जावेद अनीस, TwoCircles.net के लिए
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत पत्रकारिता के लिहाज़ से सबसे ख़तरनाक मुल्कों की सूची में बहुत ऊपर है.
‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ द्वारा 2017 में जारी वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के अनुसार इस मामले में 180 देशों की सूची में भारत 136वें स्थान पर है.
यहां अपराध, भ्रष्टाचार, घोटालों, कार्पोरेट व बाहुबली नेताओं के कारनामें उजागर करने वाले पत्रकारों को इसकी क़ीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. इसको लेकर पत्रकारों के सिलसिलेवार हत्याओं का लम्बा इतिहास रहा है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़, पिछले दो सालों के दौरान देश भर में पत्रकारों पर 142 हमलों के मामले दर्ज किये हैं, जिसमें सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश (64 मामले) फिर मध्य प्रदेश (26 मामले) और बिहार (22 मामले) में दर्ज हुए हैं.
इधर एक नया ट्रेंड भी चल पड़ा है, जिसमें वैचारिक रूप से अलग राय रखने वालों, लिखने-पढ़ने वालों को डराया-धमकाया जा रहा है. उन पर हमले हो रहे हैं. यहां तक कि उनकी हत्याएं की जा रही हैं.
आरडब्ल्यूबी की ही रिपोर्ट बताती है कि, भारत में कट्टरपंथियों द्वारा चलाए जा रहे ऑनलाइन अभियानों का सबसे बड़े शिकार पत्रकार ही बन रहे हैं. यहां न केवल उन्हें गालियों का सामना करना पड़ता है, बल्कि शारीरिक हिंसा की धमकियां भी मिलती रहती हैं.
पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को बेंगलुरु जैसे शहर में उनके घर में घुसकर मार दिया गया. लेकिन जैसे उनके वैचारिक विरोधियों के लिए यह काफी ना रहा हो. सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी समूहों के लोग उनकी जघन्य हत्या को सही ठहराते हुए जश्न मानते नज़र आए. विचार के आधार पर पहले हत्या और फिर जश्न… यह सचमुच में डरावना और ख़तरनाक समय है.
गौरी लंकेश की निर्मम हत्या ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामियों को झकझोर दिया है. यह एक ऐसी घटना है, जिसने स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता करने वाले लोगों में गुस्से और निराशा से भर दिया है.
आज गौरी लंकेश दक्षिणपंथी राजनीति के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की सबसे बड़ी प्रतीक बन चुकी है. ज़ाहिर है उनके कहे और लिखे की कोई अहिमियत रही होगी, जिसके चलते उनकी वैचारिक विरोधियों ने उनकी जान ले ली.
गौरी एक निर्भीक पत्रकार थीं. वे सांप्रदायिक राजनीति और हिन्दुतत्ववादियों के ख़िलाफ़ लगातार मुखर थी. यह उनकी निडरता और ना चुप बैठने की आदत थी जिसकी क़ीमत उन्होंने अपनी जान देकर चुकाई है.
गौरी की हत्या बिल्कुल उसी तरह की गई है, जिस तरह से उनसे पहले गोविन्द पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी की आवाज़ों को ख़ामोश कर दिया गया था. ये सभी लोग लिखने, पढ़ने और बोलने वाले लोग थे, जो सामाजिक रूप से भी काफ़ी सक्रिय थे.
गौरी लंकेश की हत्या के बाद एक फेसबुक पोस्ट में कहा गया कि “गौरी लंकेश की हत्या को देश विरोधी पत्रकारिता करने वालों के लिए एक उदाहरण के तौर पर पेश करना चाहिए. मुझे उम्मीद है कि ऐसे देशद्रोहियों की हत्या का सिलसिला यही ख़त्म नहीं होगा. शोभा डे, अरुंधति राय, सगारिका घोष, कविता कृष्णन एवं शेहला रशीद आदि को भी इस सूची में शामिल किया जाना चाहिए.”
ज़ाहिर है कि हत्यारों और उनके पैरोकारों के हौसले बुलंद हैं. भारतीय संस्कृति के पैरोकार होने का दावा करने वाले गिरोह और ‘साईबर बन्दर’ बिना किसी ख़ौफ़ के नई सूचियां जारी कर रहे हैं. धमकी और गाली-गलौज कर रहे हैं. सरकार की आलोचना या विरोध करने वाले लोगों को देशद्रोही क़रार देते हैं और अब हत्याओं के बाद ‘शैतानी जश्न’ मना रहे हैं.
