अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
क़रीब बारह साल पहले बड़ी उम्मीदों के साथ देश में आए सूचना का अधिकार क़ानून (आरटीआई) से अब लोगों का भरोसा टूट रहा है. क्योंकि जानकारों का मानना है कि नई सरकार में पारदर्शिता के बजाए गोपनियता पर अधिक ज़ोर है. सरकार का यह रवैया आरटीआई के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रही है.
खुद आरटीआई से हासिल जानकारी यह बताती है कि तत्कालीन मोदी सरकार ने आरटीआई के प्रचार–प्रसार के बजट में 80 फ़ीसदी राशि की कटौती की है.
वहीं आरटीआई डालने वाले कार्यकर्ताओं की भी शिकायत है कि अब अधिकतर आरटीआई में सरकार द्वारा कोई जवाब नहीं दिया जाता. इन कार्यकर्ताओं की मानें तो देश में आरटीआई की ये हालत वर्तमान सरकार में और भी अधिक ख़राब हो गई है. यह अलग बात है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने भाषणों में आरटीआई को बढ़ावा देने की बात करते हैं.
वो अपने एक भाषण में सरकारी विभागों से कहते हैं कि वो आरटीआई आवेदनों का जवाब देते हुए तीन ‘टी’ –टाइमलीनेस (समयबद्धता), ट्रांसपैरेंसी (पारदर्शिता) और ट्रबल–फ्री (सरल पद्धति) को ध्यान में रखें. लेकिन शायद किसी विभाग या मंत्रालय ने मोदी जी के इस बात को माना हो. आलम तो यह है कि उनका प्रधानमंत्री कार्यालय ही आरटीआई द्वारा सूचना देने में सबसे पीछे है.
पारदर्शिता का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पिछले दिनों खुद केन्द्रीय सरकार ने अपने अफ़सरों व कर्मचारियों को ऑफिस मेमोरेंडम के रूप में जारी एक निर्देश में स्पष्ट तौर पर कहा चुकी है कि संवेदनशील सूचनाएं लीक नहीं होनी चाहिए.
अब बात थोड़ी मीडिया के नज़रिए से की जाए. तो ये आरटीआई ही मुल्क का पहला क़ानून है, जो मीडिया की एक बहुत बड़ी ताक़त के तौर पर नज़र आ रही थी.
दरअसल, ये आरटीआई मीडिया की ही देन है. 1982 में जब मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एम.के.एस.एस.) का जन्म भी नहीं हुआ था, उस वक़्त द्वितीय प्रेस आयोग और प्रेस परिषद ने ही सूचना के अधिकार की वकालत की थी.
13 जुलाई 1990 को भारतीय प्रेस परिषद ने इस संबंध में अपनी सिफ़ारिशें पेश की. 1990 के बाद जब राजस्थान में एम.के.एस.एस. का जन–आन्दोलन चला, उसमें भी मीडिया के लोगों ने और स्वयं मीडिया ने अपनी ज़बरदस्त भूमिका निभाई. वास्तव में ‘‘जानने का अधिकार–जीने का अधिकार’’ का नारा सर्वप्रथम प्रभाष जोशी ने ही जनता के लिए जनसत्ता अख़बार के अपने संपादकीय में दिया था.
इस क़ानून के बनने के पहले तक कई लोगों का मानना था कि इसका सीधा फ़ायदा ख़बरिया जमात को मिलेगा. शुरू के दिनों में मीडिया ने इसका फ़ायदा भी उठाया और इस अधिकार को कई सारे अभियान व कार्यक्रम टीवी स्क्रीन पर चलाए गएं, वहीं अख़बारों में इसके बारे में ख़ूब लिखा गया. कुछ मीडिया संस्थानों ने तो सूचना के अधिकार को ‘नई पत्रकारिता’ के जन्म के तौर पर देखा.
शायद यही वजह था कि समाचार पत्रों व चैनलों में आरटीआई पत्रकार भी बहाल होने लगे थे. रिपोर्टरों को ख़ास हिदायत दी जाने लगी थी कि वो अपनी ख़बरों के लिए आरटीआई का इस्तेमाल करें.
यहां हम आपको यह भी बताते चलें कि टीवी-9 मुम्बई देश का पहला समाचार चैनल है, जिसने अपने यहां आरटीआई व इंवेस्टीगेशन डेस्क स्थापित किया था, वहीं यूएनआई टीवी साउथ एशिया की पहली ऐसी न्यूज़ एजेंसी है, जिसने अपने यहां आरटीआई व इंवेस्टीगेशन डेस्क स्थापित किया था और इन दोनों जगहों पर इस डेस्क की ज़िम्मेदारी हमारे कंधों पर रखी गई थी.
ऐसा भी कई बार देखा गया है कि कोई भी आम व्यक्ति सूचना के अधिकार के तहत मिली किसी भी महत्वपूर्ण सूचना को सोशल मीडिया पर ज़ाहिर कर देता. उसे किसी भी अख़बार या टीवी चैनल की चौखट पर नाक रगड़ने की ज़रूरत नहीं होती. कुछ ही देर में उसकी यह महत्वपूर्ण सूचना वायरल हो चुकी होती थी. उस पर अच्छी–ख़ासी बहस छिड़ चुकी होती थी. यहां तक मजबूरन मेनस्ट्रीम मीडिया को इस ख़बर को अपने एजेंडे में प्रमुख तौर पर शामिल करना पड़ता था.
