बिहार में उर्दू के साथ भेदभाव पर उठ रहे हैं सवाल

जिब्रानउद्दीन Twocircles.net के लिए 

मई 2020 का मामला है, जब बिहार के जिला दरभंगा मे स्थित सीएम लॉ कॉलेज के दरवाज़े से उर्दू में लिखा नाम हटवा दिया गया । कहा गया कि ये कदम उर्दू भाषा के साथ भेदभाव के चलते उठाया गया है। बहुत से हंगामे हुए, समर्थन में भी और विरोध में भी, ट्विटर पर #urdulikhocmlawcollege ट्रेंड में आ गया, बाद में कॉलेज प्रशासन ने मामले की गंभीरता देखते हुए नाम को उर्दू भाषा में फिर से लिखवा दिया।


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बिहार के दूसरे राजभाषा का दर्जा “उर्दू” को प्राप्त है उसके बाद भी इस तरह का घटना, बहुत से सवालों को खड़ा करती है कि इस भेदभाव का मुख्य कारण क्या है ! जिस तरह उर्दू को मुसलमानो की भाषा समझी जाती है, क्या इस भेदभाव कारण धर्म है ! और क्या सच में, उर्दू सिर्फ मुसलमानों की ही भाषा है!

उर्दू भाषा का उदय प्राकृत से हुआ है, उसी प्राकृत से जिससे संस्कृत, हिंदी, और दूसरी भारतीय भाषाएं विकसित हुई हैं। प्राकृत का एक अंश संस्कृत में बदल गया और बाकी अंशों से बंगाली, पंजाबी, मराठी, गुजराती इत्यादि भाषाएं निकली, इन्हीं भाषाओं में से एक भाषा हिन्दुस्तानी भी थी जिसे ब्रिटिश राज के दौर में हिन्दू और मुस्लिम दोनों के द्वारा फारसी लिपि में लिखी जाती थी और बाद में ओछी राजनीति ने हिन्दुस्तानी भाषा को उर्दू और हिंदी में बांट दिया, ठीक उसी तरह जैसे हिंदुओ और मुस्लिमों को बांटा गया।

12वी सदी में जन्मी उर्दू भाषा को बोलने वालों की संख्या आज दुनिया भर में साढ़े दस करोड़ है लेकिन इसमें भी दो राय नहीं कि उर्दू भाषा की मात्रभूमि भी भारत है उसको परवान चढ़ाने वाले लोग भी भारत के ही हैं।

यूं तो उर्दू के पहले शायर हज़रत अमीर खुसरो को माना जाता है, लेकिन अगर नाम गिनने बैठ जाएं तो ना जाने कितने ऐसे बड़ी बड़ी हस्तियों के नाम मिल जाएंगे जिनका रिश्ता मुस्लिम धर्म से नहीं था पर भाषा की विकास में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। जैसे, संत कबीर, मीरा बाई, बृज नारायण चकबस्त, दुष्यंत कुमार, प्रेमचंद्र, राम प्रसाद बिस्मिल, फ़िराक़ गोरखपुरी, कृष्ण चन्द्र, राजिंदर सिंह बेदी, इत्यादि उर्दू भाषा का इस्तेमाल सबसे ज़्यादा हिन्दुस्तान में ही होता है और यहां के 4 प्रमुख राज्य और केंद्र शासित प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना और जम्मू कश्मीर ने इसे राजभाषा घोषित कर रखा है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद् और भी कितनी छोटी बड़ी संस्थाएं उर्दू भाषा के विकास के लिए दिन रात मेहनत कर रहीं है फिर भी दुर्भाग्यवश इसे हिंदी भाषा का प्रतिद्वंद्वी समझा जाने लगा है, और भेदभाव किया जाता है।

इस भेदभाव का का एक मुख्य कारण हमारे विद्यालयों की शिक्षा प्रणाली है, ज़्यादातर विद्यालय दूसरी भाषाओं के लिए हिंदी, संस्कृत, फ्रेंच, या जर्मन इत्यादि का ही विकल्प देते हैं और उर्दू को किनारे कर देते हैं। 2011 के एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले दिल्ली राज्य में ही 27 लाख लोग उर्दू बोलने वाले हैं, फिर भी कुछ ही विद्यालय है दिल्ली में जो उर्दू पढ़ने का मौका देते हैं।

बात सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है दूसरे जगहों में भी कुछ ऐसा ही हाल है, जैसे कश्मीर में, जहां की राजभाषा उर्दू है उसके वजह से सरकारी नौकरियों में उर्दू बोलने वालों को ज़्यादा मौका दिया जाता है, हालांकि वहां उर्दू बोलने वालों को संख्या मात्र 14 हज़ार है और उर्दू भाषा को विद्यालयों मे उचित देखभाल भी नहीं मिलती। जब उर्दू बोलने वाले होंगे ही नहीं, तो नौकरियां मिलेंगी किसे!

अब अगर आप सोंचें की संस्कृत भाषा, जिसे लगभग देश के हर विद्यालय में दूसरी भाषा के तौर पर पढ़ाया जाता है, उसे बोलने वालों की संख्या कितनी होंगी?

तो आपको उत्तर मिलेगा के 2011 के सेंसस रिपोर्ट अनुसार, वो संख्या 25 हज़ार हैं, जो कि 2001 में और कम, सिर्फ 15 हज़ार थीं।

संस्कृत भाषा का उपयोग ज़्यादातर हिन्दू धर्म की उच्च जाति ब्राह्मणों द्वारा धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है, ब्राह्मणों की संख्या देश में लगभग 4.3% यानी साढ़े 6 करोड़ है, इस ही तरह अरबी भाषा का भी उपयोग मुसलमानों द्वारा धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है और मुसलमानों की संख्या देश में 14% यानी साढ़े 19 करोड़ है, फिर भी अरबी भाषा के लिए संस्कृत भाषा जैसा कोई प्रावधान नहीं।

क्या ये अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय है या भाषाओं को धर्म के चश्मों को हटाकर ही देखने की ज़रूरत है। हमारे विद्यालयों को चाहिए कि वो उर्दू भाषा के विकास में सहयोग करे ताकि आने वाली पीढ़ियों में भी कोई दूसरा ग़ालिब कोई दूसरा प्रेमचंद पैदा हो सके।

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