तो क्या यह चुनाव व्हाट्सएप पर लड़ा जा रहा है…
नासिरूद्दीन
एक फोटो आती है. देखते ही देखते ही हम सबके मोबाइल में घूमने लगती है. चर्चा और टिप्पणियाँ होने लगती हैं. यह फोटो क्या है… कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी लोगों के बीच हैं. उनके गले में एक हार है. हार में क्रॉस है. क्रॉस यानी ईसा मसीह की निशानी. यानी इंसानियत को बचाने की खातिर बलिदान की निशानी.
…तो इसमें चर्चा की कौन सी बात है. इस मुल्क में क्रॉस पहनना कोई अपराध तो है नहीं. ढेर सारे नौजवान फैशन में क्रॉस पहनते हैं. मगर हम इसके साथ के संदेश को जब तक नहीं देखते हैं तब तक इस फोटो की चर्चा की वजह नहीं पता चलती है. इसके साथ जो संदेश दिए गए उसका लब्बोलुबाब यह था कि प्रियंका ने अभी लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मंगलसूत्र की जगह क्रॉस वाला नेकलेस पहना है. एक संदेश में था कि वह बनारस जाती हैं तो रुद्राक्ष पहन लेती हैं और केरल जाते ही क्रॉस. एक दूसरी और सबसे अहम बात थी मगर जिसका जिक्र खुलकर नहीं था. वह देखने और पढ़ने वालों के दिमाग पर छोड़ दिया गया था. वह था, प्रियंका के धार्मिक अकीदे पर शक पैदा करना. देखते ही देखते यह फोटो कई प्लेटफॉर्म पर वायरल हो गया.
गूगल रिवर्स इमेज सर्च के जरिए जब इसकी तलाश शुरू की गयी तो यह तस्वीर कुछ और ही सच सामने लेकर आयी. प्रियंका की हू ब हू ढेर सारी तस्वीरें मिलीं मगर उनमें यह क्रॉस ही नहीं है. उसकी जगह सफेद गोल लॉकेट दिख रहा है. इस तस्वीर की कई अन्य साइट ने गहन पड़ताल की है. हमें यह तस्वीर एक साइट (हफिंगटन पोस्ट) पर दिखी. वहाँ से इस तस्वीर के मूल का पता चला. यह तस्वीर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान 17 फरवरी 2017 की रायबरेली की है. यानी यह तस्वीर दो साल पुरानी थी और इसमें क्रॉस वाला नेकलस भी नहीं था.
यह सिर्फ एक बानगी है. लोकसभा चुनाव के एलान के साथ ही सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरों, वीडियो, भ्रामक तथ्यों वाले पोस्टों की बाढ़ आ गयी है. ऐसे झूठे संदेश (फेक न्यूज) फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और सबसे बढ़कर व्हाट्सएप के जरिए हमारे मोबाइल में पहुंच रहे हैं. मोबाइल से हमारे दिल और दिमाग पर छा रहे हैं. ये चुनावी संघर्ष का एक बड़ा मैदान बन रहे हैं. भारत के लोकसभा चुनाव के इतिहास में पहली बार जमीनी लड़ाई के अलावा मोबाइल में भी घमासान हो रहा है. यह चुनाव अगर व्हाट्सएप चुनाव के रूप में भी याद किया जाए तो ताज्जुब नहीं है. व्हाट्सएप चुनाव यानी नफरती चुनाव.
मुमकिन है, हमें ध्यान हो कि लोकसभा चुनाव की घोषणा से कई महीने पहले व्हाट्सएप पर चुनाव की तारीखों का संदेश घूमने लगा था. इसमें किस दिन, किस राज्य में चुनाव होंगे, इसकी पूरी सूची थी. हम सब बिना सोचे-समझे इसे एक-दूसरे को बढ़ाते रहे. किसी ने यह नहीं सोचा कि आयोग चुनाव का एलान व्हाट्सएप पर सिर्फ उनके इनबॉक्स में नहीं करेगा. यह सार्वजनिक एलान होगा. यही नहीं, फॉरवर्ड करने की जल्दबाजी में इस संदेश में ही फेक होने के संकेत को भी हम लोगों ने नजरंदाज कर दिया. जैसे-इसमें कई राज्यों के नाम ही गलत तरीके से लिखे गये थे.
या ठीक इसी तरह से कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ करता एक अनजान शख्स का वीडियो फैला. तारीफ करना अच्छी बात है. बुरा यह है कि उस शख्स को वह बताना जो वह है नहीं. बताया गया कि वह कांग्रेस नेता सचिन पायलट के ससुर हैं. हालांकि असलियत में वह नहीं थे. ज्यादातर लोग सचिन पायलट के ससुर को नहीं पहचानते हैं. इस का फायदा उठाकर यह छवि पेश करने की कोशिश की गयी कि कांग्रेस के एक नेता का करीबी रिश्तेदार प्रधानमंत्री का प्रशंसक है.
