‘मेरी ख़्वाहिश कलक्टर बनने की थी और अब भी है, इंशा अल्लाह कलक्टर ज़रूर बनूंगी…’

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

बुलंद हौसलों को कभी किसी सहारे की ज़रूरत नहीं होती. इलाहाबाद की शीरत फ़ातिमा की भी यही कहानी है.


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इलाहाबाद के जसरा ब्लॉक के पंवर गांव में जन्मी शीरत (सीरत नहीं) ने इस बार यूपीएससी में 810वीं रैंक हासिल की है. इनके पिता अब्दुल ग़नी मेजा तहसील में लेखपाल हैं. वहीं मां इरफ़त फ़ातिमा घर का काम संभालती हैं. चार भाई-बहनों में शीरत सबसे बड़ी हैं.

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शीरत बताती हैं कि, पापा की ड्यूटी हमेशा बड़े अधिकारियों के साथ होती थी. बचपन में एक बार पापा मुझे डीएम प्रवीण कुमार के घर ले गए. तब मैं स्कूल में थी. पापा ने एक कुर्सी को दिखाते हुए कहा था —‘बेटा! मैं आपको इस कुर्सी पर देखना चाहता हूं. आप मुझे कुछ गिफ्ट देना चाहती है तो यही गिफ्ट दीजिए…’ हालांकि उनको तो कुछ पता भी नहीं था. उन्हें तो सिर्फ़ यही पता था कि  बिटिया को ‘कलेक्टर’ बनाना है.

शीरत फ़ातिमा की पढ़ाई घूरपुर गांव से हुई. यहीं के सेन्ट मेरी स्कूल में 12वीं तक की पढ़ाई की. 10वीं में इनके 88 फ़ीसदी नंबर आए, वहीं 12वीं क्लास में इन्होंने 83 फ़ीसदी नंबर हासिल किए. इसके बाद आप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की छात्रा बनीं, जहां से आपने बीएससी की डिग्री हासिल की.

शीरत बताती हैं कि, स्कूल घर से दस किलोमीटर दूर था. मेरे पापा खुद स्कूटर पर बैठाकर लाते-ले जाते थे. तब गांव में गाड़ियां नहीं चलती थीं. 2010 में कॉलेज में आई. घर से कॉलेज की दूरी 30 किलोमीटर थी. लेकिन अल्लाह का शुक्र है कि सरकार ने बस चला दी. फिर भी कुछ दूर साईकिल से जाती थी, फिर स्टैंड में साईकिल खड़ी करके बस से यूनिवर्सिटी पहुंचती थी.

वो कहती हैं कि, मेरी इस कामयाबी में एक अहम रोल मां का भी है. गांव में कोई लड़की स्कूल नहीं जाती थी, तब भी मेरी मां ने मेरा सपोर्ट किया. घर की सारी ज़िम्मेदारी खुद ले रखी थी. हमें काम नहीं करने देती थीं. वैसे मेरी ज़िन्दगी के असल हीरो मेरे पापा हैं. जिन्होंने हमेशा मुझ पर भरोसा किया. उनको देखकर ही मैं हमेशा मोटिवेट होती रही.

शीरत बताती हैं कि, मैंने 9वीं क्लास में ही ठान लिया था कि बनना तो कलक्टर ही है. हालांकि मेरे जानने वालों में दूर-दूर तक कोई ऐसा नहीं था, जो मुझे गाईड कर सके. घर में आर्थिक समस्या भी थी. कमाने वाले अकेले मेरे पापा थे. और मैं ये भी नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से मेरे भाई-बहनों की पढ़ाई रूके. ऐसे में मैंने प्राईमरी एजुकेशन में ‘बेसिक ट्रेनिंग सर्टिफिकेट’ लिया. मेरी ये ट्रेनिंग जनवरी 2013 से जून 2015 तक चली. इसी बीच मैं 21 साल की हो गई. बग़ैर किसी तैयारी के 2014 का यूपीएससी दिया. मैं तो इसी बात से खुश थी कि मैंने यूपीएससी का एग्ज़ाम दिया है. 2015 में ट्रेनिंग मुकम्मल होने पर सिर्फ़ एक महीने पढ़कर फिर से यूपीएससी दिया. इसी बीच पापा का ट्रांसफर भी नैनी में हो गया. 2016 में मुझे सहायक अध्यापक की नौकरी भी मिल गई. लेकिन इस बार भी थोड़ा-बहुत पढ़कर एग्ज़ाम दिया था और इंटरव्यू तक पहुंच गई.

वो बताती हैं कि, दो साल से नुमायाडाही कौड़िहार के एक प्राईमरी स्कूल में टीचर हूं. ये नौकरी मेरे लिए बहुत ज़रूरी थी. क्योंकि मेरा सपना बहुत बड़ा था. अब मैं अपनी कमाई से अपने लिए किताब खरीद पा रही थी. अपने खर्च पर दिल्ली आ पा रही थी.

तैयारी के बारे में पूछने पर शीरत बताती हैं कि, मेन्स लिखने के लिए कभी-कभी इलाहाबाद से दिल्ली हमदर्द स्टडी सर्किल आया करती थी. इस बीच एक बार ज़कात फाउंडेशन और जामिया मिल्लिया इस्लामिया का मौक टेस्ट भी दिया. लेकिन मैंने कभी इन संस्थानों से किसी भी तरह कोई फाईनेंशियल हेल्प नहीं ली. ज़्यादातर पढ़ाई घर पर रहकर ही की. ‘द हिन्दू’ अख़बार रोज़ पढ़ती थी. फिर हंसने लगती हैं. हंसने की वजह पूछने पर कहती हैं कि, आप लोग तो ताज़ी-ताज़ी ख़बर पढ़ लेते थे, मुझे बासी ख़बर पढ़ने को मिलती थी. क्योंकि यहां अख़बार तो एक दिन लेट ही आता था. हालांकि अब हर दिन आने लगा है.

