फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
नई दिल्ली : दिल्ली जैसी दौड़ती-भागती शहर में कई चेहरे आज भी ऐसे हैं जो अपने ज़िन्दगी को किसी ख़ास मक़सद के हवाले कर दिए हैं. उन्हीं चन्द लोगों में एक नाम शारिक़ नदीम का भी शामिल है. जिन्होंने अपने ज़िन्दगी को उन बच्चों के तालीम के लिए सुपुर्द कर दिया है जो आज भी स्कूल से महरूम हैं.
शारिक़ के दिल को यह बात हमेशा कचोटती रहती है कि जिस देश में ‘शिक्षा का अधिकार’ क़ानून 2010 से लागू है, जिसके तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है. लेकिन बावजूद इसके चौंकाने वाला तथ्य यह है कि दलितों और मुसलमानों की एक बड़ी आबादी आज भी प्राईमरी शिक्षा से वंचित है.
शारिक़ आंकड़ों को सामने रखते हुए कहते हैं कि ये इस देश के लिए शर्म की बात है कि 6 से 13 वर्ष तक की आयु के 60 लाख से भी अधिक बच्चे स्कूलों की दहलीज़ से दूर हैं और इनमें सबसे अधिक संख्या मुसलमानों व दलितों समुदाय से आने वाले बच्चों की है. देश की राजधानी दिल्ली में इनकी संख्या क़रीब 90 हज़ार है.
शारिक़ नदीम मुख्य रूप से बिहार के आरा ज़िले के रहने वाले हैं. इन्होंने इंटरमेडिएट तक की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) से की.
शारिक़ की ख़्वाहिश इंजीनियर बनने की थी, लेकिन आर्थिक स्थिति के कारण उन्होंने आईटी सेक्टर में मणिपाल से बैचलर की डिग्री हासिल की. आगे की पढ़ाई के लिए शारिक़ ने जामिया मिलिया इस्लामिया का रूख किया. यहां के माहौल ने एक इंजीनियर के दिमाग़ को मानव अधिकार कार्यकर्ता बनने के लिए प्रेरित किया. ऐसे में शारिक़ ने जामिया से मानव अधिकार में मास्टर की डिग्री हासिल की.
शारिक़ बताते हैं कि जामिया में वो पढ़ाई के दौरान सोशल एक्टिविज़्म से जुड़े रहें. इसी दौरान जामिया के क़रीब के झुग्गियों में शारिक़ अकेले पढ़ाते रहे. फिर अपने साथियों के साथ मिलकर जामिया के कंस्ट्रक्शन का काम कर रहे मज़दूरों के बच्चों को पढ़ाने की शुरूआत की.
उन्होंने 2010 में ‘द ओरिजिन’ नाम से एक संस्था की नींव रखी. चुंकि संस्था का मेन फ़ोकस एजुकेशन रहा, इसलिए इन्होंने बीएड की तालीम हासिल करने की सोची ताकि बच्चों को सही टेक्निक के साथ क्वालिटी एजुकेशन दिया जा सके.
शारिक़ आगे बताते हैं कि, वर्तमान में ‘द ओरिजिन’ जसोला गांव के क़रीब सौ बच्चों को पढ़ाने का काम कर रही है और इस काम में उनके क्लास में पढ़ने वाले क़रीब 30 बीएड के छात्र उनके साथ हैं. जो अलग-अलग शिफ्ट में यहां बच्चों को पढ़ाने में लगे हैं.
शारिक़ की माने तो उनके दोस्त ही उनकी असल ताक़त हैं. अगर क्लास के दोस्तों ने साथ न दिया होता तो शायद ये काम अकेले कर पाना किसी भी तरह से मुमकिन नहीं था.
वो आगे बताते हैं कि हालांकि मेरे इस काम में मेरी पूरी क्लास मेरे साथ है, बावजूद इसके कुछ दोस्त अपनी कुछ मजबूरियों की वजह से वक़्त नहीं दे पाते हैं, लेकिन उनका हर तरह का सहयोग मुझे मिलता रहता है. मेरे लिए अच्छी बात यह है कि मेरे दोस्तों ने ही आपस में मिलकर ज़िम्मेदारियां बांट ली हैं.
शारिक़ बताते हैं कि, संस्था के पास इस काम के लिए कोई फंड नहीं है, बावजूद इसके कोई ख़ास परेशानी नहीं आई. बच्चों के बुक्स और कापियों का खर्च हम सब दोस्त ही मिलकर उठा लेते हैं.
वो बताते हैं कि क्लासरूम की सुविधा नहीं होने के कारण बच्चों को खुले आसमान के नीचे पढ़ना पड़ता है, जिससे कभी-कभी काफ़ी मुश्किलों का सामना भी होता है. यही वजह है कि उन्होंने बच्चों को पढ़ाने के लिए दो शिफ्ट तय किए हैं, जिससे बच्चों को धूप से बचाया जा सके.
आगे बताते हैं कि ‘द ओरिजिन’ की इस मुहिम का असल मक़सद जो बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहें हैं, उनकी बुनियाद को मज़बूत कर अच्छे स्कूल में दाख़िला कराना है. इसके लिए आस-पास के स्कूलों से भी बातचीत जारी है कि वो ई.डब्ल्यू.एस कैटेगरी के तहत इन बच्चों को अपने स्कूलों में जगह दें. साथ में हम यह भी कोशिश कर रहे हैं कि सरकारी स्कूल में भी अधिक से अधिक बच्चों का दाख़िला कराया जाए, ताकि ये बच्चे सरकारी योजनाओं का लाभ लेकर अपने पढ़ाई को पूरा कर सकें.
शारिक़ आगे बताते हैं कि ये बच्चे स्लम के तो नहीं हैं, लेकिन ये सभी झुग्गियों में रहने वाले दिहाड़ी मज़दूरों के बच्चे हैं, जिनकी आर्थिक हालात इतनी अच्छी नहीं है कि वो अपने बच्चों को स्कूल भेज सकें.
शारिक़ मानते हैं कि उनका काम शुरू से एजुकेशन को लेकर इसलिए फोकस में रहा, क्योंकि उनका मानना है कि शिक्षा एक मात्र साधन है जिससे इंसान किसी भी परिस्थिति का सामना आसानी से कर सकता है. यदि इंसान शिक्षित है तो वो एक अच्छे राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दे सकता है.
शारिक़ की चाहत है कि शिक्षा से महरूम बच्चों की तालीम के इस मिशन को पूरे दिल्ली शहर में फैलाएं ताकि दिल्ली में स्कूलों की दहलीज़ से दूर बच्चों का मुस्तक़बिल संवारा जा सके.
ये कहानी ख़ास तौर पर बीएड की तालीम हासिल कर रहे छात्रों के लिए एक सबक़ की तरह है कि क्लासरूम की थ्योरी को न सिर्फ़ ज़मीन पर जाकर प्रैक्टिस में लाया जाए, बल्कि साथ ही साथ देश का मुस्तक़बिल संवारने की एक नायाब कोशिश भी की जा सकती है, ख़ास तौर पर उन बच्चों की जिन्होंने अब तक स्कूल का मुंह नहीं देखा है.