मनीषा भल्ला । अलीमुल्लाह ख़ान
मक्का मस्जिद धमाके से लेकर मालेगांव धमाके तक, अक्षरधाम से लेकर मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद धमाके की घटना तक बेगुनाह मुसलमानो की गिरफ्तारी होती आई हैं। ऐसे ही कुछ आतंकी घटनाओं में फंसाए गए मुस्लिम नौजवानों की दास्तां पत्रकार डा अलीमुल्लाह ख़ान और पत्रकार मनीषा भल्ला की हाल ही में आई किताब ‘बाइज़्ज़त बरी’ में मौजूद हैं। ‘बाइज़्ज़त बरी’ किताब में उन मुस्लिम युवाओ की दिल दहला देने वाली दास्ताँ है, जिन्हें पुलिस ने आतंकवाद के झूठे आरोप में गिरफ्तार किया फिर पुलिस कस्टडी में उन्हें थर्ड डिग्री इस्तेमाल कर टार्चर किया गया। अपनी जिंदगी के 15-20 वर्ष खोने के बाद उन्हें अदालत ने बाइज़्ज़त बरी किया।
बाइज़्ज़त बरी किताब में 16 दास्तानों का जिक्र है जिसमे बताया गया है कि यदि आपके चेहरे पर दाढ़ी, और सर पर टोपी है, या आपका नाम तारिक अहमद, मोहम्मद हुसैन, मुमताज अहमद, इरशाद अली, अब्दुल मुबीन, रियाज अहमद है तो सत्ता के लिए कितना आसान हो जाता है दमन करना। किताब में जाँच एजेंसियों, निचली अदालतो और पुलिस के एकतरफा रवैये ने कैसे मासूम मुसलमान नौजवानों की जिंदगी को पटरी से उतारा, और उनके हँसते- खेलते परिवार को उजाड़ दिया इसे बहुत विस्तार से बताया गया है । इसके साथ ही लोकतंत्र के चौथा स्तंभ मीडिया ने मीडिया ट्रायल करके इन मुस्लिम नौजवानों के प्रति समाज मे ऐसा जहर घोला की अदालत से बाइज्जत बरी होने के बाद भी उनके परिवार वालो को शक के नज़रिए से देखा जाने लगा, जिसकी भरपाई कभी नही की सकती। किताब ने स्टेट मशीनरी का साम्प्रदायिक चेहरा भी पाठको के सामने उजागर किया गया है।
किताब के कुछ अंश …हूबहू
‘ तकदीर में शायद कुछ और ही लिखा था। जिंदगी में कभी थर्ड डिग्री टार्चर और ऐसी ज़लालत भी मिलेंगी,सोचा भी न था। पहले दिन खाने के लिए कुछ भी नहीं दिया गया। गिरफ्तारी के बाद से ही थर्ड टार्चर शुरू हो गया। यातना देने के तमाम तरीके आजमाएं गए। कभी 180 डिग्री पर ज़ोर से टांगे चीर दी जाती। कभी बदन के पूरे कपड़े उतार दिए जाते। बेंच पर लिटाकर सिर नीचे कर दिया जाता और टांगें बेंच पर, एक आदमी पेट पर बैठ जाता और हाथ पांव बांध दिए जाते। इसके बाद एक आदमी पानी की भरी बाल्टी नाक के अंदर मारता और मुंह में कपड़ा ठूंस दिया जाता। पेट से कुछ मुंह के ज़रिए निकलता लेकिन कपड़ा ठुंसे होने के कारण फिर अंदर हो जाता। पैंट के अंदर चूहे छोड़ दिए जाते और नीचे से पैंट बांध दी जाती’।
नाम- तारिक अहमद डार
गिरफ्तारी- 10 नवंबर 2005
बाइज़्ज़त बरी- 16 फरवरी 2017
आरोप- दिल्ली सीरियल बम ब्लास्ट 2005
‘ आखिरकार 29 मार्च 2009 को अदालत ने वासिफ हैदर को केस से अदालत ने बरी कर दिया। वासिफ जेल से बाहर आ गए लेकिन अब दुनिया बदल चुकी थी। वासिफ के पास अब न नौकरी थी, न दोस्त और न रिश्तेदार। गिरफ्तार होते ही उनकी नौकरी चली गई। जेल से रिहा होने के चार-पांच महीने तक भी लोगों ने उनसे बातचीत नहीं की। लेकिन फिर सब धीरे धीरे समझने लगे कि उन्हें फर्जी तौर से फंसाया गया है। बाइज़्ज़त बरी होने के बावजूद वासिफ हैदर का मीडिया ट्रायल चलता रहा। उनकी रिहाई के बाद भी अगर कहीं धमाका हो जाता तो एक हिंदी दैनिक अखबार उसके तार वासिफ हैदर से ही जोड़ता। अखबार की सुर्खी होती,”इस बम धमाके के तार आतंकी वासिफ हैदर से जुड़े हुए हैं।”
