विशेष संवाददाता। Twocircles.net
लखनऊ के टुंडे कबाब को विश्व भर में पहचान दिलाने वाले हाजी रईस अहमद दुनिया से रुखसत हो गए हैं। उनके इंतेक़ाल के बाद लखनऊ में अमीनाबाद में ऐतिहासिक बाजार पूरी तरह बंद रहा। हाजी रईस का 85 वर्ष की उम्र में शुक्रवार को हार्ट अटैक के चलते निधन हो गया। शनिवार सुबह 10 बजें लखनऊ के ऐशबाग के कब्रिस्तान में हाजी रईस को सुपुर्द ए खाक कर दिया गया।
हाजी रईस अहमद टुंडे कबाब की 125 साल पहले शुरुआत करने वाले हाजी मुराद के बेटे थे। वो हाजी रईस ही थे जिन्होंने दुनिया भर में लखनऊ का नाम अपने कबाब से मशहूर किया। हाजी रईस का शुक्रवार दोपहर लगभग तीन बजें हार्ट अटैक के चलते इंतकाल हो गया। हाजी रईस अपने चाहने वालों के बीच हाजी साहब के नाम से जाने जाते थे। हाजी रईस के परिवार में दो बेटे उस्मान और रिज़वान हैं। उस्मान टुंडे कबाबी की तीसरी पीढ़ी के रूप में हाजी रईस के बाद विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
लगभग एक शताब्दी पहले हाजी रईस अहमद के पुरखे भोपाल के नवाब के यहां बावर्ची हुआ करतें थे। भोपाल के नवाब खाने पीने के बहुत शौकीन थे। बताते हैं कि नवाब और उनकी पत्नी को उम्रदराज होने के चलते खाने पीने में दांतों में दिक्कत होने लगी थी। जिसके बाद हाजी रईस के पिता हाजी मुराद ने ऐसा कबाब बनाने की सोची गई जिसे आसानी से खाया जा सके। इसके लिए उन्होंने गोश्त को बारीक पीसा और उसमें पपीते मिलाकर ऐसा कबाब बनाया गया जो मुंह में डालते ही घुल जाए। कबाब में स्वाद के लिए उसमें चुन-चुन कर तरह-तरह के मसाले मिलाए जाते थे।
हाजी रईस के पिता हाजी मुराद अली अपने परिवार के साथ लखनऊ आ गए। यहां उन्होंने नवाबी कबाब की रेसिपी के साथ 1905 में लखनऊ के अकबरी गेट के पास गली में सबसे पहली छोटी सी दुकान खोली थी। मुराद अली का यह नवाबी कबाब का टेस्ट लोगों की जुबान पर चढ़कर बोला। रसीले कवाब के स्वाद ने लोगों को अपना दिवाना बना लिया।
बताते हैं कि हाजी रईस के पिता मुराद अली को पतंग उड़ाने का बहुत शौक था। एक बार पतंग उड़ाते समय उनका हाथ टूट गया जिसके चलते उनको अपना हाथ कटवाना पड़ा। मुराद अली पतंग नहीं उड़ा सकते थे तो वो अब अपने पिता के साथ दुकान पर बैठने लगें। इस दौरान जो भी दुकान पर कबाब खाने आता तो उन्हें एक हाथ न होने की वजह से टुंडे कहकर बुलाता था और फिर और यहीं से टुंडे कबाब नाम पड़ गया। धीरे धीरे मुराद अली का एक हाथ से बनाया हुआ कबाब टुंडे कबाब के नाम से मशहूर हो गया और आज एक ब्रांड के तौर पर दुनिया भर में जाना जाता है।
हाजी रईस की ढलती उम्र के चलते काफ़ी पहले ही उन्होंने बेटे उस्मान को टुंडे की जिम्मेदारी सौंप दी थी। हाजी उस्मान बताते हैं कि उनके पिता के लिए कबाब बेचना कोई काम धंधा नहीं था बल्कि एक तरह से लोगों के पेट भरने का जरिया था। पिताजी ने कभी इस काम को मुनाफे से जोड़कर नहीं देखा बल्कि दाम ऐसा रखा कि हमारे यहां ग़रीब और अमीर दोनों आकर खा सकें। उस्मान कहते हैं कि आज उनके पिता हाजी रईस जब इस दुनिया में नहीं है तो उनपर यह जिम्मेदारी आ गईं हैं कि कि वो इस टुंडे की विरासत को आगे बढ़ाएं जैसा उनके पुरखों ने चाहा है।
हाजी उस्मान पिता रईस अहमद को याद करते हुए बताते हैं कि वो हमेशा से परिवार को कबाब के स्वाद और गुणवत्ता से समझौता न करने के लिए कहते थे। उस्मान बताते हैं कि 1958 में जब उनके पिता हज करने गए थे तो जिस जगह पर रूके थे वहां खाना बना रहे थे। उस खाने की खुशबू वहां के गवर्नर को इतनी पसंद आईं थीं कि उसने पिता उनके मास्टर शेफ बनने की पेशकश की थी और साथ ही वहां की नागरिकता देने की भी पेशकश की थी, लेकिन मुल्क और लखनऊ की मोहब्बत के चलते उनकेे पिता ने मना कर दिया था।
टुंडे कबाबी के हाजी उस्मान बताते हैं कि कबाब बनाने की रेसिपी के बारे सिर्फ परिवार को ही पता हैं। यह एक राज़ की तरह है जो उनके पुरखों ने किसी को भी नहीं बताया , खास बात यह है कि उनके परिवार की लड़कियों को भी इसकी जानकारी नहीं है। इस रेसिपी की एक ख़ास बात यह भी है कि जो मसाले इसमें इस्तेमाल होते हैं उसके बारे में भी किसी को जानकारी नहीं है। बस यहीं वजह है कि 100 सालों से गलावटी कबाब का जो स्वाद यहां मिलता है, वो पूरे देश में कहीं और नहीं मिलता हैं। कबाब बनाने की रेसेपी हाजी रईस के सीने में दफन रहीं।
हाजी रईस के निधन पर उनके चाहने वाले उन्हें याद कर रहे हैं। लखनऊ के आदिल कहते हैं कि हाजी रईस को सब हाजी साहब के नाम से बुलाते थे, उनके हाथों में स्वाद का जादू था जो कहीं नहीं मिला। शाहरुख हाजी रईस को याद करते हुए कहते हैं कि उनके बनाएं हुए कबाब के बारे में एक खास बात यह थी कि अगर एक बार उनके हाथ का स्वाद ले लिया फिर आप कितने ही सालों बाद आए उनके कबाब खाने जरूर आएंगे और खाएंगे तो वही स्वाद पाएंगे। टुंडे कबाब के शौकीन लारेब कहते हैं कि जैसे आगरा का ताजमहल शाहजहां की मोहब्बत को ज़िन्दा रखें है वैसे ही टुंडे के कबाबों का ज़ायका हाजी साहब का नाम ज़िंदा रखेगा।
लखनऊ अब्दुल हन्नान कहते हैं कि लखनऊ को दुनिया में पहचान दिलाने के लिए वहां के ज़ायके का खास रोल रहा, और इसमें टुंडे के कबाबों का खास स्थान है। देश और दुनिया की कोई भी बड़ी हस्ती लखनऊ आई है तो उसने हाजी रईस के कबाबों को जरूर चखा है। विश्व की कोई भी नामचीन हस्ती जब कभी भी लखनऊ आती है तो उसके दिल में टुंडे के ख्वाब खाने की ख्वाहिश ज़रूर होती है।