जावेद अनीस, TwoCircles.net के लिए
वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सहस्राब्दि विकास के 8 लक्ष्य तय किए थे. जिसका मक़सद 2015 तक दुनिया भर में ग़रीबी, स्वास्थ्य, मृत्यु दर, शिक्षा, लिंगभेद, भुखमरी जैसी चुनौतियों पर क़ाबू पाना था. लेकिन दुर्भाग्य से 2015 तक इन्हें हासिल नहीं किया जा सका.
इसके बाद वर्ष 2030 तक के लिए “सतत् विकास लक्ष्य” (एसडीजी) का विचार सामने आया, जिसके तहत संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अगले 15 सालों के लिए नए लक्ष्य तय कर दिए गए हैं. इन्हें टिकाऊ विकास लक्ष्य भी कहा जाता है.
‘ट्रांस्फॉर्मिंग आवर वर्ल्ड : द 2030 एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट‘ के संकल्प को साल 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ की 70वें अधिवेशन में औपचारिक रूप से स्वीकार किया गया था. यह एक जनवरी 2016 से लागू है.
एसडीजी के तहत कुल 17 विकास लक्ष्य तय किए गए हैं. सतत विकास लक्ष्यों का उद्देश्य सबके लिए समान, न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध और रहने योग्य विश्व का निर्माण करते हुए विकास के तीनों पहलुओं, सामाजिक समावेश, आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को व्यापक रूप से समाहित करना है.
सतत विकास की अवधारणा में भविष्य की भी चिंता शमिल है. एसडीजी की ख़ासियत यह है कि इसमें पर्यावरण संरक्षण को आर्थिक विकास का अंग माना गया है. यह एक ऐसे विकास के मॉडल की वकालत करती है, जो भावी पीढ़ियों की ज़रूरतें को प्रभावित किए बिना ही हमारे मौजूदा समय की आवश्यकताओं को पूरा कर सके.
सतत विकास की अवधारणा को सैद्धांतिक तौर पर मानना तो आसान है, लेकिन इसे व्यवहार में लाना उतना ही मुश्किल है. ख़ासकर भारत जैसे विकासशील देशों के लिए…
दरअसल एसडीजी जैसे लक्ष्यों को हासिल करने में भारत जैसे देशों की सबसे बड़ी चुनौती विकास की अपनी रफ्तार को रोके बिना पर्यावरण संरक्षण तथा संसाधनों का प्रबंधन करना है. इसके अलावा ग़रीब व विकासशील देशों के पास पर्यावरण संरक्षण के साथ विकास के लिए ग्रीन टेक्नोलॉजी और तकनीकि दक्षता का अभाव भी होता है.
शायद इसीलिए एसडीजी लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में भारत की शुरुआत निराशाजनक है. पिछले साल सतत विकास समाधान नेटवर्क (एसडीएसएन) और बर्टल्समैन स्टिफटंग द्वारा सतत विकास सूचकांक पेश किया गया था, जिसमें भारत को 149 देशों की सूची में 110वें स्थान पर रखा गया.
सतत् विकास का सातवां लक्ष्य है —सभी के लिये सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक पहुंच सुनिश्चित करना. जिसका मक़सद है 2030 तक सभी को स्वच्छ उर्जा स्रोतों के ज़रिए सस्ती बिजली उपलब्ध करना.
विश्व की क़रीब सवा अरब आबादी अभी भी बिजली जैसी बुनियादी ज़रूरत से महरूम है. ऐसे में सस्ती और टिकाऊ ऊर्जा को नए लक्ष्यों में शामिल किया जाना बहुत प्रासंगिक है. एसडीजी 7 भारत जैसे विकासशील देशों के लिए एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है.
नीति आयोग के अनुसार भारत में क़रीब 30 करोड़ लोग अभी भी ऐसे हैं, जिन तक बिजली की पहुंच नहीं हो पाई है. इसी तरह से 2014 में जारी यूनाइटेड नेशंस इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के अनुसार अपने लोगों को खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन न उपलब्ध करा पाने वाले देशों की सूची में भारत शीर्ष पर है और यहां की दो-तिहाई आबादी खाना बनाने के लिए कार्बन उत्पन्न करने वाले ईंधन और गोबर से तैयार होने वाले ईंधन का इस्तेमाल करती है, जिसकी वजह से इन परिवारों की महिलाओं और बच्चों के सेहत को गंभीर असर पड़ता है.
सितंबर, 2015 को केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल द्वारा ‘स्वच्छ पाक ऊर्जा और विद्युत तक पहुंच राज्यों का सर्वेक्षण’ रिपोर्ट जारी किया गया था. इस सर्वेक्षण में 6 राज्यों (बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) के 51 ज़िलों के 714 गांवों के 8500 परिवार शामिल किये गए थे.
रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों में 78% ग्रामीण आबादी भोजन पकाने के लिए पारंपरिक बायोमास ईंधन का उपयोग करती है और केवल 14% ग्रामीण परिवार ही भोजन पकाने के लिए स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग करते हैं.
