लॉकडाऊन के बाद से बर्बाद हो गई मजदूरों की जिंदगी, अब हर रास्ता लगता है कठिन!

दरभंगा से जिब्रानउद्दीन। Twocircles.Net

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा करने के लगभग एक साल बाद भी प्रवासी मजदूरों की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हैं। हजारों की संख्या में मजदूर ऐसे हैं जिनको मजदूरी कटौती, बढ़ते ऋण और नौकरियां खोजने में कठिनाई का सामना करना पर रहा है। अगर नौकरियां हाथ आती भी हैं तो वेतन इतनी कम होती है की उनका गुजर बसर नही हो पाता। वैसे तो देश के महानगर निर्माण स्थल, औद्योगिक क्लस्टर और बाजारों से लबरेज हैं, लेकिन इन स्थानों पर जीवनयापन करने वाले प्रवासी मजदूरों के लिए अभी तक जीवन सामान्य नहीं हो पाया है।


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साहेब पासवान, जिनकी उम्र 50 से 55 वर्ष के बीच की होगी, लॉकडाउन के बाद से हर सुबह अपनी पुरानी उजली साइकिल लेकर काम की तलाश में दरभंगा शहर के चौराहे की ओर निकल पड़ते हैं। हालांकि हमेशा से उनके साथ ऐसा नहीं था। राजस्थान में उनके पास अच्छी खासी चूड़ियां बनाने की नौकरी थी। वेतन भी इतना हो जाया करता था की यहां गांव में रह रहे उनके परिवार का पालन पोषण हो जाए। पिछले मार्च में जब लॉकडाउन की मार पड़ी तो लाखों मजदूरों की तरह वो भी अपने गांव लौट आएं।

उनका कहना है “बूढ़ी हड्डियों में अब उतनी ताकत नहीं रही के वापस जा सकूं और भगवान न चाहे कहीं फिर से इतना चलकर वापस आना पड़ा..।” साहेब यहीं मजदूरी का काम कर लिया करते हैं। पूछने पर उन्होंने बताया की, “कभी काम मिलता भी है कभी नही भी। अब भगवान जो दिन दिखाए !”

बिहार के मधुबनी ज़िले के जुबैर अंसारी आजकल दिल्ली के मालवीय नगर में रहते हैं। उन्होंने Twocircles.net से फोन पर हुए बात में बताया की उन्हे काम ढूंढने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। जहां कभी काम पे काम आया करता था वहीं आज कितने दिनों तक कोई काम नही मिल पाता है। “रहने और खाने का खर्चा तक बड़ी मुश्किल से हो पा रहा है।” उनका कहना है की किसी तरह अगर हालात सुधरे तो ठीक है वरना वो वापस गांव लौट जायेंगे।

जब हमने पिछले साल मार्च के महीने में गांव लौटे मोहम्मद सरफराज से जानकारी लेनी चाही के उनका वापस मुंबई जाकर अपने पुराने काम, “बैग बनाने” को लेकर क्या इरादा है तो उन्होंने कहा कि, वो मुंबई जाकर वापस लौटें हैं। “पहले के मुकाबले मुझे पैसे कम दिए जा रहे थें। फैक्ट्री के मालिक कहते थे की मार्केट में पैसा नही है। मैने कुछ दिनों तक तो किसी तरह गुजर बसर कर लिया लेकिन वहां रहने और खाने में ही वेतन का अच्छा खासा हिस्सा चला जा रहा था। फिर घर पर भी पैसे भेजने होते थें।”

सरफराज जल्द ही मुंबई से लौट आएं और घर पर रहकर ही मजदूरी कर लेते हैं। हालांकि पैसे अभी भी कम ही मिलता है लेकिन फिर भी मुंबई की भाग दौड़ से दूर हैं। “यहां मैं अपने परिवार के साथ रह सकता हूं। जल्द ही बहन की शादी भी करवानी है।” मोहम्मद सरफराज ने बताया की उनके साथ के कई लोग मुंबई से लौट आएं हैं।

दरभंगा के एक छोटे से गांव में रहने वाले भोला यादव का भी हाल कुछ ऐसा ही है। जब दिल्ली के मालवीय नगर से भोला लॉकडाउन के दौरान बिहार पहुंचे थे तो इन के ऊपर पूरे घर की जिम्मेदारी थी। लॉकडाउन के कुछ महीनों बाद ही 3 साल की बचत के नाम पर उनके पास चंद हजार रूपए रह गए थें। हमारी मुलाकात भोला से बिहार में पिछले साल आए बाढ़ के दौरान हुई थी जब वो कई किलोमीटर दूर से दूसरों की मवेशियों के लिए चारा ढो कर ला रहे थे।

हम हाल का समाचार लेने जब उनके घर पहुंचे तो वहां पता चला की वो आजकल पटना में हैं। परिवार वालों ने बताया, “भोला लॉकडाउन में छोटी-मोटी मजदूरियां कर लिया करते थें। फिर गांव के दूसरे लोग जब दिल्ली वापस जाने लगे तो वो भी चले गए। लेकिन उन्हें वहां कोई काम मिलता ही नही था।” उन्होंने दुर्दशा पर रोशनी डालते हुए बताया की तकरीबन 2 महीना वो दिल्ली में रहे लेकिन मुश्किल से 10 दिन ही काम मिल पाया। “फिर दरभंगा के ही एक ठेकेदार ने उन्हें यकीन दिलवाया की पटना में काम दिलवाएंगे तब से वो वापस लौटकर पटना में ही हैं। इनका वेतन भी लॉकडाउन के पहले जितना नही रहा है।

यदि कोविद -19 के संकट से कुछ भी सकारात्मक निकला है तो, यह है कि दुनिया के सबसे कठोर लॉकडाउन ने कमजोर भारतीय प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा को उजागर किया है। काम छूट जाने के बाद अपना और परिवार के पेट को पालने के लिए उनके पास गांवों लौटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। लाखों की संख्या में, उनको अपने सामान और बच्चों को लेकर, हजारों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। दुनिया वालों ने शायद इस पलायन को महज एक समाचार की तरह सुना और भूल गए। लेकिन जो उनके ऊपर वास्तव में गुजरी है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

और आज एक साल बाद भी उनकी दशा में कोई सुधार होता नही दिख रहा। बल्कि उनका जीवन ऋण और जिम्मेदारियों की वजह से और कठिन होता जा रहा। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 5.6 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं। हालांकि कोई आधिकारिक डेटा उपलब्ध नहीं है लेकिन यह अनुमान लगाया जाता है कि वर्तमान में कम से कम 10 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं। जिनकी भारत के जीडीपी में 10% की भागीदारी है। इतने बड़े योगदान के बावजूद उनके हितों को प्रभावी ढंग से पूरा नहीं किया जा रहा।

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