क्यों ज़कात से महरूम हैं देश के मुफ़लिस और ग़रीब मुसलमान?

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

नई दिल्ली : रमज़ान का मुबारक महीना चल रहा है. यही वो पाक महीना है, जब मुसलमान दिल खोलकर सदक़ा, ज़कात व फ़ितरा निकालता है. अगर बात सिर्फ़ ज़कात की करें तो हर साल रमज़ान महीने में मुसलमान लाखों करोड़ रूपये ज़कात के रूप में निकालता है, लेकिन बावजूद इसके जो मुसलमानों का ग़रीब तबक़ा है, उनके हालत वैसे के वैसे ही बने हुए हैं. इनमें सुधर आने के बजाए गरीबी का ग्राफ़ नीचे जाता हुए दिखता है. इस सिलसिले में TwoCircles.net के इस संवाददाता ने कई लोगों से बातचीत की और ये समझने की कोशिश की कि आख़िर ज़कात की इतनी बड़ी रक़म जाती कहां है.


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TwoCircles.net से ख़ास बातचीत में ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष व पूर्व आईआरएस अधिकारी डॉ. सैय्यद ज़फ़र महमूद कहते हैं कि, ज़कात जिस वक़्त से यानी हुज़ूर (सल्ल.) के ज़माने से ही एक ऑर्गनाइज़ फॉर्म में शुरू हुआ है, लेकिन हमारे हिंदुस्तान में जबसे मुस्लिम हुकूमत ख़त्म हुआ, ज़कात को लेकर कोई निज़ाम नहीं रहा. ज़कात के लिए एक निज़ाम का होना ज़रूरी है, भले ही वो लोगों के हाथ में हो.

आगे मदरसों का ज़िक्र करते हुए बताते हैं कि, यहां ज़्यादातर लोग अपना ज़कात मदरसों को देते हैं और मदरसों का अपना कोई निज़ाम नहीं है, जो कि एक ऑर्गनाइज़ तरीक़े से काम करें.

ज़फ़र महमूद यह भी बताते हैं कि, ज़कात लेने वालों में से कई पेशेवर भिखारी हैं. कोई भी जांच नहीं करता कि जिन मदरसों में हम ज़कात दे रहे हैं, क्या वो वास्तव में मौजूद हैं?

इस्लामिक रिलीफ़ इंडिया के मिशन हेड मोहम्मद अकमल शरीफ़ बताते हैं, हमें ऑर्गनाइज़्ड तरीक़े से ज़कात देना पड़ेगा, तभी कुछ बदलता हुआ हालत देखने को मिलेगा. अभी ज़कात के पैसे का सही जगह इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है.

आगे वो यह भी बताते हैं, हालांकि कुछ संस्थाएं इस तरीक़े से काम कर रही हैं, जिसका असर देखने को भी मिल रहा है. लेकिन सिर्फ़ थोड़े लोगों के साथ से सबकुछ ठीक नहीं हो सकता है. ज़कात का मतलब सिर्फ़ सवाब कमाना नहीं है, बल्कि गरीब व ज़रूरतमंद मुसलमानों के सामाजिक हालात को बेहतर बनाना भी है.

वो बताते हैं, अगर सही जगह या ज़रूरतमंदों तक ज़कात की रक़म नहीं पहुंच रही है तो इसके लिए ज़िम्मेदार सभी हैं, क्योंकि हम लोग ज़कात निकाल कर अपनी ज़िम्मेदारी वही ख़त्म कर लेते हैं. कभी भी पलट कर नहीं देखते कि हमारा ज़कात कहां, कौन और किस काम में इस्तेमाल कर रहा है. हालांकि इस्लाम में ज़कात की पारदर्शिता का पूरा अधिकार दिया गया है.

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत के अध्यक्ष नावेद हामिद ने बताते हैं, ज़कात का असल मक़सद इकोनॉमिक इम्पावरमेंट है, ताकि मुल्क का कोई मुसलमान गरीब न रहे. लेकिन हम ज़कात के पैसे को बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों में करके देते हैं. क्योंकि लोग चाहते हैं कि ज़कात ज़्यादा से ज़्यादा लोगों में तक़सीम हो. बस यही तस्सवुर कहीं न कहीं इकोनॉमिकल इम्पावरमेंट के कंसेफ्ट को मुतासिर कर रहा है.

वो आगे कहते हैं कि, ज़कात उन ज़रूरतमंदों को देने की ज़रूरत है, जो रोज़गार करने और पढ़ाई और बुनियादी चीज़ों में पैसा लगाना चाहते हो, ताकि आगे चलकर वो लोग ज़कात देने वालों में शामिल हो सकें. हालांकि इसके लिए मुहिम चलाने की ज़रूरत है ताकि लोगों तक ये मैसेज़ पहुंच सकें.

बताते चलें कि, एसोसिएशन ऑफ़ मुस्लिम प्रोफेशनल्स के एक रिपोर्ट के अनुसार, हर साल ज़कात के नाम पर देश में 7500-8000 करोड़ रुपये से अधिक की रक़म निकाली जाती है. इतना ही नहीं, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को ध्यान में रखते हुए ज़कात तीन गुना होना चाहिए. अगर हम मुसलमान ईमानदारी से ज़कात निकाले तो कम से कम 30,000 से 40,000 करोड़ रुपये तक इकट्ठा हो सकता है.

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