टेक्स्ट कैप्शन – आकिल हुसैन
फ़ोटो-निखिल जोशिया Twocircles.net के लिए
देश में लाए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध जारी है,इसे किसान आंदोलन का स्वरूप दिया गया है। आज इस किसान आंदोलन को लगभग 40 दिन से ज्यादा हो चुके हैं लेकिन किसान तमाम परेशानियों के बावजूद डटे हुए हैं और अपनी हुंकार को दिन प्रतिदिन तेज़ कर रहें हैं। दिल्ली के गाजीपुर बार्डर,टिकरी बार्डर,सिंधु बार्डर पर आंदोलन जारी हैं। किसानों के अनुसार इन कानूनों की वज़ह से उनकी खेती पर कारपोरेट कंपनियों का कब्जा हो जाएगा। किसान अब तक तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने की माँग पर अड़े हुए हैं।
सितंबर में भारत की संसद ने कृषि संबंधी तीन विधेयकों को पारित किया। इन विधेयकों को भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इन विधेयकों को मंजूरी दे दी, जिसके बाद ये तीनों क़ानून बन गए। इन क़ानूनों के प्रवाधानों के विरोध में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। किसानों को आशंका है कि इन सुधारों के बहाने सरकार एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर फसलों की सरकारी खरीद और वर्तमान मंडी व्यवस्था से पल्ला झाड़कर कृषि बाजार का निजीकरण करना चाहती है।
सरकार का कहना है कि इन तीन कानूनों से कृषि उपज की बिक्री हेतु एक नई वैकल्पिक व्यवस्था तैयार होगी जो वर्तमान मंडी व एमएसपी व्यवस्था के साथ-साथ चलती रहेगी। इससे फसलों के भंडारण, निर्यात आदि क्षेत्रों में निवेश बढ़ेगा और साथ ही किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी। सरकार के अनुसार इन क़ानूनों के ज़रिए एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) की मंडियों के साथ साथ निजी कंपनियों को भी किसानों के साथ अनुबंधीय खेती, खाद्यान्नों की ख़रीद और भंडारन के अलावा बिक्री करने का अधिकार होगा।
विरोध करने वाले किसानों को इस बात की आशंका है कि सरकार किसानों से गेहूं और धान जैसी फसलों की ख़रीद को कम करते हुए बंद कर सकती है और उन्हें पूरी तरह से बाज़ार के भरोसे रहना होगा। किसानों को इस बात की आशंका भी है कि इससे निजी कंपनियों को फ़ायदा होगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य के ख़त्म होने से किसानों की मुश्किलें बढ़ेंगी। निजी कंपनियों के आने से सरकार अनाज की ख़रीद कम कर सकती है या बंद कर सकती है। किसानों को सबसे बड़ा डर न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होने का है।
हालांकि तीनों नए क़ानूनों में एपीएमसी मंडियों के बंद करने या एमएसपी सिस्टम को ख़त्म करने की बात शामिल नहीं है। सरकार ने बिल में मंडियों को खत्म करने की बात कहीं पर भी नहीं लिखी है, लेकिन उसका असर इतना व्यापक हो सकता है कि मंडियों को तबाह कर सकता है।इसका अंदाजा लगाकर किसान डरा हुआ है।
पंजाब के किसानों ने इन क़ानूनों के विरोध में जून-जुलाई से ही प्रदर्शन शुरू कर दिया था। हरियाणा के किसान विरोध प्रदर्शन में सितंबर में शामिल हुए।पंजाब और हरियाणा में यह विरोध प्रदर्शन पिछले कुछ महीनों से चल रहा था। ऐसे में विरोध प्रदर्शन करने वाले किसान पिछले वर्ष नवंबर मे दिल्ली की सीमा तक पहुंच गए, दिल्ली के बार्डर पर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। इसके बाद पंजाब और हरियाणा के अलावा दूसरे राज्यों के किसान भी विरोध प्रदर्शन में शामिल होने शुरू हुए।
पहले कानून में किसानों को अधिसूचित मंडियों के अलावा भी अपनी उपज को कही और भी बेच सकते हैं। सरकार का दावा है कि इससे किसान मंडियों में होने वाले शोषण से बचेंगे, किसान की फसल के ज्यादा खरीददार होंगे और किसानों को फसलों की अच्छी कीमत मिलेगी।
दूसरा कानून ‘अनुबंध कृषि’ से संबंधित है जो किसान को अपनी फसल तय मानकों और कीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध करने की सुविधा देता है। अब किसान थोक विक्रेताओं और प्राइवेट कंपनी से सीधे अनुबंध करके अनाज का उत्पादन कर सकते हैं। इसमें फसल की क़ीमत पर बात तय करके अनुबंध किया जा सकता है।सरकार का कहना है कि इस प्रावधान से किसानों को पूरा मुनाफ़ा होगा, बिचौलियों को कोई हिस्सा नहीं देना होगा।
