Noor Islam for TwoCircles.net
दरभंगा : यह सलाऊद्दीन कुरैशी का परिवार है. सरसरी नज़रों से देखें तो यह परिवार भी बेहद सामान्य जिंदगी गुज़ार रहा है. इसमें नज़रों का कोई क़सूर नहीं. यह हमारी आदत में शुमार है कि ग़रीबी और बदहाली को देखकर हमारी रगों में खून नहीं दौड़ता.
इस देश में लाखों की तादाद में कुरैशी जैसे परिवार रात में इस मिन्नत के साथ सो जाते हैं कि जब उजाला हो तो कुछ उद्यम हमारे लिए भी बचा रहे. दरभंगा शहर के उर्दू बाज़ार में रहने वाले इस परिवार की कहानी भी उन कहानियों से साम्य रखती है, जिन्हें हम ग़रीब और बदहाल कह कर अपनी जिम्मेदारी को पूरा मान लेते हैं…
सलाऊद्दीन न ज़मींदार हैं न नंबरदार. एक कमरे के घर में जिंदगी गुज़र-बसर करने वाले सलाउद्दीन अकेले नहीं हैं. इनके परिवार में कुल 8 सदस्य मौजूद हैं. खाने को नहीं जुटता, लेकिन यह सलाऊद्दीन की सलाहियत है कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल भेजते हैं. यह बात अलग है कि उन्होंने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा.
सरकारी योजनाएं इस घर से रूठी मालूम होती हैं. न सलाऊद्दीन किसी से अपनी बात रख पाते हैं न कोई हुक्काम इनकी बात सुनने में दिलचस्पी रखता है. न सरपंच की दालान में इनकी उपयोगिता है और न ही इन्हें समाज में एक इज्ज़तदार जिंदगी हासिल है.
हर कहीं से मार खाए सलाउद्दीन कहते हैं कि रोज़मर्रा की जिंदगी को चलाए रखने के लिए काम ढूंढना बेहद मुश्किल होता है. सलाउद्दीन का यह बयान सरकार के ज़रिए सभी को रोज़गार मुहैया कराए जाने के दावे की पोल खोलता है.
ब्यूरोक्रेसी की ठसक गांव में सरपंच के दालान तक पहुंचकर फुस्स हो जाती है. ख़ामियाज़ा सलाऊद्दीन जैसे परिवारों को उठाना पड़ता है. आठ जिंदगियों की लौ जलाए रखने के लिए सलाउद्दीन ज़बरदस्त मेहनत करते हैं.
वे कहते हैं कि एक दिन चूक जाओ तो चूल्हा जलना मुश्किल होता है. आप ही बताइए इस महंगाई के दौर में दो वक्त की रोटी, बच्चों को स्कूल भेज पाना आसान है क्या?
सलाउद्दीन कहते हैं कि घर की लड़कियां बोझ नहीं होतीं, लेकिन ग़रीबी इस बात का हमेशा अहसास कराती रहती है. इस जिल्लत की जिंदगी से बेहतर है कि खुदा हमें जल्द से जल्द इस दुनिया से रुख्सत कर दे.
वो कहते हैं कि मैं नाउम्मीद नहीं हूं, लेकिन हमारी हालात का भी कोई जायज़ा ले. योजनाएं तो सैकड़ों आती हैं, लेकिन हम इसका फ़ायदा नहीं जानते. न हमें कोई आजतक इसकी जानकारी देने आया. इस सोच से बच्चों को पढ़ने-लिखने के लिए भेजता हूं कि कम से कम वे दुनियावी दांव-पेंच सीख लें. उन्हें हमारी तरह घुरच-घुरच कर जीवन न बिताना पड़े.
सलाउद्दीन कुरैशी की पत्नी शाजरा खातून बताती हैं कि पूरा दिन पहाड़ के मानिंद लगता है. जब तक साहब काम से नहीं लौटते तब तक दिल बेचैन रहता है कि बच्चों को आज क्या नसीब होगा. हम उन परिवारों की गिनती में भी नहीं आएंगे जिनके घरों में अनाज जमा कर रखा जाता है. यहां रोज की मेहनत से ही पेट की आग शांत होती है. हमें अपनों से ज्यादा बच्चों की फिक्र रहती है, आखिर इनकी भूख को कैसे शांत किया जाए. कई दफ़ा तो यह स्थिति भी बनती है कि मिन्नतों और जारियों से ही बच्चों की भूख शांत करनी पड़ती है. लेकिन भूख से बिलबिलाते बच्चे बाजुओं में भी नहीं संभलते.
सलाउद्दीन का परिवार और उनकी सपाट बातें आपके दिल में तो जगह बना लेती हैं, लेकिन उन्हें कौन समझाए जिन्हें देश और इनकी बेहतरी के लिए चुनकर देश की संसद में भेजा गया है. सलाउद्दीन जैसे कितने परिवार हैं जिन्हें अपनी बात रखने के लिए मंच भी मुहैया नहीं है. वे हमें पाकर बेहद आशावान हुए, लेकिन हम भी उनकी बात लिखने के सिवा मजबूर ही नज़र आते हैं…
(लेखक नूर इस्लाम दरभंगा निवासी हैं. परास्नातक करने के बाद दीन-दुखिया के हक़-हकूक़ की लड़ाई लड़ते हैं. फिलहाल ‘मिसाल नेटवर्क’ से जुड़े हैं. इनसे 7070852322 पर संपर्क किया जा सकता है.)