ऐसे उदाहरणों की एक अच्छी खासी संख्या है. कम से कम हज़ारों ऐसी सूचनाएं हमने खुद अपनी वेबसाइट http://beyondheadlines.in/ के माध्यम से इस देश की तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया तक पहुंचाई हैं. हम अपने खुद के तजूर्बे की बात करें तो कई बार ऐसा हुआ है कि किसी विभाग में आरटीआई डालना भी ख़बर बन चुकी है. और इसका खामियाजा मुझे आज तक भुगतना पड़ता है कि ज़्यादातर पत्रकार मुझे आरटीआई कार्यकर्ता ही समझते हैं, जबकि मैं लगातार इन्हें बताता रहता हूं कि मैं कार्यकर्ता नहीं, पत्रकार हूं और आरटीआई का इस्तेमाल अपनी खोजपरक पत्रकारिता के लिए करता हूं.
बटला हाउस व शोहराबुद्दीन एनकाउंटर का सच, गोधरा के गनी प्लॉट एरिया में लोगों पर पुलिसिया ज़ुल्म का सच, हाशिमपुरा दंगे का सच, मुम्बई हमले व संसद हमले का सच, दिल्ली जल बोर्ड की असलियत, मध्य प्रदेश में बाल श्रमिकों के कल्याण के धन की लूट-खसोट, राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे का ब्यौरा (भाजपा को डाओ केमिकल्स से चंदे का मिलना, पब्लिक स्कूलों का कांग्रेस और भाजपा को चंदा दिए जाने का सच), बाबा रामदेव के चंदे का सच, बिहार में नीतिश के अल्पसंख्यक व मीडिया प्रेम का सच, पीएम के दफ्तर के साथ देश के कई अहम मंत्रालयों के दफ्तर में बाबुओं के चाय नाश्ते पर होने वाले खर्च के हैरान कर देने वाले तथ्य, कई अहम पदों पर जुगाड़ से होने वाले बहाली का सच, भोपाल गैस कांड का सच, देश में होने वाले फर्जी एनकाउंटरों का सच, विधायकों व सांसदों द्वारा किए जाने वाले घपलों का सच, इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट में फोर्ड फाउंडेशन व विदेशी फंडिग एसेंजियों से आने वाले फंड की सच्चाई, देश की सरकार का चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से रिश्तों का सच, पुणे की लवासा सिटी का सच, स्वास्थ्य के नाम पर दवा कम्पनियों की मनमानियां, देश में स्वास्थ्य के हर स्कीमों में होने वाले घोटालों का सच, देश में अल्पसंख्यकों के नाम चलने वाले स्कीमों के खर्च का सच, नीतिश का मीडिया मैनेजमेंट तो वहीं मेडिकल कॉलेज के नाम पर करोड़ों का घोटालों का सच, वक्फ़ सम्पत्तियों के किराए का सच, हज सब्सिडी के नाम पर होने वाले घोटालों का सच, पवन बंसल के कारनामे, मुम्बई में चूहे मारने के नाम पर हो रहे हैरतअंगेज़ घोटालों का सच और राजस्थान में मर्दों द्वारा जननी सुरक्षा योजना का लाभ लिए जाने जैसी न जाने कितनी दिलचस्प व गंभीर ख़बरें हमने खुद निकाली हैं. लेकिन अब अपने निजी तजुर्बे की बुनियाद पर कह रहा हूं कि इस नई सरकार में इस क़ानून के ज़रिए सूचना मिलना तक़रीबन बंद चुका है.
तथ्यों की बात करें तो आरटीआई से जुड़े देश की इस सबसे सर्वोच्च संस्थान यानी केन्द्रीय सूचना आयोग के पास क़रीब 25 हज़ार द्वितीय अपील व शिकायतों के मामले पेंडिंग हैं और जिस रफ़्तार से इस आयोग में केसों का निपटारा हो रहा है, उससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन तमाम मामलों के निपटारे में चार साल से अधिक का समय लग सकता है. अगर मामला राष्ट्रपति कार्यालय, उप–राष्ट्रपति कार्यालय, प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय या रक्षा मंत्रालय जैसे अहम दफ़्तरों से संबंधित है तो यह इंतज़ार और भी लंबा हो सकता है.
बात अगर राज्य सूचना आयोगों की करें तो यहां कहानी और भी भयावह है. बताते चलें कि आरटीआई की धारा -15 के तहत हर राज्य में एक सूचना आयोग का होना ज़रूरी है. इस आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त और दस से अनधिक संख्या में सूचना आयुक्त, जितने आवश्यक समझे जाएं, का होना अत्यंत ज़रूरी है. लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस क़ानून का ये बेसिक प्रावधान भी सरकारों के गले के नीचे नहीं उतर सका है. एक नहीं, कई राज्यों में मुख्य सूचना आयुक्त व राज्य सूचना आयुक्तों के पद खाली पड़े हैं. न तो इन रिक्त पदों को भरने की कोशिश की जा रही है और न ही ये सरकारों के प्राथमिकता में है.
देश के ताज़ा हालात में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह सरकार इस क़ानून को हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहती है. यक़ीनन सरकार इसे अचानक ख़त्म नहीं कर सकती है. लेकिन इसके लिए सिस्टम ऐसा ज़रूर बना दिया जाएगा कि लोग आरटीआई के आवेदन डालना ही छोड़ देंगे.
इधर मीडिया को भी इस आरटीआई में कोई दिलचस्पी नहीं है. ऐसे में अगर फिर से मीडियाकर्मी सूचनाधिकार की ताक़त समझ कर इसका समुचित उपयोग शुरू कर दें, तो पत्रकारिता का पूरा दृश्य बदल सकता है.