वो आगे बताती हैं कि, दिन में स्कूल के बच्चों को पढ़ाती थी, फिर घर आकर अपने पढ़ाई में लग जाती. इस बीच अब से चार महीने  मेरी शादी हो गई. तब मेरा मेन्स हो चुका था. और अब मेरा चयन हो चुका है. मुझे यह कामयाबी चौथी कोशिश में मिली है. लेकिन मेरी ख़्वाहिश कलक्टर बनने की थी और अब भी यही ख़्वाहिश है. इस बार मैं सिरियसली एग्ज़ाम दूंगी और इंशा अल्लाह कलक्टर ज़रूर बनूंगी. अपने पापा को गिफ्ट जो देना है.

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शीरत इस कामयाबी का क्रेडिट अपने पति आदिल शमीम को भी देना चाहती हैं. ये इलाहाबाद हाई कोर्ट में रिव्यू ऑफिसर हैं. वो कहती हैं कि, पति के साथ-साथ ससुराल के लोगों ने भी इन चार महीने काफ़ी सपोर्ट किया है.

इस परीक्षा के लिए कौन सा विषय लिया था और क्यों? तो इस सवाल के जवाब में शीरत बताती हैं कि, मैंने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन लिया था. क्योंकि एजुकेशन कोई सब्जेक्ट था ही नहीं. पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन मुझे फ़ायदेमंद लगा और मुझे इसके बारे में जानना भी था. मेरी इस सब्जेक्ट में दिलचस्पी थी.

यूपीएससी की तैयारी करने वालों को क्या संदेश देना चाहेंगी? इस सवाल पर शीरत बताती हैं कि, तक़दीर को सिर्फ़ तदबीर से ही बदला जा सकता है. ये ज़रूरी नहीं कि सपने सिर्फ़ शहर के अमीर लोग ही देखें, गांव के गरीब भी देख सकते हैं. कोई चीज़ नामुमकिन नहीं है. अगर मैं कर सकती हूं तो सब कर सकते हैं. 

मुसलमानों को लेकर अपने जज़्बात शेयर करते हुए शीरत कहती हैं कि, हमारे यहां 80 फ़ीसदी लोग तो ऐसे हैं जो सोचते हैं कि भारत में मुसलमानों का कुछ नहीं हो सकता. जैसे हैं, वैसे ही रहेंगे. हालांकि 20 फ़ीसद हमारी क़ौम में ऐसे भी हैं कि जो सोचते हैं कि तालीम चीज़ें बदल सकती हैं. लेकिन अफ़सोस, हमारे इलाक़े में लड़कियां तो दरकिनार, लड़के भी पढ़े-लिखे नहीं हैं. मैं अपनी खानदान में पहली लड़की हूं जो सिविल सर्विस में जा रही है. उम्मीद है कि अब मेरे खानदान में भी लोगों की सोच बदलेगी कि पढ़ने से बहुत कुछ हो सकता है. ख़ासतौर पर लड़कियों की तालीम ज़रूरी है. दरअसल, ये तालीम ही है जो हमारी ज़िन्दगी में तब्दीली ला सकती है.

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शीरत से सोशल मीडिया के इस्तेमाल के बारे में पूछने पर बताती हैं कि, सोशल मीडिया पर मैं खुद ज़्यादा एक्टिव नहीं हूं. लेकिन लोगों की लिखी बातों को देखती रहती हूं. इसका मुझे फ़ायदा भी मिला है. फेसबुक पर ही एजुकेशन को लेकर एक कहानी और कुछ कोटेशन पढ़े थे, जो मुझे काफ़ी अच्छे लगे. और फिर अपने मेन्स में एक सवाल के जवाब में वो काम भी आ गया. अगर कोई भी इसका पॉज़िटिव इस्तेमाल करें तो बहुत फ़ायदा है.

आख़िर में कहती हैं कि, मैं ख़ास तौर पर शादीशुदा लड़कियों से कहना चाहुंगी कि शादी कभी किसी काम या सफलता में रूकावट नहीं होती, बस ये सही इंसान से होनी चाहिए. लड़कियां ये सोचें कि शादी के बाद ज़िन्दगी ख़त्म हो जाती है, बल्कि असल ज़िन्दगी तो शादी के बाद शुरू होती है.

25 साल की शीरत को स्कूल के दिनों से ही डिबेट और स्टैंडअप कॉमेडी करना पसंद है. फिल्मों से कोई ख़ास लगाव नहीं है, लेकिन इन्होंने तैयारी के दौरान मसान और मांझी फिल्म देखी थी. मांझी ने इन्हें काफ़ी हौसला दिया. वो हमेशा इस बात को सोचने लगी कि जब एक इंसान पत्थर काट कर सड़क बना सकता है, तो मैं एक एग्ज़ाम क्यों नहीं निकाल सकती. शीरत ने अकबर इलाहाबादी को पढा़ है और इन्हें उनका ये शेर पसंद है —

खुश हैं सब कि ऑपरेशन में खूब नश्तर ये चल रहा है

किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है     

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