यह भी अशोक साहिल ने लिखा था उन्हें ऐसे कुछ बहुत यादगार अशआर लिखने के लिए जाना चाहता है। उनकी भी आज मौत हो गई। कोरोनाकाल मे ऐसे ही बेहद बुरी खबरों के बीच यह भी एक ख़बर है। अशोक साहिल से जुड़ी यादों पर महमूद रियाज़ हाश्मी लिख रहे हैं।
मुझे बचपन से साहित्यिक, अदबी किताबें पढ़ने और मुशायरे सुनने का शौक रहा है। करीब 25 बरस पहले अशोक ‘साहिल’ को मैंने सहारनपुर के मेला गुघाल के ऑल इंडिया मुशायरे में पहली बार सुना था। ‘कमंद चांद सितारों पे डाल सकता हूं, समंदरों को तहों तक खंगाल सकता हूं। मेरे वुजूद को इंचों मे नापने वालों, मैं बूंद बूंद से दरिया निकाल सकता हूं।’ तब से लेकर आज तक उनके अशआर जहननशीं हैं। फिर इसके बाद दैनिक जागरण में भाई राजन शर्मा की बदौलत मुजफ्फरनगर में मेरठ से सहारनपुर आते-जाते अक्सर अशोक भाई से मुलाकात होती थी। जिला महिला अस्पताल में उनकी पत्नी सीएमएस थीं और वे अस्पताल के आवासीय परिसर में ही रहते थे। फकीरी मिजाज का यह शख्स अपनी सोच का कितना बड़ा शहंशाह था, इसका हर मुलाकात करने वाला सहज ही लगा लेता था। उर्दू अदब की जितनी खिदमत अशोक साहिल ने की, वह बेमिसाल है।
एक बार मुझे अशोक साहिल को नजदीक से जानने की उत्सुकता हुई और मैंने राजन भाई से इसका जिक्र किया तो वह मुझे मेरठ से लौटते हुए एक शाम उनके घर ले गए। छोटे से कमरे में सोफे के सामने पड़ी टेबल पर कुछ हिंदी अखबार बेतरतीब से पड़े हुए थे। प्रिंटिंग से बचे हुए अखबार के खाली हिस्से पर पैन से बेहद बारीक राइटिंग में हर उस जगह लिखा हुआ था, जहां जरा सा भी स्पेस था। मैंने एक अखबार उठाया और देखा तो उन पर अशआर लिखे हुए थे। राजन भाई ने अशोक साहिल की तरफ इशारा करते हुए बताया, “ये रात में लिखते हैं और जहां तहां छोड़ देते हैं। सुबह भाभी इन्हें इकट्ठे करके रख देती हैं। फिर दोपहर बाद ये इन्हें तरतीब से लिखते हैं।” अखबारों के हाशियों पर वे तमाम अशआर अशोक साहिल के हाथों उतारे गए जिनमें पूरे समाज का दर्द भी है और रहनुमाई भी। जो साझा हिंदुस्तान भी बन गए और गंगा-जमुनी तहजीब भी। जो रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी की उर्दू अदब की परंपरा की विरासत का शजरा भी हैं।
इसके बाद अशोक ‘साहिल’ से ऐसे मरासिम बने कि किसी न किसी बहाने से गुफ्तगू हो ही जाती थी। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि उन्होंने अपने ही अशआर की याददहानी के लिए फोन किए। ‘जहां हर गाम पर आतिशफिशां लावा उगलते हैं, हम उन रास्तों पर रोज़ नंगे पांव चलते हैं। तारीख गवाह है हमारे अहद की, क़ज़ा आने से पहले चींटियों के पर निकलते हैं।’ इस शेर से अशोक साहिल की शख्सियत का अंदाज़ बखूबी लगाया जा सकता है। रूहानी शायरी पर उनकी पकड़ किसी आलिम फ़ाज़िल से कहीं ज्यादा थी। उनका एक ऐसा ही तसव्वुर देखिए”
‘ना सुबूत है ना दलील है, मेरे साथ रब्बे जलील है। तेरी रहमतों में कमी नहीं, मेरी ऐहतियात में ढील है। तेरा नाम कितना है मोअतबर, तेरा ज़िक्र कितना तवील है। मुझे कौन तुझसे जुदा करे, मैं अटूट प्यास तू झील है। तेरे फैसलों से हूं मुतमईन, ना मुतालबा न अपील है।’ श्री श्री रविशंकर अक्सर अपने प्रवचनों में इन पंक्तियों से ही शुरूआत करते हैं। अशोक साहिल अक्सर इस बात को कहते थे,
सामाजिक गैर बराबरी पर अक्सर वह ऐसा तंज कर जाते थे कि वैसी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। इन चार पंक्तियों में उन्होंने जो बात कही, उसे चार सौ शब्दों में भी नहीं समेटा जा सकता है। ‘वो खुदकुशी की सलीबों पे झूल जाती है, जो क़ौम अपनी रिवायत को भूल जाती है। फ़क़ीरे शहर ज़रा इस तरफ से धीरे चल, अमीरे शहर के बंगले में धूल जाती है।’ डॉ. राहत इंदौरी से अशोक साहिल के बेहद करीबी मरासिम थे। राहत इंदौरी ने हमेशा इनकी मुशायरों में प्रमोट करने में मदद की, जिसका अशोक साहिल अक्सर जिक्र करते थे। आज अशोक साहिल हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनकी शायरी हमेशा जि़ंदा रहेगी। उनका एक शेर,’दुनिया की रौनकों ने यहीं का बना लिया, हम इस ज़मीं पे काटने आए थे एक रात’ पूरी जिंदगी का मुख़्तसर से फ़साना ब्यान करने के लिए काफी है।
अलविदा अशोक साहिल, आप उर्दू अदब का एक ऐसा दरख़्त थे जिसके साए में न जाने कितने लोग सुकून हासिल करते थे। आप मुशायरों की दुनिया को छोड़ भले छोड़ गए, लेकिन शायरी के फलक पर हमेशा जिंदा रहोगे। आप ही ने लिखा था, ‘अब इससे पहले कि दुनिया से मैं गुज़र जाऊं, मैं चाहता हूँ कोई नेक काम कर जाऊं। मेरे अज़ीज़ जहॉ मुझसे मिल नहीं सकते, तो क्यूं न ऐसी बुलंदी से ख़ुद उतर जाऊं।’ सच तो यह है कि इस बुलंदी से अब आपको कोई उतार नहीं पाएगा।