रमज़ान स्पेशल : जामिया के छात्रों को इस बार बहुत भाया रमज़ान,क़ायम की सौहार्द की अदुभुत मिसाल

देश की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इस रमज़ान कई अदुभुत नज़ारे देखने को मिले। जामिया के तमाम छात्रों ने इस बार साथ मे मिलकर रमज़ान की रहमत की चादर को ओढ़ लिया। Twocircles.net के लिए सिमरा अंसारी ने ऐसे ही कुछ छात्रों से रमज़ान को लेकर उनके अनुभवों पर बात की,पेश है यह रिपोर्ट

इस बार अम्मी की डांट से नही मोबाइल के अलार्म से उठना था ”


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जामिया के हिंदी विभाग की छात्र शिब्रा रमज़ान और अपनी उत्सुकता पर बात करते हुए कहती हैं– “बरकतों, रहमतों व मगफिरत के माह रमज़ान का इंतजार दुनिया के हर मुसलमान को रहता है और उन खुशनसीबों में मेरा नाम भी शामिल है जो हर साल बड़े जोश व खरोश से रमज़ान का इंतज़ार करती है। लेकिन इस बार कुछ अलग नहीं बहुत कुछ अलग था क्योंकि सेहरी में अम्मी की डांट से नहीं मोबाइल के अलार्म से उठना था। इफ्तार में तरह–तरह के पकवान की मांग नहीं थी, इस बार खुद ही इंतज़ाम करना था। लेकिन जामिया जैसा इदारा उस कमी को इतना खलने नहीं देता क्योंकि मेरे साथ रोज़ा रखने वाले भी और ग्राउंड में बैठाकर इफ्तार करने वाले भी होते हैं। रमज़ान में घर की याद आ रही होगी ना? ऐसा सवाल करके कोई नहीं हम साथ इफ्तार करेंगे कहकर परिवार बन जाने वाले मिलते हैं। रमज़ान से पहले डर था कि कहीं घर से दूर ये मुबारक महीना बेनूर न रह जाए लेकिन जामिया की मौजूदगी ने इस महीने में चार चांद लगा दिए।”

शिब्रा रहमान

जितना सुना था यह महीना उस भी ज्यादा पाक है

छात्र आशुतोष कुमार बताते है कि रमज़ान के बारे में जैसा मैंने सुना था उससे भी ज़्यादा पाक़ ये महीना देखने को मिला | जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ते वक़्त रमज़ान और रोज़े के बारे में बहुत कुछ जाना और समझा। हालंकि ये अनुभव मेरे लिए पहली बार था | जहाँ यह महीना त्याग और समर्पण को सिखाता है वहीं दूसरी ओर भाईचारे का भी संदेश दे जाता है | मेरे साथ पढ़ने वाले मेरे मुसलमान दोस्तों के माध्यम से मैंने यह देखा की इस चिलचिलाती हुई गर्मी में जहाँ पानी की एक बूंद को लोग तरसते हैं वहीं मेरे दोस्तों ने बड़ी ही निष्ठा से अल्लाह के प्रति समर्पण दिखाया, दिनभर पानी की एक बूंद भी ना सेवन करना साथ ही ना कुछ भोजन ग्रहण करना मुझे आश्चर्यचकित कर गया | बिना खाए पिए लगातार 27 दिनों से अपने काम को किये जा रहें हैं, चेहरे पे न कोई थकावट ना ही जोश में कोई कमी और ना ही अपने कार्यों से कोई समझौता| यह महीना सच में मुझे यह सिखा गया कि इंसान चाहे तो अपनी जरूरतों को त्याग कर सकता है और अपने आप को ईश्वर (अल्लाह) के प्रति समर्पित कर सकता है। शाम के वक़्त जब रोज़ा खोलने की बारी होती है तो बड़ा ही प्रेम दिखता है, सारे लोग एक साथ बैठ पहला निवाला या पानी पीते हैं और फल खाते हैं | चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान सारे लोग एक साथ बैठ अपनी खुशियाँ बांटते हैं। मेरे पास शब्द नहीं हैं यह बताने के लिए कि मुझे कैसा एहसास हो रहा पर एक चीज़ ज़रूर महसूस की है कि दुनिया में ऊपर वाले से बढ़ कर कोई चीज़ नहीं और उसके करीब जाने का कोई मौका मिले तो बिना किसी लालच या मोह के उनका शुक्रिया अदा ज़रूर करना चाहिए।

आशुतोष कुमार

जब मैं यहां पढ़ने आई तो मैंने देखा एक ऐसा महीना आया जिसमे केंटीन वीरान रहती थी,यह आश्चर्यजनक था”

एक और अन्य छात्रा मेघा शर्मा यहां रिसर्च स्कॉलर है वो कहती है कि साल 2019 की बात हैं, जामिया में मेरा पहला साल था। जामिया में रमज़ान के पूरे महीने को भी करीब से देखा और समझा था। कॉलेज परिसर में लगभग सारे विद्यार्थी रोज़े से रहते थे, जिस कारण दोपहर में कैंटीन वीरान पड़ी रहती थी। दिन ढलते चारों तरफ एक उत्साहित हलचल देखने को मिलती थी। पूरे परिसर की भीड़ बहुत उत्साह से ऑडीटोरियम के पास मैदान में इकठ्ठा हो जाती थी और ये किसी महोत्सव से कम नहीं दिखता था। वहाँ कतार में कई चादरें बिछी हुई रहती थी और समय से पूर्व सारे छात्र अपने स्थान को ग्रहण कर लेते थे। लोगों की नज़र लगातर घड़ी की सुइयों पर ही टिकी हुई दिखती थी और आज़ान की आवाज़ आते ही सब एक साथ नमाज़ की अदायगी करते थे। सजदे में एक साथ सबको देखना… और यह दृश्य रफ्तार से भरी जिंदगी को एक पल में थाम लेता था। चारों तरफ वातावरण में एक स्थिरता पैदा कर देता था। आगे बात करते हुए वे कहती हैं– “पिछले 2 सालों में ऐसा आयोजन कोविड के कारण देखने को नहीं मिला लेकिन आज भी शाम होते ही कैंपस में होने वाली हलचल वही पुरानी बरकरार है। वही ऊर्जा,वही प्रेम और वही समर्पण।”

