अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
जैसा कि सर्वविदित है कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता ही मालिक होती है. भारत इसका अपवाद तो नहीं है, लेकिन आज़ादी के छः से अधिक दशकों के बाद भी देश की अधिकांश आबादी अपने आपको मालिक की हैसियत में नहीं पाती है. इसके पीछे सामाजिक-आर्थिक विषमताओं से लेकर अवसरों की असमानता, शिक्षा का अभाव तथा जागरूकता की कमी जैसे बहुत से कारण रहे हैं. ऐसी स्थिति में पिछली यूपीए सरकार ने सन 2005 में भारत की जनता को सूचना का अधिकार दिया, जिसका उद्देश्य यह था कि सरकारी मशीनरी में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही बहाल हो.
इस क़ानून ने पहली बार देश की अधिकांश आबादी को असली मालिक होने का अहसास दिलाया और जनता ने भी इस अधिकार के प्रयोग में बढ-चढ़ कर भागीदारी की. सामान्य जनमानस के लिए यह क़ानून कई मामलों में उनके लिए वरदान साबित हुआ है.
लेकिन देश के ताज़ा हालात में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह सरकार इस क़ानून को हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहती है. यक़ीनन सरकार इसे अचानक ख़त्म नहीं कर सकती है. लेकिन इसके लिए सिस्टम ऐसा ज़रूर बना दिया जाएगा कि लोग आरटीआई के आवेदन डालना ही छोड़ देंगे.
आज आरटीआई क़ानून को आए 11 साल पूरे होने को है, लेकिन बावजूद इसके देश के अधिकतर आरटीआई कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि अब उनके ज़रिए डाले गए आरटीआई आवेदनों के जवाब नहीं मिलते. जन सूचना अधिकारी या प्रथम अपीलीय अधिकारी उन्हें कोई सूचना ही उपलब्ध नहीं कराते और केन्द्र व राज्य सूचना में उन्हें सालों इंतज़ार करना पड़ता है. वहां अगर सुनवाई के बाद सूचना मिल भी गया तो उस समय तक उस सूचना की कोई अहमियत नहीं रह जाती है.
इन कार्यकर्ताओं की मानें तो देश में आरटीआई की ये हालत वर्तमान सरकार में और भी अधिक ख़राब हो गई है. यह अलग बात है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने भाषणों में आरटीआई को बढ़ावा देने की बात करते हैं. वो अपने एक भाषण में सरकारी विभागों से कहते हैं कि वो आरटीआई आवेदनों का जवाब देते हुए तीन ‘टी’ –टाइमलीनेस (समयबद्धता), ट्रांसपैरेंसी (पारदर्शिता) और ट्रबल-फ्री (सरल पद्धति) को ध्यान में रखें. लेकिन शायद किसी विभाग या मंत्रालय ने मोदी जी के इस बात को माना हो. आलम तो यह है कि उनका प्रधानमंत्री कार्यालय ही आरटीआई द्वारा सूचना देने में सबसे पीछे है.
यदि आंकड़ों की बात करें तो देश में सूचना के अधिकार क़ानून पर भारी बैकलॉक की ख़तरनाक तलवार लटक रही है. सूचना के अधिकार से जुड़ी देश की सबसे सर्वोच्च संस्थान यानी केन्द्रीय सूचना आयोग के पास आज की तारीख़ तक 36 हज़ार से अधिक अपील व शिकायतों के मामले पेंडिंग हैं और जिस रफ़्तार से इस आयोग में केसों का निपटारा हो रहा है, उससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन तमाम मामलों के निपटारे में तीन-चार साल से अधिक का समय लग सकता है.
अगर मामला राष्ट्रपति कार्यालय, उप-राष्ट्रपति कार्यालय, प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय या रक्षा मंत्रालय जैसे अहम दफ़्तरों से संबंधित है तो यह इंतज़ार और भी लंबा हो सकता है.
स्पष्ट रहे कि पिछले मुख्य सूचना आयुक्त का पद 22 अगस्त, 2014 से 7 जून, 2015 तक रिक्त रहा. 8 जून, 2015 को मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर आयोग के वरिष्ठ सूचना आयोग विजय शर्मा को नियुक्त कर दिया गया. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि विजय शर्मा सिर्फ़ 6 महीने ही काम कर सकें, क्योंकि वे दो दिसंबर को 65 वर्ष के हो गए, इसलिए उनका कार्यकाल उसी दिन समाप्त हो गया. इसके पूर्व रक्षा सचिव राधा कृष्ण माथूर को 18 दिसम्बर, 2015 को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया गया है.
यहां यह भी स्पष्ट रहे कि हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि किसी लोकतंत्र में किसी भी तरह की प्रक्रिया, मूल्यों का क्रियान्वयन व निर्वहन लोकतांत्रिक रीति से ही हो. और यह तभी संभव है, जब देश की जनता को सूचना का अधिकार हासिल हो. बिना सूचना के अधिकार के मताधिकार दरअसल एक खाली म्यान की तरह है, जिसमें जिम्मेदारी व जागरूकता रूपी तलवार का अभाव है. यह सामाजिक ज़िम्मेदारी व राजनीतिक जागरूकता तभी आ पाती है, जब जनता को प्रशासन संबंधी महत्वपूर्ण सूचनाओं का ज्ञान हो. इसलिए आरटीआई के लिए फिर से आवाज़ बुलंद करना अत्यंत ज़रूरी हो गया है और वैसे भी दिल्ली में आरटीआई के लिए आवाज़ उठाने वाले लोग अब खुद ही सत्ता पर क़ाबिज़ हैं और उनकी भी कोशिश यही है कि आरटीआई जैसा क़ानून जितना कमज़ोर हो, उनका ही फ़ायदा है.