नाम – सैय्यद वासिफ हैदर
गिरफ्तारी- 30 जुलाई 2001
बाइज़्ज़त बरी- 12 अगस्त 2009
आरोप- हत्या, राष्ट्रदोह, फसाद फैलाना, भड़काऊ भाषण, बम विस्फोट, अवैध हथियार रखना समेत 11 मामले
‘ इस मुलाकात के दौरान ही जन्नत ने 25 लाख रूपये निकाल कर उनके बेड पर रखे l अबरार के लिए यह हैरानी की बात थी l यह कैसे पैसे हैं, उन्होंने हैरत से पूछा ! सब्र करो , बताते हैं, उसकी बीवी जन्नत ने कहा l इसके बाद जन्नत ने अबरार से कहा कि हमने तुम्हें एटीएस के हाथों बेच दिया है l उसने यह भी बताया कि एटीएस ने उन्हें बायकुला जेल के सामने एक रेस्टोरेंट के टॉप Floor पर 2 कमरों का फ्लैट दिया है l इसके अलावा भिवण्डी में भी उसे दो फ्लैट दिये गए हैं l इतना ही नहीं, औरंगाबाद, परभनी, नांदेड़, अदीलाबाद में उसको प्लाट मिले हैं l अबरार हैरान भी था और गुस्से में भी’ l
‘ उसकी आँखों के सामने सारे मंज़र फिल्म की तरह चलने लगे l कैसे उसके साले फारूक़ ने उसको कैसे पुलिस स्टेशन बुलवाया। कैसे उसकी बीवी जन्नत इन्दौर, उज्जैन और मुंबई में ऐश कर रही थी जबकि वह परेशान था। उसकी शॉपिंग, सबके साथ हंस हंस कर तस्वीरें खिंचवाना, पुलिस कार्मियों से बेतकल्लुफी, फारूक़ का हर जगह पुलिस से पहले मौजूद होना l यानि वो सब इन लोगों के बीच पहले से ही तय था l उसने जो प्रतिक्रिया दी ज़ाहिर है गुस्से वाली ही होगी l लेकिन जन्नत पर इसका शायद ही कोई असर हुआ l तुम भाड़ में जाओ ! जिओ या मरो, कहकर वह चली गयी l जाते-जाते उसने अबरार से सारे नाते तोड़ दिये। वह लोग चले गए l फिर अबरार अस्पताल से डिस्चार्ज हुए l वहां से उसको बायकुला जेल भेज दिया गया’ l
नाम- अबरार अहमद ग़ुलाम अहमद
गिरफ्तारी- 16 दिसंबर 2006
बाइज़्ज़त बरी- 26 अप्रैल 2016
आरोप- मालेगांव बम धमाकों को अंजाम देना
‘ पुलिस के कुछ सवाल तो बहुत अजीब होते थे। जैसे, तुमने दाढ़ी क्यो रखी है? यातनाओं के वक्त उनकी दाढ़ी नफ़रत का निशाना बनी। पुलिस वालों ने नोच-नोच कर उनकी दाढ़ी के बाल आने कर दिए। इस दौरान एक अधिकारी ने दाढ़ी जलानें के लिए भी कहा। पुलिस वालों का बार बार बस एक ही सवाल था, यह धमाका तुमने किया है, बताओं इसके लिए कहां से और कितने पैसे मिले हैं? ज़ेहनी और जिस्मानी तौर पर उनकी हिम्मत टूट रही थी। मुबीन पुलिसवालों की संप्रदायिक नफ़रत के निशाने पर थे। उनसे कहा गया मुसलमान इस देश में 700 साल से ज़ुल्म कर रहे हैं। हमें मौका मिला है इसका बदला लेने का। तुम लोग गद्दार हो , मुल्क के गद्दार। लेकिन एक अधिकारी अच्छे भी थे। एक अधिकारी ने कहा भी कि तुम निर्दोष हो लेकिन हम पर बहुत दबाव हैं। किसका दबाव? हुकूमत और बड़े अधिकारियों का’।
नाम- अब्दुल मुबीन
गिरफ्तारी- 4 सितंबर 2000
जमानत पर रिहाई- 8 अगस्त 2008
आरोप- आगरा समेत उत्तर प्रदेश में कई जगह बम धमाके