उर्जा मंत्रालय द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार हमारे देश अभी 4 करोड़ 5 लाख 30 हज़ार 31 घरों में बिजली नहीं है, जिनमें से प्रमुख राज्यों की स्थिति निम्नानुसार है-
राज्य | बिजली से वंचित घरों की संख्या
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उत्तर प्रदेश | 1,46,66,815
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बिहार | 64,95,622
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झारखंड | 30,47,833
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मध्य प्रदेश | 45,02,027 |
राजस्थान | 20,20,979 |
हरियाणा | 6,83,690 |
छत्तीसगढ़ | 6,44,458
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(स्रोत : उर्जा मंत्रालय )
दरअसल, वर्तमान में भारत ऊर्जा को लेकर मुख्यतः कोयले, पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैसों और तेल पर ही निर्भर है, जिसकी अपनी सीमाए हैं. एक तो महंगी होने की वजह से सभी तक इनकी पहुंच नहीं है. दूसरा इनसे बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है. इसके साथ ही ये विकल्प टिकाऊ भी नहीं है.
जिस रफ्तार से ऊर्जा के इन प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा, उससे वे जल्द ही ख़त्म हो जाएंगी और फिर इन्हें दोबारा बनने में सदियां लग जाएंगी. इसका प्रभाव पर्यावरण के साथ-साथ भावी पीढ़ियों पर भी पड़ना तय है. ऐसे में ऊर्जा के नए विकल्पों की तरफ़ बढ़ना समय की मांग है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर लगाम लग सके और सभी लोगों तक सस्ती और टिकाऊ ऊर्जा की पहुंच बनाई जा सके.
इस दिशा में भारत अभी शुरूआती दौर में ही है. विश्व आर्थिक मंच ग्लोबल एनर्जी आर्किटेक्चर परफार्मेंस इंडेक्स रिपोर्ट में हर साल वैश्विक स्तर पर विभिन्न मुल्कों में सुरक्षित, सस्ती और टिकाऊ ऊर्जा की आपूर्ति के आधार पर ऊर्जा ढांचे का आकलन पेश किया जाता है.
यानी 2017 में जारी इसकी रिपोर्ट में 127 देशों में से भारत को 87वां स्थान दिया गया है, जिसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता. इस सम्बन्ध में नीति आयोग ने उम्मीद जताई है कि चूंकि अक्षय ऊर्जा स्रोतों की क़ीमत कम हो रही है जिससे सभी को सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा पहुंच के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिल सकती है. वर्तमान में हमारे देश में नवीकरणीय ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों के माध्यम से लगभग 50 गीगावॉट बिजली पैदा की जाती है, जिसे 2022 तक 100 गीगावॉट यानी दुगना करने के लक्ष्य रखा गया है.
इधर मोदी सरकार का ज़ोर भी ग्रामीण क्षेत्रों में सभी को एलपीजी कनेक्शन और बिजली उपलब्ध कराने के लिए ‘प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना‘ और “प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना” जैसी योजनाओं की शुरुआत की गई है. उज्ज्वला योजना की शुरुआत तीन सालों में पांच करोड़ ग़रीब महिलाओं को रसोई गैस कनेक्शन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से की गई है. इसका मक़सद ग्रामीण क्षेत्रों में खाना पकाने के लिए एलपीजी के उपयोग को बढ़ावा देना है जिससे लकड़ी और उपले जैसे प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन के उपयोग को कम किया जा सके.
इसी तरह से ‘प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना‘ के तहत 31 मार्च 2019 तक भारत के हर घर को बिजली उपलब्ध कराने लक्ष्य रखा गया है. हालांकि जानकार मानते है कि भारत का भी परंपरागत ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर होना इस दिशा में सबसे बड़ी बाधा है.
इस दिशा में सौर उर्जा एक अच्छा विकल्प हो सकता है. हमारा देश सौर उर्जा के उत्पादन के लिए एक आदर्श स्थल है क्योंकि हमारे यहाँ साल भर में 250 से 300 दिनों तक सूरज की पर्याप्त रोशनी उपलब्ध है.
मध्य प्रदेश के संदर्भ में बात करें तो राज्य में बिजली की सरप्लस उत्पादन होने के बावजूद यहां अभी भी लगभग 45 लाख परिवार बिजली विहीन हैं. दूसरी तरफ़ हालत यह है कि मध्य प्रदेश में राज्यों के मुक़ाबले बिजली ज्यादा महंगी मिल रही है. यहां देश में सबसे ज़्यादा महंगी दरों पर बिजली के बिल वसूले जा रहे हैं, जिसका असर ग़रीब किसानों और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है.
इसी साल ही बिजली कंपनियों के प्रस्ताव पर विद्युत नियामक आयोग द्वारा बिजली दरों में क़रीब 10 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की गई है. यह लगातार तीसरा साल था, जब बिजली दरों में इज़ाफ़ा किया गया है और इस तरह से यहां पिछले तीन सालों में बिजली दरों में क़रीब 30 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की जा चुकी है.
