिक्षा के लिए समर्पित कर दिया। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सातारा जिले के नायगांव में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम खण्डोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। बाल विवाह की शिकार सावित्रीबाई की शादी सन् 1840 में महज 9 साल की उम्र में 12 साल के ज्योतिराव फुले से साथ करवा दी गई थी।

सावित्रीबाई फुले की जिंदगी बदलने में उनके पति ज्योतिबा फुले का बहुत बड़ा योगदान रहा है। समाज के विरोध का सामना करने के बावजूद ज्योतिबा फुले ने समाज की परवाह किये बग़ैर सावित्रीबाई फुले को पढ़ाया ताकि वह समाज के दबे-कुचले तबके के लोगों के जीवन में बदलाव ला सके। सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन काल में दो काव्य पुस्तकें लिखीं। पहला कविता संग्रह ‘काव्य फुले’ 1854 में छपा, तब उनकी उम्र सिर्फ 23 साल की थी। कविताओं का दूसरा किताब ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ 1892 में आया, जिसको सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनसाथी ज्योतिबा फुले के परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद उनकी जीवनी के रूप में लिखा था।

18वीं और 19वीं सदी में ब्राह्मणवाद का कट्टरतम रूप अपने चरम पर था। बाबा साहेब अंबेडकर ने उस समय की हालत का वर्णन अपनी पुस्तक ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में करते हुए कहा है- ‘पेशेवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नही थी जिस पर कोई सवर्ण हिन्दू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे, ताकि हिन्दू इन्हें भूल से ना छू लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाडू बांधकर चलें, ताकि इनके पैरों के चिन्ह झाडू से मिट जाएं और कोई हिन्दू इनके पद चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएं, अछूत अपने गले में हांडी बांधकर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़ें हुए अछूत के थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा।’

उस दौर में जब महिलाओं को शिक्षा का कोई अधिकार नहीं था उसी वक़्त रूढ़ीवादी समाज की जंजीरों को तोड़ते हुए सावित्रीबाई फुले ने पितृसत्ता को जोरदार तरीके से चुनौती दिया था। शिक्षा के महत्त्व को समझते हुए उनके पति ज्योतिबा फुले ने इस बात को जाना कि समाज में स्त्रियों की दुर्दशा की सबसे बड़ी वजह अशिक्षा है। 1848 में सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर महाराष्ट्र के पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। लोगों के विरोधों के बावजूद सावित्रीबाई ने स्त्री-शिक्षा के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। जब वह बच्चियों को पढ़ाने के लिए स्कूल से निकलती थी उस वक़्त वह अपने साथ अलग से एक साड़ी रखती थी क्योंकि धर्म के ठेकेदार उनपर गोबर फेंकते थे ताकि वह पढ़ाने ना जा सकें।

फुले दम्पति ने जब शूद्रों और ख़ास कर महिलाओं को पढ़ाने का फैसला किया तब उन्हें समाज के द्वारा ख़ुद का घर छोड़ देने पर मजबूर कर दिया गया। घर छोड़ने के बाद जब उनके पास अपना कोई ठिकाना नहीं था तब फ़ातिमा शेख और उनके भाई उस्मान शेख ने अपने घर में उन्हें पनाह दी। फ़ातिमा शेख भारत की पहली मुस्लिम शिक्षकों में से एक थीं, जिन्होंने सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले द्वारा संचालित स्कूल में दलित बच्चों को पढ़ाने का काम किया। हालाँकि, अन्याय के खिलाफ लड़ने वाली कई महिलाओं की तरह, इस शिक्षिका और समाज सुधारक की स्मृति को भारतीय चेतना से मिटा दिया गया। आज तक, सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले के साथ घनिष्ठ संबंध के बावजूद, वह इतिहास के पन्नों में खोई हुई है।

सावित्रीबाई आधुनिक शिक्षा और अंग्रेजी भाषा की भी प्रबल पक्षधार थी। उन्होंने जाति व्यस्था को खत्म करने के लिए अंग्रेजी तक सिखा। मराठी में लिखी अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने इंसानियत, भाईचारा और शिक्षा के महत्त्व जैसे मूल्यों की वकालत की।

अपनी रचित कविता ‘शूद्रों का दर्द’ में वह लिखती हैं :

शूद्रों का दर्द

दो हज़ार वर्ष से भी पुराना है

ब्राह्मणों के षड्यंत्रों के जाल में

फंसी रही उनकी ‘सेवा’! 

उनकी लिखी एक अन्य कविता है:

जाओ जाकर पढ़ो-लिखो 

बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती 

काम करो ज्ञान और धन इकट्ठा करो

ज्ञान के बिना सब खो जाता है 

ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं

इसलिए, खाली ना बैठो जाओ जाकर शिक्षा लो 

दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो 

तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है 

इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो 

ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो! 

सावित्रीबाई फुले के योगदानों की व्याख्या के लिए शब्द कम पड़ जाएंगे। लेकिन इस बात को याद रखना बहुत जरूरी है कि आधुनिक भारत में महिलाओं को पढ़ने, लिखने और बोलने की जो आज़ादी मिली है वह सावित्रीबाई फुले के बिना अधूरी है। सावित्रीबाई फुले का योगदान भारत के नारीवादी आंदोलन में बहुत अहम है। उनके अस्तित्व को नकारना भारत के इतिहास में नारीवादी आंदोलन के अस्तित्व को नकारने जैसा है।

(तन्वी सुमन प्रतिभाशाली युवा लेखिका और ट्रेनी पत्रकार है वो टीसीएन के इंटर्नशिप प्रोग्राम से जुड़ी है।)

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