‘ ज़ुल्म नहीं थमा। पुलिस वालों ने उसकी पेशाब वाली जगह पर पेन की रिफिल घुसा कर अंदर बाहर किया। यह न सिर्फ शर्मनाक था बल्कि असहनीय भी था। रियाज़ का कहना है कि उस वक्त वह दुआ कर रहे थें कि इससे बेहतर मुझे मौत आ जाए। उनके जननांग पर करेंट दिया गया। पुलिस हिरासत में रियाज़ के साथ साथ बाकि सभी आरोपियों से भी मारपीट हुई। इस दौरान रियाज़ का खाना घर से आता था। इधर मीडिया ने रियाज़ को आतंकी घोषित कर दिया। घर के लोगों की मुसीबतें इससे और बढ़ गई। उनकी जिंदगी पूरी तरह से बदल चुकी थी। करीबी लोगों ने साथ छोड़ दिया। रिश्तेदारों ने आना जाना बंद कर दिया। तमाम लेन देन खत्म हो गए’।
‘एक महीना तक उनकी पुलिस रिमांड की अवधि बढ़ती रहीं। इस एक महीने में उनके लिए हर पर मौत के समान था। उनको लगता था कि बस मरने वालें हैं। पुलिस रिमांड के दौरान उनकी जान ही नहीं निकाली गई वर्ना बाकि सब कुछ किया गया। उनसे बार बार इंडिका कार, असलहे और धमाकों के बारे में सवाल होते रहें। रियाज़ को इनमें किसी के बारे में नहीं मालूम था। मगर पुलिस ने उनकी किसी बात का यकीन नहीं किया और गुनाह कबूल करने का दबाव बनातीं रहीं’।
नाम – रियाज़ अहमद मोहम्मद रमज़ान
गिरफ्तारी- 12 मई 2006
बाइज़्ज़त बरी- 28 जुलाई 2016
आरोप- हथियारों से भरी गाड़ी को ठिकाने लगाना
बाइज़्ज़त बरी किताब के लेखक डा अलीमुल्लाह ख़ान Twocircles.net से बताते हैं कि उनको और एक अन्य लेखक मनीषा को यह किताब लिखने में लगभग दो साल का समय लगा हैं। अलीमुल्लाह ख़ान बताते हैं कि इस किताब को लिखने का मकसद यह था कि जो बेगुनाह मुसलमान आतंक के आरोप में पकड़े गए फिर अदालत से वो निर्दोष साबित हुए तो उनके निर्दोष साबित होने के बाद की जिंदगी के बारे में बताना हैं जिससे कि आम जनता जाने कि कैसे जांच एजेंसियों और सरकारो की उदासीनता के चलते जेल के सलाखों के बाहर भी इनकी जिंदगी कैसे जहन्नुम बनी हुई है।
डा अलीमुल्लाह ख़ान कहते हैं कि जांच एजेंसियों, निचली अदालतों और पुलिस के एकतरफा रवैये के कारण इन लोगों की जिंदगी पटरी से ऐसी उखड़ी कि अदालत द्वारा बाइज़्जत बरी होने के बाद भी जिंदगी पटरी पर न आ सकी। अलीमुल्लाह ख़ान कहते हैं कि अदालत ने तो उनको बाइज़्ज़त बरी कर दिया लेकिन समाज ने उन लोगों को बाइज़्ज़त बरी नहीं किया। समाजिक तौर पर आतंकी होने का कलंक नहीं धुला। अलीमुल्लाह ख़ान कहते हैं कि जेल से बाहर आने के बाद इन लोगों को कोई नौकरी नहीं मिली, बाकि ज़मीन जायदाद,ज़ेवर वगैरह अदालत, कचहरी, वकील खा गए जिससे इनके परिवार तबाह बर्बाद हो गए।
किताब की सहायक लेखिका मनीषा भल्ला बताती है कि किताब को लिखने के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। कई बार वो एक -एक घर मे 10 बार गई। विश्वास जीतना मुश्किल था। जिनके बारे में लिख रहे थे वो आशंका से घिरे हुए थे उनका आत्मविश्वास कमजोर था। इन 16 कहानियों को लिखने के लिए हमे 2 साल लगें। मगर अब लगता है कि हमने ठीक काम किया। यह किताब आवाम की आवाज़ बन गई है। हमारे दुनियाभर में वेबिनार हो रहे हैं। हमने इन सभी परिवार वालों की तकलीफ को महसूस किया है।
आप भी इनकी तकलीफ को किताब पढ़कर महसूस कर सकते हैं।
हमने जो महसूस किया वो लिख भी नही पाए हैं। उस दर्द को बयां करना नामुमकिन है जो इन बेगुनाह कैदियों ने महसूस किया है।