ग्राऊंड रिपोर्ट : दलितों की बस्तियों का नाम बदलने से नही सुधरेगी उनकी हालात

आलोक राजपूत twocircles.net के लिए

BJP सरकार के द्वारा सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को ये आदेश देने के बाद कि सरकारी कागजातों में ‘दलित’ एवं ‘हरिजन’ दोनों शब्दों पर रोक लगा दी जाये बीते जून के महीने में जब दिल्ली सरकार ने दिल्ली की करीब 500 से 600 हरिजन बस्तियों का नाम दलित समुदाय के पूज्य डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के नाम पर रखने का प्रस्ताव रखा तो दिल्ली की विभिन्न हरिजन बस्तियों मे इस प्रस्ताव पर भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाए सुनाई दी। गौरतलब है कि अक्टूवर 2017 में वर्तमान की केंद्र सरकार की ही तरह केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने भी ‘दलित’ और ‘हरिजन’ शब्द को असंवैधानिक ठहराने की वकालत की थी।


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पिछले 27 सितम्बर को जब अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा चुनावों की ओर बढ़ रहे राज्य, गुजरात, से हर्ष सोलंकी नाम के सफाई कर्मचारी को अपने दिल्ली निवास पर खाने का न्योता दिया तो दिल्ली समेत कई राज्यों में स्वाभाविक तौर पर यह बात छिड़ गई कि क्या केजरीवाल सच में दलितों के इतना करीब है या फिर चुनावों से पहले दिल्ली की हरिजन बस्तियों के नाम बदलने का प्रस्ताव और एक सफाई कर्मचारी के साथ बैठकर खाना खाने की घटना महज एक वोट बटोरने की कार्रवाई है।

इस गहमागहमी भरे महौल का उचित आकलन दक्षिणी दिल्ली की मसूदपुर गाँव में बनी हरिजन बस्ती में रहने वाले दलितों से बातचीत कर के किया जा सकता है और हमने यही किया।

39 वर्षीय सागर मल मसूदपुर हरिजन बस्ती के नागरिक है और उनका मानना है कि ‘हरिजन’ शब्द उनके समुदाय के लिये एक सही शब्द नहीं है क्योंकि हरिजन शब्द ऐसा आभास देता है कि उनका समुदाय हिंदू देवी देवताओं के करीब है जो कि सही नही है । सागर मल पिछले 25 साल से दरियागंज मे फुटपाथ पर किताबें बेचने का काम करते रहे है और उनकी हिंदू धर्म में कोई विशेष आस्था नहीं है। सागर मल से बात कर के पता चलता है कि उनकी दिल्ली सरकार के इस प्रस्ताव से हामी कि दिल्ली मे हरिजन बस्तियों के नाम बदलकर बाबा साहब अंबेडकर के नाम पर रख दिये जायें मोटे-मोटे तौर पर वैचारिक है। लेकिन अगर इस वैचारिक बिंदु से इतर दलितों का आम आदमी पार्टी की तरफ जो रुख है उसे भांपने की कोशिश की जाये तो माजरा कुछ और ही नजर आता है।

सागर मल …

मसूदपुर हरिजन बस्ती में ही रहने वाले 60 वर्षीय जाति से वाल्मीकि रमेश कुमार मीडवाल बताते है कि उन्हें इस बात से कोई परेशानी नहीं है कि उनकी बस्ती का नाम ‘हरिजन’ बस्ती है। और उनका ये तर्क किसी भी वैचारिक बात पर नहीं है बल्कि रोजमर्रा की बहुत सी सामान्य जरूरतों पर आधारित है। प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के समय से अपनी अनधिकृत मसूदपुर हरिजन कॉलोनी का आवंटन एक अधिकृत कॉलोनी मे कराने की तमाम थकान भरे लिखा-पढ़ी के अनुभवों से गुजरने के बाद रमेश कुमार नही चाहते है कि उनकी बस्ती का नाम बदले जाने के बाद एक बार फिर से उन्हें अपने आधार कार्ड से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस पर अपना पता बदलवाने के लिये सरकारी आफिसों के चक्कर काटने पड़े। इसी कारण दिल्ली सरकार की तमाम योजनाओं से इत्तफाक रखने के बावजूद रमेश कुमार दिल्ली सरकार के हरिजन कॉलोनियों के नाम बदलने का विरोध करते है।

