अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
रामपुर : इतिहास के आईने में रामपुर एक शहर या ज़िले का नाम नहीं, बल्कि मील के पत्थर की तरह ख़ास है. आज की राजनीत में ये जगह आज़म खान के नाम से मशहूर हो चुकी है. 8 बार इस सीट पर अपना क़ब्ज़ा बरक़रार रखने वाले आज़म खान इस बार 9वीं जीत दर्ज करने की क़वायद में हैं. आज़म के लिए ये सीट इतनी आसान सी हो चुकी है कि वे और उनके समर्थक यहां किसी ख़ास मेहनत की ज़रूरत ही नहीं समझते.
लेकिन इस बार रामपुर के सियासी फ़िज़ा में ये सवाल तैरने लगा है कि पिछले 8 बार की जीत से आज़म खान ने रामपुर को दिया क्या है? पहली नज़र में बाहर से आए हर शख्स को रामपुर शहर में यक़ीनन विकास नज़र आएगा, लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि ये विकास बेहद ही असंतुलित है. जिन इलाक़ों में आज़म खान और उनके ख़ास लोगों का दबदबा है, वहां का रामपुर चमचमाता हुआ नज़र आता है. मगर रामपुर के जिन हल्क़ों में आज़म खान की दिलचस्पी नहीं है, वो इलाक़ा अभी भी खस्ताहाल है.
रामपुर का ये असंतुलित विकास आज़म खान की सियासी मनमानी की कहानी कह रहा है. लोग अब आज़म खान पर सवाल उठाने लगे हैं.
सिविल लाईन्स इलाक़े में रहने वाले रिज़वान खान का कहना है कि —‘यहां आज़म खान की तानाशाही है. सच बोलने की क़ीमत चुकानी पड़ती है. जो उन्हें वोट नहीं देता, वो उस पर हर तरह से वार करते हैं. उसका रोज़ागर व घर दोनों ही छीनने की पूरी कोशिश करते हैं. वैसे भी रामपुर की आधी से अधिक ज़मीन वक़्फ़ या सरकार की ही है, वो जब चाहते हैं उनके इशारे पर लोगों को उजाड़ दिया जाता है.’
मज़हर खान की बाड़ी इलाक़े में रहने वाले 70 साल के मसुद खान बताते हैं कि —‘रामपुर की असली तस्वीर यहां के गलियों में छिपी हुई है. आधा रामपुर कचड़े में डूबा हुआ है. जबकि आज़म खान कूड़े से बिजली बनाने का प्रोजेक्ट को समझने के लिए बाहर के देशों में भी गए, पर रामपुर को इसका कोई फ़ायदा आज तक नहीं मिला.’
यहां बताते चलें कि कूड़े से बिजली बनाने का प्रोजेक्ट समझने के लिए 2016 के मई महीने में आज़म खान ने अपने नगर विकास मंत्रालय के प्रमुख सचिव के साथ चेकोस्लाविया के प्राग शहर का दौरा किया था. लौटकर आने के बाद इस प्रोजेक्ट को शासन से हरी झंडी भी मिल गई, लेकिन ये प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो सका. बाद में एक बयान आज़म खान ने यह भी कहा था कि हमारे यहां का कूड़ा भी इस लायक़ नहीं हैं कि उससे बिजली बन सके.
मसूद खान आगे बताते हैं कि —‘चार साल तक आज़म खान कोई काम नहीं करते. बस आख़िर के एक साल में कई प्रोजेक्ट के फ़ीते काट देते हैं. नवाबों के वक़्त का शुगर मील 15 साल से बंद पड़ा हुआ है, जो आज तक शुरू नहीं हो पाया. जबकि यहां बेरोज़गारी काफी ज़्यादा है. यहां का नौजवान रिक्शा चला रहा है.’
हालांकि एक सवाल के जवाब में वो ये भी कहते हैं कि —‘आज़म खान मजबूरी हैं. क्योंकि मायावती का कोई भरोसा नहीं, कब भाजपा के साथ जाकर मिल जाए. और वैसे भी डॉ. तनवीर सियासत के चिर-फाड़ से अभी दूर हैं, जबकि आज़म इसमें पूरी तरह से माहिर हैं.’