यह स्थिति तब है जबकि राज्य में बिजली का उत्पादन मांग से अधिक हो रहा है और मध्य प्रदेश दूसरे राज्यों को भी बिजली उपलब्ध कराता है, लेकिन फिर भी यहां लोग महंगी दरों पर बिजली खरीदने को मजबूर हैं तो इसकी वजह यह है कि मध्य प्रदेश सरकार प्राइवेट बिजली कंपनियों से महंगी दरों पर बिजली खरीद रही है. विपक्षी पार्टियां इसे देश का सबसे बड़ा बिजली घोटाला बता रही हैं. उनका आरोप है कि राज्य में भरपूर बिजली उपलब्ध होने के बावजूद सरकार ने प्राइवेट बिजली कंपनियों से महंगी दरों पर बिजली खरीदने का क़रार किया हुआ है.
उनका आरोप है कि सरकार निजी कंपनियों से महंगी बिजली खरीदने के लिए खुद के बिजली घरों को या तो बंद रख रही है या फिर उनसे नाममात्र का बिजली पैदा किया जा रहा है.
दरअसल, मध्य प्रदेश ऐसा राज्य है, जहां लोगों ने बिजली उत्पादन के बड़े प्रोजेक्ट के चलते भरी क़ीमत चुकाई है. इसके लिए नर्मदा घाटी में ही दो सौ से ज़्यादा बांध बनाए जा चुके हैं, जिसके चलते लाखों लोगों को उनकी जगह से विस्थापित होने को मजबूर किया गया है. लेकिन इतनी बड़ी क़ीमत चुकाने के बावजूद यहां बनाई गई बिजली घरों का क्षमता से बहुत कम उपयोग किया जा रहा है.
इधर मध्य प्रदेश सरकार का चुटका परमाणु प्लांट भी सवालों के घेरे में है. मध्य प्रदेश सरकार मंडला ज़िले के चुटका में बिजली के लिए परमाणु प्लांट बना रही है, जिसकी क्षमता 1400 मेगावाट होगी, लेकिन स्थानीय लोग इस परियोजना का भारी विरोध कर रहे हैं.
विरोध करने वालों का कहना है कि प्लांट से बड़ी संख्या में लोग विस्थापित तो होंगे ही, लेकिन इसके साथ ही परमाणु बिजली-घर पर्यावरण के लिहाज़ से सुरक्षित भी नहीं है.
अब सवाल उठता है कि ज़्यादा बिजली होने के बावजूद इस तरह का रिस्क लेने की क्या ज़रूरत है, जिससे पर्यावरण की क्षति हो और हज़ारों लोगों को अपनी जगह से उजाड़ना पड़े.
मध्य प्रदेश प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बहुत धनी है. यहां नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा स्रोतों की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
मध्य प्रदेश जलवायु परिवर्तन कार्य योजना पर काम शुरू करने वाले शुरुआती राज्यों में से एक है, जिसकी शुरुआत 2009 में की गई थी. साल 2010 में मध्य प्रदेश में नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग के रूप में एक स्वतंत्र मंत्रालय का गठन किया गया, जिसके बाद से प्रदेश में नवकरणीय ऊर्जा के विकास का रास्ता खुला है.
वर्तमान में नवकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में कुल 3200 मेगावॉट ऊर्जा का उत्पादन किया जा रहा है. देश की सबसे बड़ी 130 मेगावॉट की सौर परियोजना नीमच ज़िले में स्थापित की जा चुकी है.
इस साल अप्रैल में मध्य प्रदेश सरकार ने तीन निजी कंपनियों के साथ मिलकर रीवा अल्ट्रा मेगा सोलर प्रोजेक्ट पर अनुबंध किया है इसके तहत क़रीब 5,000 करोड़ की लागत से 750 मेगावॉट की उत्पादन क्षमता का सौर ऊर्जा संयंत्र लगाया जाएगा.
सरकार द्वारा दावा किया जा रहा है कि इस सोलर प्लांट से 2 रुपए 97 पैसे के टैरिफ़ पर बिजली मिलेगी. इसके 2018 के अंत तक शुरू हो जाने की संभावना है.
एसडीजी-7 इस बात की वकालत करता है कि ऊर्जा क्षेत्र में नवीकरणीय ही एकमात्र रास्ता है, जिससे भविष्य को नुक़सान पहुंचाए बिना तरक़्क़ी के रास्ते पर आगे बढ़ा जा सकता है. यह आर्थिक विकास तथा पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन की मांग करता है.
ज़रूरत इस बात की है कि भारत और चीन जैसे उभरते देश इस क्षेत्र में अपनी दक्षता को हासिल करें और इसके लिए सस्ती तकनीक के आविष्कार की तरफ़ भी ध्यान दें.
(जावेद अनीस भोपाल में रह रहे पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)