ऐसा नहीं है कि झूठ सोशल मीडिया के आने से पहले नहीं फैलते थे. बात 2010 की है. आगरा में अचानक एक शाम मुसलमानों का एक बड़ा तबका सड़क पर उतर आया. हल्ला हुआ कि नाइकी कम्पनी के जूते पर अल्लाह लिखा है. आगरा के बड़े जूते की दुकानों पर तलाश करने के बाद भी ऐसा कुछ नहीं मिला. बहुत खोज के बाद एक धुंधली सी फोटोकॉपी किसी के हाथ में मिली. उसी के आधार पर लोग बावले होकर सड़क पर उतरे हुए थे. भला हो इंटरनेट का. पता चला कि यह मामला 1997 का है. नाइकी के डिजायन से कुछ लोगों को भ्रम हुआ कि यह अरबी के अल्लाह से मिल रहा है. खाड़़ी देशों में एतराज के बाद नाइकी ने सारे जूते बाजार से वापस मंगा लिये और अनजाने में हुई किसी भी गलती के लिए माफी माँगी. मामला खत्म हो गया. इसके 13 साल बाद यह मामला भारत के एक शहर में कहाँ से पैदा हुआ? किसने शुरू किया? किसे इससे फायदा था? शुक्र है, व्हाट्सएप का दौर भारत में शुरू नहीं हुआ था और सोशल मीडिया के नफरती ताक़त का अहसास होना बाकी था. अगर तकनीक साथ होती तो क्या होता … हम अंदाजा लगा सकते हैं.
अगर सोशल मीडिया पर होने वाला चुनावी प्रचार / घमासान सिर्फ अपने उम्मीदवार या पार्टी के विचार तक सिमटी होती तो कोई बात नहीं थी. सिर्फ सामान्य तरीके का झूठ भी होता तो भी शायद बहुत फर्क नहीं पड़ता. मगर इस झूठ ने अब खतरनाक रूप ले लिया है. इस झूठ के साथ नफरत है. नफरत के साथ हिंसा के लिए उकसावा है. जैसे-जैसे चुनाव के दिन नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे झूठे संदेशों की रफ्तार हमारे मोबाइल में बढ़ती जा रही है. प्रियंका गांधी के नेकलेस का मामला सिर्फ झूठ नहीं है. वह नफरती झूठ है.
जाहिर है कि अगर कोई व्यक्ति/समूह/ संगठन/ पार्टी झूठ के साथ नफरत परोस रही है तो उसे इससे फायदा होने की उम्मीद होगी. तब सवाल है इस नफरत से किस शख्स, समूह, संगठन, पार्टी को फायदा हो रहा है. क्या हमने ऐसे संदेशों को इस नजरिये से देखने की कोशिश की है. हमने कभी यह सोचने की कोशिश नहीं ये झूठे संदेश क्या हैं? क्यों हैं? कहां से आते हैं? इनका असली मक़सद क्या है?
एक और ताजा उदाहरण देखते हैं. कांग्रेस पार्टी ने तय किया कि उनके अध्यक्ष राहुल गांधी दक्षिण भारत के केरल में वायनाड सीट से भी चुनाव लड़ेंगे. उसके बाद नफरती संदेशों का सिलसिला शुरू हो गया. एक वीडियो आया. इसमें नारे लग रहे हैं. कांग्रेस के तिरंगे के साथ हरे झंडे दिख रहे हैं. झंडे पर चांद तारा भी है. बताया गया कि राहुल गांधी के चुनाव लड़ने के एलान से खुश होकर पाकिस्तानी झंडे लगे हैं. इसी के साथ यह भी जोर-शोर से बताया गया कि राहुल गांधी इसलिए वहां से चुनाव लड़ रहे हैं क्योंकि वहां मुसलमान ही मुसलमान हैं. यही नहीं, हरे रंग में रंगे एक-दो बिल्डिंग की तस्वीर भी आयी. उसे कांग्रेस का दफ्तर बताया गया.
ये संदेश एक इनबॉक्स से दूसरे इनबॉक्स में घूमते रहे. सच एकदम उलट है. केरल में कांग्रेस, यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) का हिस्सा है. इसमें एक पार्टी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग भी है. मुस्लिम लीग का झंडा हरा है और उस पर चांद तारा भी है. जुलूस में उसी पार्टी के झंडे थे. उसी का दफ्तर हरे रंग से रंगा है. यही नहीं, वायनाड में दूसरे जगह की तुलना में मुसलमानों की तादाद ज्यादा है लेकिन वहाँ हिन्दू भी हैं, ईसाई भी हैं, आदिवासी भी हैं. मगर हम सबके लिए एक सोचने वाला सवाल है कि क्या इस देश का नागरिक कहीं से भी चुनाव नहीं लड़ सकता है? क्या एक समुदाय/ समूह के लोग अगर कहीं ज्यादा हों तो वहां से चुनाव लड़ना अपराध है? अगर गुजरात से आकर बनारस से चुनाव लड़ना किसी के लिए अपराध नहीं है तो राहुल गांधी के लिए वायनाड से चुनाव लड़ना खास तरह की नफरती बहस का मुद्दा क्यों होना चाहिए? हम कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं? हम चुनाव में कैसा लोकतांत्रिक विमर्श पैदा कर रहे हैं?