जेल रोड में रहने वाली 40 साल की कनीज़ बानो कहती हैं कि —‘इस बार भी वोट अपने पड़ोसी को ही दुंगी. हालांकि उनसे हमें कभी कोई फ़ायदा हुआ नहीं है.’ यहां पड़ोसी का मतलब आज़म खान से है.
रात के क़रीब 10 बजे ईदगाह गेट के पास एक होटल के सामने नौजवानों की भीड़ है. 22 साल के आसिफ़ अहमद खान का कहना है कि —‘यहां एक ही नंबर होता है. दूसरा कोई नहीं. हमारे लिए आज़म खान सीएम हैं.’ इनके साथी अहमद रज़ा व रहमतुन्नबी खान भी इनकी इन बातों का समर्थन करते हैं.
वहीं अहमद रज़ा खान का कहना है कि —‘आज़म खान ने रामपुर का बहुत विकास किया है. इस बार जीतेंगे तो रामपुर का अपना ‘रामपुर मेट्रो’ भी होगा. फिलहाल 4 एसी बस उन्होंने चलवा दिया है.’
44 साल के मो. शाकिर का कहना है कि —‘अब हम लोग आज़म से ऊब चुके हैं. यहां का विकास किस काम का, जब यहां नौजवानों में कोई रोज़गार ही नहीं है. पढ़े-लिखे नौजवान कारचोब चला रहे हैं या फिर रिक़्शा…’
यूपी में सपा-कांग्रेस का गठबंधन है. बावजूद इसके कांग्रेस के ज़्यादातर कार्यकर्ता आज़म खान से नाराज़ ही नज़र आ रहे हैं. यहां के जानकार बताते हैं कि इसकी एक दूसरी वजह है. बसपा के उम्मीदवार डॉ. तनवीर पिछले चुनाव में कांग्रेस के साथ थे, तब आज़म खान के इशारे पर कई कांग्रेसियों को जेल भी भेजा गया था.
उत्तर प्रदेश कांग्रेस समिति की अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के उपाध्यक्ष फ़ैसल खान लाला ने ‘आज़म-विरोध’ का तो मोर्चा ही खोल रखा है.
फ़ैसल खान का कहना है कि —‘इस बार रामपुर के लोग ज़ुल्म के ख़िलाफ़ वोट करेंगे. क्योंकि यहां के लोग किसी के ज़ुल्म से खुशहाल नहीं हैं. यहां बिजली तो है, लेकिन रोज़गार नहीं है. और आज़म खान चाहते भी नहीं हैं कि यहां के नौजवानों को रोज़गार मिले. क्योंकि अगर सबको रोज़गार मिल गया तो फिर उनके पीछे नारे कौन लगाएगा.’
आज़म खान 1977 में शन्नू खान से चुनाव हारे थे. ये उनका पहला चुनाव था. 1980 में आज़म ने जीत दर्ज की, तब से रामपुर में आज तक आज़म ख़ान को कोई भी नेता चुनौति नहीं दे सका है. बस 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के अफ़रोज़ अली ने इन्हें शिकस्त दी थी. (अफ़रोज़ अली भी अब आज़म खान के साथ हैं) उसके बाद आज़म लगातार जीतते आए हैं. हालांकि 1996 में भी मुलायम ने आज़म को राज्यसभा भेज दिया था.
इस बार बसपा उम्मीदवार डॉ. तनवीर इतिहास पलटने की पूरज़ोर कोशिश में है. हालांकि डॉ. तनवीर पिछले 2012 विधानसभा चुनाव में 63 हज़ार से अधिक वोटों से हारे थे. तब तनवीर कांग्रेस के प्रत्याशी थे. ऐसे में इन आंकड़ों के आधार पर ये तो ज़रूर कहा जा सकता है कि अगर कुछ विशेष उलट-फेर न हुआ तो शायद एक बार फिर से ये सीट आज़म खान के हिस्से ही जाए. लेकिन अगर ये सीट इस बार आज़म खान के हाथ से फिसलती है तो कई सारे सवाल जो अब तक रामपुर की फ़िज़ाओं में खामोश कर दिए गए हैं, चीख-चीख कर अपने अपने वजूद का अहसास कराएंगे. इनमें रामपुर की ऐतिहासिकता और उसके गौरव को मुट्ठी भर लोगों की पसंद नापसंद के नाम पर ठिकाने लगाने की कोशिशें भी शामिल होंगी.