TwoCircles.net Staff Reporter
लखनऊ : ‘मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के पीड़ितों की स्थिति 2002 के गुजरात हिंसा के पीड़ितों जैसी है. दोनों जगहों पर मुसलमानों को अलग-थलग बसने के लिए मजबूर किया गया, उनका सामाजिक बहिष्कार हुआ और वे अभी भी डर के माहौल में जी रहे हैं. इसके लिए संघ परिवारी संगठन और राज्य सरकार दोनों बराबर के दोषी हैं. ‘
ये बातें आज मुज़फ़्फ़रनगर साम्प्रदायिक हिंसा की चौथी बरसी पर यूपी प्रेस क्लब लखनऊ में रिहाई मंच द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में पूर्व आइएएस और वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने कहा. इस सम्मेलन का विषय ‘सरकार दोषियों के साथ क्यों खडी़ है’ रखा गया था.
आगे उन्होंने कहा कि -‘ मुज़फ़्फ़रनगर की हिंसा छेड़छाड़ के झूठे अफ़वाह के आधार पर हिंदुत्ववादी संगठनों ने फैलाई थी, जिसे यदि सरकार चाहती तो रोक सकती थी. लेकिन उसकी आपराधिक निष्क्रियता के चलते हिंसा का विस्तार होता गया. हद तो यह है कि राज्य सरकार ने दंगे के बाद लोगों को सुरक्षित अपने गाँव वापस लौटने और फिर से नई जिंदगी शुरू करने में किसी तरह की मदद नहीं की.’
मुज़फ़्फ़रनगर साम्प्रदायिक हिंसा पीड़ितों का मुक़दमा लड़ रहे असद हयात ने कहा कि इस हिंसा के बाद लगभग 15 लाशें गायब हैं, जो कि ग्राम लिसाढ़, हड़ौली, बहावड़ी, ताजपुर सिंभालका के निवासी हैं. सरकार कहती है कि लाश मिलने पर इन्हें मृत घोषित किया जाएगा, जबकि चश्मदीद गवाह कहते हैं कि हमारे सामने हत्या हुई.
आगे उन्होंने बताया कि पुलिस तो घटना स्थल पर तुरंत पहुंच गई थी, फिर यह लाशें किसने गायब कीं? 18 से अधिक लोग गुमशुदा हैं जिनके परिजनों ने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई है. अगर वो जीवित होते तो अब तक लौट आते.
असद बताते हैं कि लगभग 10 हत्याएं जनपद बागपत में हुई जिन्हें सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा में हुई मौत नहीं माना है. 25 से अधिक मामले ऐसे भी हैं जिनकी निष्पक्ष विवेचना नहीं हुई और इन व्यक्तियों की सांप्रदायिक हत्याओं को पुलिस ने आम लूट पाट की घटनाओं में शामिल कर दिया. मुख्य साजिशकर्ता भाजपा और भारतीय किसान यूनियन के नेताओं और इनसे जुड़े संगठन के नेताओं के विरुद्ध धारा-120 बी आपराधिक साजिश रचने के जुर्म में कोई जांच ही नहीं की गई. इस तरह सरकार ने दंगा क्यों हुआ, किसने कराया, कौन साजिशकर्ता था उन पर पर्दा डाल दिया.
मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा पर गठित विष्णु सहाय कमीशन पर सवाल उठाते हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे एडवोकेट मुहम्मद शुऐब ने कहा कि मुलायम सिंह मुसलमानों के साथ आयोगों का खेल खेलना बंद करें. सहाय कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को स्वीकारा है कि 4 सितंबर 2013 को मुजफ्फरनगर बंद के नाम पर अराजकाता फैलाने में वर्तमान भाजपा मंत्री संजीव बालियान, उमेश मलिक, राजेश वर्मा व अन्य शामिल थे. ठीक इसी तरीके से 5 सितंबर को लिसाढ़ में हुई पंचायत को स्वीकारा है कि पंचायत में गठवाला खाप मुखिया हरिकिशन सिंह और डा. विनोद मलिक जैसे लोग शामिल थे, जिसके बाद लिसाढ़ से सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई. 7 सितंबर को वर्तमान भाजपा सांसद हुकुम सिंह, महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत, अध्यक्ष नरेश टिकैत, साध्वी प्राची, भाजपा के पूर्व एमएलए अशोक कंसल, भाजपा के पूर्व सांसद सोहन वीर सिंह, सरधना के भाजपा विधायक संगीत सिंह सोम, बिजनौर के भाजपा विधायक भारतेंदु सिंह, जाट महासभा के अध्यक्ष धर्मवीर बालियान, रालोद के जिला अध्यक्ष अजीत राठी शामिल थे. मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने के लिए इन सबके साथ संगीत सोम द्वारा 29 सितंबर को शाम 6 बजकर 21 मिनट पर फर्जी वीडियो इंटरनेट द्वारा प्रचारित करना भी आयोग ने माना है.
आगे उन्होंने कहा कि इतना सब जब साफ था तो निष्कर्ष तक पहुंचते-पहुंचते सहाय कमीशन ने इन सांप्रदायिकता भड़काने वालों के खिलाफ कार्रवाई की बात क्यों नहीं कही?
मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित संदीप पाण्डेय ने कहा कि देश में साम्प्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को न्याय न देने की जो प्रक्रिया चल रही है, वह लोकतंत्र के लिए आत्मघाती है. इस प्रक्रिया को चलाते हुए संघ गिरोह जिस हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना कर रहा है, उस पर अमल करते हुए ही सपा सरकार उन्हें न्याय से वंचित किए हुए है.
आरटीआई कार्यकर्ता सलीम बेग ने कहा कि उन्होंने नवंबर 2015 में सात बिंदुओं पर मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा संबन्धित सूचना प्राप्त करना चाही थी. जिसमें अनेक चौंकाने वाले तथ्य सामने आएं. जैसे उत्तर प्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग को सांप्रदायिक हिंसा से संबन्धित एक भी शिकायती पत्र प्राप्त नहीं हुआ. इससे भी शर्मनाक कि राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने मुजफ्फरनगर का दौरा ही नहीं किया. सबसे शर्मनाक कि मुस्लिम विधायकों ने सरकार के आपराधिक रवैये पर कोई सवाल नहीं उठाया.
रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने कहा कि जब उन्होंने भाजपा विधायक संगीत सोम व सुरेश राणा पर अमीनाबाद लखनऊ में रासुका के तहत जेल में रहते हुए फेसबुक द्वारा साप्रदायिक तनाव भड़काने की तहरीर दी तो उस पर पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की, पर इसी थाने में हाशिमपुरा के सवाल पर इंसाफ मांगने वाले रिहाई मंच नेताओं समेत अन्य लोगों पर दंगा भड़काने का मुकदमा दर्ज किया गया.
उन्होंने बताया कि सांप्रदायिक हिंसा में मारे गए डूंगर निवासी मेहरदीन की हत्या का उनके द्वारा मुक़दमा दर्ज कराने पर महीनों बाद पुलिस ने उन्हें मुजफ्फरनगर बुलाया कि पोस्टमार्टम के लिए लाश निकाली जाएगी. पर बयान दर्ज करने के बावजूद लाश नहीं निकाली गई.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने जांच के लिए गठित एसआईसी का प्रमुख मनोज कुमार झा जैसे अधिकारी को बना दिया, जिनपर खुद खालिद मुजाहिद की हिरासती हत्या का आरोप है और निमेष कमीशन की रिपोर्ट ने भी जिनके खिलाफ आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुसलमानों को फंसाने के लिए कार्रवाई की मांग की है.
शामली से आए सामाजिक कार्यकर्ता अकरम अख्तर चौधरी ने सांप्रदायिक हिंसा के दौरान बलात्कार की घटनाओं पर कहा कि बलात्कार पीड़ितों को सरकार ने सुरक्षा नहीं मुहैया कराया, जिसके चलते गवाह दबाव में आ गए. एक मुक़दमें में गवाह मुकर गए जिसके कारण सभी चार आरोपी बरी हो गए. अन्य मामलों में भी मुजरिम जमानत पर बाहर है और तो और एक बलात्कार के मामले में तीन साल बीत जाने के बाद भी कोई गिरफ्तारी नहीं हुई.
मुजफ्फरनगर-शामली सांप्रदायिक हिंसा में सबसे अधिक13 हत्या होने वाले लिसाढ गांव निवासी रिज़वान सैफी, जिनके परिवार के पांच लोगों की हत्या हुई थी, ने कहा कि मेरे दादा-दादी की हत्या कर उनकी लाश को गायब कर दिया गया, लेकिन जांच कर रहे एसआईसी के मनोज झां आरोपियों के नाम निकलवाने के लिए हम पर दबाव बनाते रहे. वे हमें जब भी बुलाते थे उसके पहले आरोपियों को भी वहां बुलाकर हममें डर व दहशत का माहौल बनाने की कोशिश करते थे. मेरे गांव से सटा हुआ मीमला रसूलपुर जिसके ग्राम निवासियों ने थाना कांधला पुलिस को फोन करके बताया कि उनके गांव के बाहर कब्रिस्तान के पास तीन अज्ञात लाशें पड़ी हैं, जिसके बाद पुलिस मौके पर पहुंची और यह कहकर चली गई कि उसे अभी वह ले नहीं जा सकती और बाद में वह लाशें गायब हो गईं. जिसको पुलिस ने आरटीआई में भी माना है.
इस सम्मेलन में दो मुज़फ्फ़रनगर हिंसा के सच पर दो रिपोर्ट भी जारी की गई. इस कार्यक्रम का संचालन राजीव यादव ने किया.