अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
नई दिल्ली : पिछले दिनों फ़रीदाबाद डिस्ट्रिक कोर्ट में जुनैद हत्याकांड की सुनवाई करते हुए जस्टिस वाई. एस. राठौर ने अपने लिखित आॅर्डर में कहा था, ‘चेतावनी के बाद भी सरकारी एडिशनल एडवोकेट जनरल नवीन कौशिक कोर्ट रूम में आरोपी पक्ष के वकील की मदद कर रहे थे. आरोपी पक्ष के वकील को गवाहों से पूछे जाने वाले सवाल पहले ही कोर्ट रूम में बता रहे थे.’
इसके बाद जस्टिस वाई.एस. राठौर ने हरियाणा सरकार के वकील नवीन कौशिश पर कार्रवाई करने को कहा और इसके बाद उन्हें अपने पद से हटना पड़ा.
जुनैद हत्याकांड में सरकारी वकील की यह भूमिका बताती है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में नफ़रत की राजनीति का शिकार हो रहे मुसलमानों के लिए इंसाफ़ मिलना कितना मुश्किल है. जिस सरकार की ये ड्यूटी है, वे पीड़ितों के साथ न्याय करे, वो आरोपियों को बचाने की पूरी तैयारी में जुटी हुई थी.
मगर जुनैद हत्याकांड में सरकारी वकील की भूमिका पर जस्टिस वाई. एस. राठौर की ये टिप्पणी बेशक बड़ी बात है, लेकिन अन्य राज्यों की सरकारों का रवैया भी कमोबेश ऐसा ही है. हरियाणा के अलावा राजस्थान से लेकर झारखंड तक में हिंसा के शिकार मुसलमानों को इंसाफ़ दिलाने में सरकार सीधे-सीधे मुंह फेर रही है.
पहलू खान के मामले की भी यही कहानी है. राजस्थान की पुलिस पहलू खान के हत्यारों को बचाने में जुटी हुई है. अभियोजन की ओर से तमाम क़ानूनी खामियां जान-बूझकर छोड़ी गई हैं ताकि आरोपी आसानी से बच सकें.
इस मामले के आरोपी पहले तो 5 महीने तक फ़रार रहें और अचानक आकर पुलिस को अपने बयान रिकॉर्ड कराते हुए ये कहते हैं कि वे घटनास्थल पर मौजूद ही नहीं थे. पुलिस उनके इस बयान सबूत मान लेती है. पुलिस की रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि पहूल खान के डायिंग डिक्लेरेशन की जांच की गई और ये पाया गया कि सभी 6 आरोपी घटना के वक्त एक गौशाला में मौजूद थे. जबकि डायिंग डिक्लेरेशन में पहलू खान ने 6 लोगों के नाम लिए थे. पहलू खान के बयान के मुताबिक उन पर हमला करने वाले कह रहे थे कि वह बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के सदस्य हैं. ऐसे में सवाल ये है कि जब पहलू खान उस इलाके का रहने वाला था नहीं, तो उसे इन्हीं 6 लोगों के नाम कैसे याद रहे. आखिर किसने उसे ये नाम दिए?
इसी तरह का मामला झारखंड के रामगढ़ में हुआ, जहां अलीमुद्दीन अंसारी लिंचिंग मामले में इस वारदात की एकमात्र चश्मीद गवाह जलील अंसारी को पहले बजरंग दल कार्यकर्ताओं के ज़रिए गवाही देने पर अंजाम भुगतने की धमकी दी गई, जब वो अदालत पहुंच गए तो अदालत ने बताया कि बयान देने के लिए आधार कार्ड का होना ज़रूरी है. जब उनका आधार कार्ड लेने के लिए उनकी पत्नी घर जा रही थी तो रास्ते में सड़क हादसें में उनकी मौत हो गई. लेकिन वहां की लोगों की मानें तो ये सामान्य सड़क हादसे में हुई एक सामान्य मौत नहीं थी, बल्कि आरोपियों ने उन्हें मार दिया.
इन तीन मामले महज़ उदाहरण हैं. बाक़ी दूसरों मामलों की भी छानबीन करने से पता चलता है कि भाजपा शासित राज्यों में जहां मुसलमानों पर सबसे ज़्यादा हमले हो रहे हैं, वहीं यहां इन्हें इंसाफ़ के मुहाने तक पहुंचने के लिए भीषण संघर्ष भी करना पड़ रहा है. इसके बावजूद ये गारंटी नहीं है कि उन्हें इंसाफ़ मिल पाएगा या नहीं?