ये सब बातें आपस में जुड़ी हैं. इनमें कुछ समूह/समुदाय/ रंग दुश्मन की तरह पेश हैं. इन संदेशों का मक़सद नफरती विचार फैलाना है और वह विचार वायनाड के बाहर देश के दूसरे हिस्से में फैले लोगों के लिए है.
मगर झूठ का तंत्र इतना व्यापक और मजबूत है कि जब तक लोगों को सचाई पता चलती है, तब तक वह अपना काम कर चुका होता है. ऐसे संदेशों का आधार झूठ, आधा सच और पूरी तरह अफवाह है. इसने समाज बाँटा है. यह परिवार बाँट रहा है. व्हाट्सएप पर बने परिवारी ग्रुप में होने वाले बँटवारे, घरों में होने वाली वैचारिक टकराव में यह साफ देखा जा सकता है.
याद कीजिए… 2013. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले की बात है. वहां तीन नौजवानों की हत्याएं होती हैं. इन्हें साम्प्रदायिक रंग देने की कई दिनों तक कोशिश होती है. फिर एक हिंसा का भयानक वीडियो फेसबुक पर आता है. इसे दो भाइयों की मुसलमानों के हाथों हत्या का वीडियो बताया गया. इस वीडियो को भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने भी अपने एकाउंट से साझा किया. देखते ही देखते यह वीडियो दसियों लोगों ने साझा कीं. इसने मुजफ्फरनगर को दंगे की आग में झोंक दिया. सच क्या था. यह वीडियो पाकिस्तान के सियालाकोट का था.
याद ही होगा कि इसी साम्प्रदायिक हिंसा के बाद 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ था…. और 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में चौथे नम्बर पर रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पहले नम्बर की पार्टी बन गयी. देखा जाये तो यह फेसबुक/ सोशल मीडिया से उपजी नफरत और इसके बाद फैली हिंसा का नतीजा थी.
हमारे मुल्क में सोशल मीडिया नाम के तकनीक के आधार पर झूठ और नफरत के जरिये लोकतंत्र को काबू में करने का पहला बड़ा उदाहरण है.
इसीलिए यह लोकसभा चुनाव इस बात की कसौटी बनेगा कि क्या हम किसी पार्टी या समूह या शख्स को अपने लोकतंत्र को इस तरह काबू में करने की इजाजत देंगे. हमने इसके संकेत हाल में दो अहम घटनाओं के मौके पर बहुत साफ-साफ देखें हैं. तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत के साथ ही चंद घंटों में बड़े पैमाने पर फेक संदेशों की बाढ़ आ गयी थीं. इनमें ज्यादातर संदेश नफरत आधारित थे. उसी तरह पुलवामा आतंकी हमले के बाद भी फेक संदेशों की बाढ़ आयी.
अब तक के जो संकेत हैं, 23 मई 2019 से पहले हमें ऐसे संदेशों की बाढ़ नहीं सुनामी झेलनी होगी. इससे रोकना फिलहाल मुमकिन नहीं लग रहा है. बेहतर है इसकी चपेट में आने से बचने की हर मुमकिन कोशिश की जाये. इसके लिए हर वीडियो, हर तस्वीर, हर संदेश को शक की निगाह से देखना होगा. अपने फॉरवर्ड करने वाली उंगलियों को थाम कर रखना होगा. हम सभी को फेक न्यूज से लड़ने वाला सिपाही बनना होगा.
झूठ इंसानी समाज का हमेशा से हिस्सा रही है. इसीलिए सच की बार-बार दुहाई देनी पड़ती है. सच इंसानी जिंदगी की वह चोटी है, जिस तक पहुंचना एक बेहतर इंसान होने का पैमाना होता है. अगर हम बेहतर लोकतंत्र चाहते हैं तो बेहतर इंसान बनना जरूरी है. इस चुनाव में बेहतर इंसान बनने और दिखने का एक पैमाना यह भी होगा कि हम कितने फेक न्यूज से खुद बचते हैं और दूसरों को बचाते हैं. कितने झूठ का पर्दाफाश करते हैं. कितना सच दुनिया के सामने लाते हैं. झूठ पंख लगाकर उड़ता है. व्हाट्सएप का झूठ तो जेट की रफ्तार से उड़ान भरता है. हमें सच की रफ्तार तेज करनी होगी.
(यह लेख संडे नवजीवन से साभार है)