भारत हमेशा से ही एक बहुलतावादी समाज रहा है, जहां हर तरह के विचार एक साथ फलते-फूलते रहे हैं. यही हमारी सबसे बड़ी ताक़त भी रही है. लेकिन अचानक यहां किसी एक विचारधारा या सरकार की आलोचना करना बहुत ख़तरनाक हो गया है. इसके लिए आप राष्ट्र-विरोधी घोषित किए जा सकते हैं और आपकी हत्या करके जश्न भी मनाया जा सकता है.
बहुत ही अफ़रा-तफ़री का माहौल है, जहां ठहर कर सोचने–समझने और संवाद करने की परस्थितियां सिरे से ग़ायब कर दी गई हैं. सब कुछ खांचों में बंट चुका है. हिंदू बनाम मुसलमान, राष्ट्रवादी बनाम देशद्रोही.
सोशल मीडिया ने ‘लंगूर के हाथ में उस्तरे’ वाली कहावत को सच साबित कर दिया है, जिसे राजनीतिक शक्तियां बहुत ही संगठित तौर पर अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रही हैं. पूरे मुल्क में एक ख़ास तरह की मानसिकता और उन्माद को तैयार किया जा चुका है. यह एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज बहुत महंगा साबित होने वाला है और बहुत संभव है कि यह जानलेवा भी साबित हो.
समाज से साथ–साथ मीडिया का भी ध्रुवीकरण किया गया है. समाज में खींची गईं विभाजन रेखाएं, मीडिया में भी साफ़ नज़र आ रही है. यहां भी अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहमति की आवाज़ों को निशाना बनाया गया है, इसके लिए ब्लैकमेल, विज्ञापन रोकने, न झुकने वाले संपादकों को निकलवाने जैसे हथखंडे अपनाए गए हैं.
इस मुश्किल समय में मीडिया को आज़ाद होना चाहिए था, लेकिन आज लगभग पूरा मीडिया हुकूमत की डफली बजा रहा है. यहां पूरी तरह एक ख़ास एजेंडा हावी हो गया है. पत्रकारों को किसी एक खेमे में शामिल होने और पक्ष लेने को मजबूर किया जा रहा है.
किसी भी लोकतान्त्रिक समाज के लिये अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहमति का अधिकार बहुत ज़रूरी है. फ्रांसीसी दार्शनिक “वोल्तेयर” ने कहा था कि, “मैं जानता हूँ कि जो तुम कह रहे हो वह सही नहीं है, लेकिन तुम कह सको इस अधिकार की लड़ाई में, मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ”.
एक मुल्क के तौर पर हमने भी नियति से एक ऐसा ही समाज बनाने का वादा किया था, जहां सभी नागिरकों को अपनी राजनीतिक विचारधारा रखने, उसका प्रचार करने और असहमत होने का अधिकार हो. लेकिन यात्रा के इस पड़ाव पर हम अपने संवैधानिक मूल्यों से भटक चुके हैं.
दरअसल, गौरी लंकेश की हत्या एक संदेश है, जिसे हम और अनसुना नहीं कर सकते हैं. इसने अभिव्यक्ति की आज़ादी और पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल को एक बार फिर केंद्र में ला दिया है. यह हमारी सामूहिक नाकामी का परिणाम है और इसे सामूहिक रूप से ही सुधार जा सकता है. यह राजनीतिक हत्या है जो बताती है कि वैचारिक अखाड़े की लड़ाई और खूनी खेल में तबदील हो चुकी है. इस स्थिति के लिए सिर्फ़ कोई विचारधारा, सत्ता या राजनीति ही जिम्मेदार नहीं है, इसकी जवाबदेही समाज को भी लेनी पड़ेगी. भले ही इसके बोने वाले कोई और हों लेकिन आखिरकार नफ़रतों की यह फ़सल समाज और सोशल मीडिया में ही तो लहलहा रही है. नफ़रती राजनीति को प्रश्रय भी तो समाज में मिल रहा है. नागरिता की पहचान को सबसे ऊपर लाना पड़ेगा. लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को भी अपना खोया सम्मान और आत्मविश्वास खुद से ही हासिल करना होगा.