तीसरा कानून ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ में संशोधन से संबंधित है जिससे अनाज,तेल, तिलहन, दलहन, आलू और प्याज़ सहित सभी कृषि खाद्य पदार्थ अब नियंत्रण से मुक्त होंगे। इन वस्तुओं पर कुछ विशेष परिस्थितियों के अलावा स्टॉक की सीमा भी अब नहीं लगेगी। नए क़ानूनों की मदद से सरकार ने इन आवश्यक वस्तुओं को सूची से हटा दिया हैं। सरकार का कहना है कि इससे इन उत्पादों के भंडारण पर कोई रोक नहीं होगी, इससे निजी निवेश आएगा और क़ीमतें स्थिर रहेंगी।
नवंबर में दिल्ली की सीमा पर जमा हुए। हरियाणा पुलिस ने बैरिकेड और वाटर कैनन के ज़रिए इन लोगों को रोकने की कोशिश की गई तब आंदोलन। विभिन्न राज्यों के विभिन्न किसान संगठनों ने इस विरोध प्रदर्शन को अपना समर्थन दिया और अपने अपने राज्यों में भी विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके अलावा इस दिन पूरे देश में भारत बंद का आयोजन किया गया था. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और देश के दूसरे हिस्सों के करीब 40 किसान संगठन इस विरोध प्रदर्शन में हिस्सा ले रहे हैं।
हज़ारों किसान टेंटों, ट्रैक्टरों और ट्रकों में बैठकर सड़कों पर बैठकर चौबीसों घंटे प्रदर्शन कर रहे हैं। इन किसानों को स्थानीय लोगों का समर्थन भी मिल रहा है, किसानों का दावा है कि वे छह महीने की तैयारी के साथ प्रदर्शन करने पहुंचे हैं। किसान संगठनों ने इस दौरान भारत बंद का भी ऐलान किया था। भारत बंद का असर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, असम और कर्नाटक में भी देखने को मिला था। जबकि पंजाब और हरियाणा में भारत बंद का असर ज़्यादा देखने को मिला था। इस विरोध प्रदर्शन को देश के दो दर्जन राजनीतिक दलों का समर्थन भी हासिल हुआ था। किसान आंदोलन को भी देश के विपक्षी दलों का समर्थन मिला हुआ है।
आंदोलन को बढ़ता देख कर केंद्र सरकार ने संज्ञान लिया हैं।अभी तक सरकार और किसान संगठनों के बीच 7 बार बातचीत हो चुकी है परंतु कुछ हल नहीं निकला। सरकार अभी तक आंदोलनकारी किसानों को इस बिल से जुड़ी कमियां समझाने में नाकाम रही है।अभी तक बातचीत का दौर विफल रहा है। तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी और एमएसपी की क़ानूनी गारंटी उस पर अभी भी गतिरोध जारी है। हाल ही में 4 जनवरी को भी सातवें दौर की वार्ता किसानों और सरकार के बीच हुई परंतु कुछ हल नहीं निकला। किसान संगठनों के अनुसार अब 8 जनवरी को होने वाली बातचीत इसी मुद्दे पर होगी कि इन क़ानूनों को रद्द करना है और किसी अन्य मुद्दे पर कोई बात नहीं होगी।
अभी तक किसान आंदोलन में 53 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। फिर भी किसान बिना कृषि कानून वापस कराए पीछे हटने को तैयार नहीं है और सरकार भी अपनी हट पर अड़ी हुई है कि वो कानून वापस नहीं लेगी। किसानों के अनुसार वे लोग सड़कों पर मर जाएंगे लेकिन कानून वापस कराए बिना नहीं जाएंगे। किसानों का मानना हैं कि यह क़ानून उनकी ज़िंदगियों को बर्बाद कर देंगे।
इसी बीच विभिन्न भाजपा और सरकार के मंत्रियों द्वारा कभी किसान आंदोलन को वामपंथी द्वारा भड़काया बताया गया तो कभी किसी मंत्री ने इसे खलिस्तान बताया। कभी कोई भाजपा नेता ने बताया कि आंदोलन में नक्सली घुस आए हैं तो कभी कहा गया टुकड़े टुकड़े गैंग आंदोलन में हैं। अपने ही देश के लोगों और वो भी किसानों जो कि अन्नदाता हैं उनके खिलाफ ऐसी फर्जी बयानबाजी सुनने को मिली। यह नौबत तक आ गई कि किसानों को साबित करना पड़ेगा कि वे किसान हैं।
किसान सिर्फ अपने लिए नहीं लड़ रहे हैं। वे लड़ रहे हैं ताकि कॉरपोरेट और सियासत की संगठित लूट पर नियंत्रण रहे, ताकि महंगाई आसमान न छुए, ताकि कालाबाजारी वैध न हो, ताकि देश के किसान कर्ज से दबकर जान न दें, ताकि किसानों की रोजी-रोटी न छिने, ताकि जनता की मेहनत पर उसका भी हक़ हो, ताकि देश का संसाधन सिर्फ दो लोगों का खजाना न भरे। किसान सिर्फ अपने लिए नहीं, वे हमारे लिए भी लड़ रहे हैं। लेकिन इस देश की सत्ता कारपोरेट के इशारे पर उन्हें तोड़ना चाहती है। इस देश का मीडिया उन्हें बदनाम करना चाहता है। किसान समाज का प्राथमिक उत्पादक है।
केंद्र की भाजपा सरकार किसानों को तो दूर अपने घटक दलों को भी इस कानून के फायदे बताने में विफल रही है। दो घटक दल अभी तक सिर्फ कृषि कानूनों के विरोध में एनडीए छोड़ चुके हैं। अब देखना यह हैं कि सरकार अपने नागरिकों के सामने झूकती हैं या हठ और बल का परिचय देती हुई अपने ही नागरिकों से द्वेष की भावना रखतीं हैं।