रमेश कुमार आगे बताते है कि उनको लगता है कि दिल्ली सरकार का ये प्रस्ताव शायद उन बड़े और सुंदर घरो वाले लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिये है जो लोग जाति से तो दलित नहीं है पर हरिजन कालोनीयो मे अच्छी और चौड़ी रोडो पर रहते है। जब कागजी काम में ऊंची जाति के लोगो को अपना पता एक हरिजन बस्ती का देना पड़ता है तो उनका रौब थोड़ा कम हो जाता है, और तो और हरिजन बस्ती के नाम पर उनको अपने मकानो के लिये मोटे पैसे वाले टिकाऊ किरायेदार भी नहीं मिलते इसलिये शायद इन ऊंची जाति के लोगों का रुतबा बरकरार रखने के लिये दिल्ली सरकार हरिजन बस्तियों के नाम बदलने की कोशिश कर रही है।

रमेश कुमार मीडवाल की ही तरह 55 वर्षीय सुरेंद्र कुमार मीडवाल का ये मानना है कि जिस प्रकार BJP तुगलक रोड या इलाहाबाद का नाम बदल कर समाज में टकराव बढ़ाना चाहती है ठीक उसी तरह से आम आदमी पार्टी की नाम बदलने की राजनीति किसी अच्छे काम के लिए नहीं है । केजरीवाल का गुजराती सफाई कर्मचारी को खाने के न्योते पर सुरेंद्र जी तंज कसते हुए कहते है कि हमारे साथ सिर्फ खाना खा लेने से हमारे समाज की तमाम शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी जरूरतें कैसे पूरी हो जायेगी !

सागर मल और रमेश कुमार की हरिजन बस्तियों के नाम बदले जाने के प्रस्ताव पर प्रतिक्रियाऐ भिन्न-भिन्न हो सकती है लेकिन दलितों की आर्थिक समस्याओं के विषय पर उनकी राय समान है।
सागर मल, रमेश कुमार की ही तरह बताते है कि इस साल शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत प्राइवेट स्कूलों में वंचित तबके को मिलने वाले 25 प्रतिशत आरक्षण के तहत उनके घर के किसी बच्चे का एडमिशन नहीं हुआ। अब इस तरीके की समस्याऐ महज उनकी कॉलोनी का नाम बदल देने से या उनके साथ बैठकर खाना खा लेने भर से हल नहीं हो सकती।

मसूदपुर हरिजन बस्ती मे दलितों की शिक्षा को लेकर जागरूकता बहुत पैनी जान पड़ती है। सागर मल दरियागंज मे किताबों की दुकान तो सजाते ही आये है लेकिन कोरोना महामारी के दौरान उन्होंने अपने मसूदपुर स्थित घर पर ही किताबें बेचना शुरू कर दिया है। लेकिन इस अच्छी समझ के बावजूद हिंदू मध्यम वर्ग की ही तरह दलितों के बीच भी आजकल आम सांप्रदायिकता की लहर साफ-साफ दिखती है। बात चीत के ही दौरान गांधी जी के द्वारा दलितों को हरिजन नाम देने का जिक्र आने पर एक व्यक्ति नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताता है कि उसके अनुसार ‘नाथू राम गोडसे का गाँधी जी की हत्या करने का निर्णय सही था अन्यथा जिस प्रकार गांधी ने 1947 के विभाजन के समय देश के टुकड़े किये थे उसी प्रकार वो आजाद भारत में दलितों का जीना दूभर कर देते’। दलितों के बीच इस प्रकार की भ्रांतियो को सुनकर ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा साहब अंबेडकर के जो गांधी से मतभेद थे उन मतभेदों को दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतें अपने फायदे के लिये भुनाने में प्रयासरत है।

रमेश कुमार सरकारी ऑफिसों की झंझट से बचने के लिये गाँधी के द्वारा दलितों को दिये हुये हरिजन नाम से तो ऐतराज नही करते लेकिन यह कहकर चुटकी जरूर लेते है कि रुपये के नोट पर से गांधी की तस्वीर को बाबा साहब अंबेडकर की तस्वीर से जरूर बदला जाना चाहिये।

आम आदमी पार्टी के नेताओ या बीजेपी के नेताओ के द्वारा दलितों के साथ खाना खाने का प्रदर्शन या फिर केजरीवाल का दिल्ली की हरिजन बस्तियों के नाम बदलने का प्रस्ताव सागर मल या रमेश कुमार मीडवाल जैसे दलितों के लिये महज एक विचारधारा का प्रश्न नही है बल्कि दलित टोलो के लोग इन सभी प्रस्तावों और गतिविधियों को रोजमर्रा को व्यावहारिक जरूरतों से जोड़कर भी देखते है। उनका मानना है कि हालात सभी नाम बदलने से नही बदल सकते।

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