मेघा शर्मा

जामिया को आप मजहब में नही बांट सकते, इस रमज़ान ने यह साबित भी कर दिया ”

आमिर खान कहते हैं कि जामिया एक ऐसा इदारा है जो अपने आप में गंगा जमुनी तहज़ीब ही एक मिसाल है। यहां के रीति रिवाज़ों ने ही देश की संस्कृतियों की साझी समन्वय भावना को संजो कर रखा हुआ है। यहां कोई भी त्यौहार हो सभी लोग मिलजुल कर मनाते हैं। लेकिन रमज़ान में जामिया की रौनक देखनी बनती हैं। अलग–अलग विभागों के विद्यार्थी यहां इफ्तारी का प्रोग्राम करते हैं। लेकिन यहां जामिया का सामूहिक इफ़्तार का अलग ही मज़ा है। जिसमें छात्रों के साथ–साथ जामिया के वाईस चान्सलर, रजिस्ट्रार, प्रॉक्टर, प्रोफेसर और अन्य सभी कर्मचारी शामिल होते हैं। सबसे खास बात यह है कि यहां हिन्दू मुस्लिम और किसी भी प्रकार के भेदभाव को छोड़ कर एक साथ शामिल होते हैं।

आमिर खान

मैं रमज़ान में बरेली रहना चाहता था मगर तब बहुत कुछ छूट जाता “

कैफउद्दीन बता रहे हैं कि वो रमज़ान के पहले से ही हम ऑफलाइन कक्षाओं के लिए प्रयास कर रहे थे और आखिरकार कक्षाएं 6 अप्रैल से आफलाइन कर दी गई। मैं उस समय अपने गृहनगर ‘बरेली’ में था। रमज़ान में घर से दूर जाना मेरे लिए एक चुनौती से कम नहीं था। लेकिन जामिया आकर यह एहसास हुआ कि अगर रमज़ान में यहाँ नहीं आता तो बहुत कुछ छूट जाता। मैं हमेशा से ये बात कहता हूँ कि, “जामिया की फिज़ाओं में मोहब्बत है” पर अब मैं कह सकता हूँ कि रमज़ान में ये मोहब्बत दोगुनी हो जाती है।

कैफउद्दीन

इस बार रमज़ान को भी समझा और इस्लाम को भी

जामिया में पत्रकारिता के छात्र सुमित झा कहते हैं कि
भारत सदियों से विविध संस्कृतियों कि धरती रहा है। यहां अलग अलग धर्म-पंतों के लोग आपसी सामंजस्य के साथ रहते आए हैं। इन्हीं सम्प्रदायों में से एक इस्लाम भी है जिसका सबसे पवित्र महीना रमज़ान का महीना होता है। यह पूरा महीना बेहद पाक़ माना जाता है और पूरे महीने शरीर कि शुद्धता का ध्यान रखा जाता है। यह महीना इंसान कि सहनशीलता को बढ़ाता है और आत्मा व शरीर को पवित्र बनाता है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ने के वजह से इस वर्ष रमज़ान को और भी करीब से जाना और इसकी महत्ता को समझा। रोज़ा रखने वाले दोस्तों के साथ रह कर पता चला की यह कितना कठिन व्रत है जिसे लोग कितने पाक मन से करते है। पहले सिर्फ इफ्तार पार्टी के बारे में सुना ही था इस वर्ष इफ्तार में शामिल होने का मौका मिला जो मेरे लिए बहुत ही आनंददायक रहा। इससे मुसलमानो को समझने में बहुत मदद मिली।

यह सिर्फ परंपरा नही पूरा एक विज्ञान है “

मंगलम मिश्रा कहते हैं कि रमज़ान का महीना पवित्र माना जाता है इस्लाम में। पूरे महीने रोज़े रखना इसके कई मुख्य बिन्दुओं में एक माना जाता है, पानी तक निगलना ठीक नहीं माना जाता। मैं कभी ध्यान करने गया था, वहाँ पर भी खाने को लेकर समय तय था। उस अनुभव को जोड़ते हुए कहना चाहता हूँ, रोज़े रखने से एक निश्चित ऊर्जा ही होती है आपके शरीर में, जिसे आप किसी निश्चित जगह पर ही इस्तेमाल कर सकते हैं। इस कारण आप बेवजह बोलने में ऊर्जा खर्च नहीं करते, मौन आ गया। कुछ ग़लत ख़्याल नहीं करते, जिसमें अत्यधिक ऊर्जा व्यय हो, मन स्थिर हो गया। तरीक़ा बाहरी ही सही, लेकिन काम करता है। शुरुआती दिनों में केवल परम्परा के तौर पर करने के लिए, लेकिन बाद में इसका बड़ा महत्त्व पता लगता है।

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