सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
वाराणसी: बनारस से लगभग बीस किलोमीटर दूर सोजईं नाम का एक गाँव है. गाँव में बिजली-पानी की हालत खस्ता है. गाँव में मुस्लिम बस्ती है, यहाँ अधिकतर बुनकर रहते हैं. बुनकारी वैसे भी ऐसा पेशा माना जाता है जिसमें पैसे कम होते हैं, लेकिन ख़ास बात यह है कि कम पैसों और संसाधनों के साथ इस बस्ती के हरेक घर का बच्चा आज शिक्षा पा रहा है. और यह मुमकिन हुआ है गाँव की तीन लड़कियों तबस्सुम, तरन्नुम और रुबीना की बदौलत.
रुबीना, तरन्नुम और तबस्सुमपेशे से बुनकर खालिक अंसारी की बेटियां तबस्सुम, तरन्नुम और रुबीना तकरीबन सात साल पहले तक अपने गाँव में अकेली इंटर करने वाली शख्सियतों में से एक थीं. साल 2010 में संस्था ह्यूमन वेलफेयर एसोसिएशन के साथ जुड़कर इन तीनों ने गाँव में घूम-घूमकर पढ़ाई करने या न करने वाले बच्चों का एक मुक्त सर्वे किया.
सर्वे के बाद तबस्सुम, तरन्नुम और रुबीना को पता चला कि उनके गाँव के कई बच्चों ने प्राइमरी से आगे की शिक्षा नहीं पायी है. अधिकाँश बच्चे तो ऐसे थे जिन्होंने प्राइमरी तक की पढ़ाई भी नहीं की थी. फिर इन तीन बच्चियों ने इस गाँव को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया और आज इस गाँव का हरेक बच्चा कहीं न कहीं पढ़ाई कर रहा है.
अपने घर के बाहर बच्चों को पढ़ाती तबस्सुम, तरन्नुम और रुबीनापढ़ाने की जगह की ज़रुरत पड़ी तो गाँव के ही एक मदरसे की मदद माँगी गयी. पहले तो मदरसे ने मना कर दिया फिर मदरसे से जुड़े लोगों ने कहा कि मदरसे में मौलवी साहब से जुड़े लोग ही पढ़ाएंगे लेकिन थोड़े संघर्ष के बाद बात बन गयी. तबस्सुम बताती हैं. ‘मदरसा ऐसा था जहां उर्दू और फारसी के अलावा कुछ नहीं पढ़ाया जाता था. हर साल एक-दो महीने चलने के बाद मदरसा बंद हो जाता था. हमने इजाज़त मांगी तो लोगों ने मना कर दिया फिर कुछ बातचीत के बाद बात बनी.’
मदरसे में तबस्सुम, तरन्नुम और रुबीना ने 10 साल से लेकर 18 साल तक के सभी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. कोई ब्लैकबोर्ड नहीं था तो लोहे के दरवाज़े पर बच्चों को पढ़ाया. छोटे-बड़े सभी. धीरे-धीरे छः महीनों में 170 बच्चे इन बच्चियों से पढने आने लगे और धीरे-धीरे सभी जुड़ गए.
रुबीना बताती हैं, ‘पहले हम पढने जाते थे तो लोग हमारे अब्बू से कहते थे कि बेटियों को इतना दूर पढ़ने भेज रहे हो, उनके साथ कुछ बुरा हो जाएगा तो किसको जवाब दोगे? गाँव के लोग हम तीनों को बहुत ताने मारते थे और कई-कई बार गाँव के लड़के हमें फब्तियां कसते थे.इन सबके बावजूद अपने गाँव से ग्रैजुएशन करने वाली हम तीनों सबसे पहले हुए.’

रूबीना आगे बताती हैं, ‘इंटर करने के बाद हमने बच्चों को पढ़ाने के लिए खोजना शुरू किया लेकिन कोई आगे नहीं आना चाहता था. किसी को हम पर भरोसा नहीं था. आप जानते हैं कि बुनकर बस्ती में पढ़ाई-लिखाई को लेकर कैसा माहौल रहता है? सब लोग चाहते हैं कि पढ़ने से अच्छा है कि बेटा करघा चलाए और बेटियां कढ़ाई-टंकाई करें. लेकिन हम यही चीज़ बदलना चाहते थे क्योंकि हमारे अब्बू ने हमारे बारे में ऐसा नहीं सोचा था.’
अवार्ड के पैसों से पढ़ाई की
इनके अब्बू खालिक़ अंसारी ने इनको पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. खालिक कहते हैं, ‘मैंने सोचा था कि जो हो लेकिन इनको पढ़ाना ज़रूरी है. लोगों ने मुझे रोका कि ऐसा करने का क्या फायदा? लेकिन हमने ऐसा किया. इनको स्नातक में पढ़ाने का मन था, लेकिन बस दो हज़ार रुपयों के लिए मैं पढ़ा नहीं पाया. बाद में इनको अवार्ड मिला तो अवार्ड में मिले पैसों से इन्होने आगे की पढ़ाई की.’
महज़ 15-16 साल की उम्र में इन लड़कियों ने अपने गाँव को आगे बढाने की ख्वाहिश से एक मुहीम को अंजाम दिया. लोगों का विश्वास बेहद मुश्किल से बन पाया. मदरसे से जुड़े लोगों ने दखल नहीं बर्दाश्त किया तो इन तीन लड़कियों ने बच्चों को अपने घर में अहाते में पढ़ाना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे यह सफ़र पिछले साल अपने अंत पर पहुंच गया जब गाँव के सभी परिवारों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने लगे.
तबस्सुम कहती हैं, ‘हम बस पढ़ाई कराते थे. कोई सर्टिफिकेट तो दे नहीं सकते थे. इसलिए कोशिश करते थे कि थोड़ी बेसिक जानकारी उनको दे दें, उसके बाद हम स्कूलों में ले जाकर उनका दाख़िला करा देते थे. आज अच्छा लगता है कि हमारे प्रयास से अब सभी लोग पढ़ रहे हैं.’
मुस्लिम तबके की बच्चियों को मुहिम में शामिल करने में दिक्कत होने लगी तो तबस्सुम, तरन्नुम और रुबीना ने औरतों-लड़कियों को सिलाई-कढ़ाई बुनाई के कार्यक्रम में जोड़ना शुरू किया. लेकिन इस दौरान लड़कियों के एक नारा बनाया, “सिलाई-कढ़ाई बहाना है/ असली मकसद पढ़ाना है.”
रुबीना हँसते हुए बताती हैं, ‘बाद में लोगों को पता चला कि उनकी बच्चियां पढ़ रही हैं तो वे कोई विरोध नहीं दर्ज कर सके.’
इस साल अप्रैल में तबस्सुम और तरन्नुम की शादी हो चुकी है. दोनों का ब्याह पास के ही गाँव में हुआ है, ताकि वे समय-समय पर घर आ जा सकें. अब अब रुबीना अपनी छोटी बहन फिजा के साथ मिलकर जागरूकता का कार्यक्रम चलाती हैं, लेकिन उन्हें आशा है कि जल्द ही उनका यह सफ़र भी मंजिल पर पहुंच ही जाएगा.
Related: