गरीबों के लिए पढ़ाई नहीं होती है सर!” घर की जिम्मेदारियों में छूट रही पढ़ाई।

दरभंगा से जिब्रानउद्दीन। Twocircles.net 

“आधी रोटी खाएंगे, पर स्कूल जायेंगे” सर्व शिक्षा अभियान पर ये नारा जहां एक तरफ बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता है तो वहीं दूसरी तरफ समाज के गरीब और पिछड़े तबकों के बदहाली की कहानी का दुखड़ा भी रो देता है। सवाल है कि जिनके घरों में आधी रोटी होगी उनका गुज़ारा कैसे होगा ! बच्चे उस आधी रोटी को खाकर स्कूल जाएं या उनके मां बाप काम पर।


Support TwoCircles

बिहार के दरभंगा जिला में रहने वाले मोहम्मद सैफ़, फिरोज़ अहमद, ताज उद्दीन, मोहम्मद सलमान और दिलशाद आलम की कहानियां भी कुछ ऐसी ही हैं। उस आधी रोटी ने इनसे इनका बचपन तो छीना ही, अब जवानी को भी छीन लेने के प्रयास में है। इन सभी बच्चों में एक बात सामान्य है कि कोई भी अपनी पढ़ाई पूरी न कर सका है । वजह भी तकरीबन सबकी सामान्य है और वो है घर की ज़िम्मेदारी।

मोहम्मद सैफ़ अपने पिता मोहम्मद हुसैन का घरों को रंगने में हाथ बटातें हैं। उनकी माता और बड़े भाई विकलांग हैं। महज़ 18 साल की उम्र में उनके कंधों पर परिवार के 6 सदस्यों की जिम्मेदारियां आ चुकी हैं। वो बताते हैं, “मैंने 13 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़  था, स्कूल वाले शाम 4 बजे से पहले छुट्टी नहीं देते थे और घर पर दो छोटी बहने थी। पापा अक्सर काम पर रहते थें लेकिन उसके बाद भी घरवालों के पालन पोषण में काफी दिक्कतें आ रही थी। क्या करते, ऐसे भी गरीबों के लिए पढ़ाई नही होती है सर।” सैक ने बताया की उन्हे आगे पढ़ने का बहुत मन था लेकिन  घर की देखभाल और पैसों की कमी के कारण उन्हे पढ़ाई को बीच में ही छोड़ कर काम करना शुरू करना पड़ा।

“अब्बा के मरने के बाद मेरे घर में सिर्फ बड़ा भाई मोहम्मद सरफराज ही पैसे कमाया करता था” फिरोज़ अहमद (17 वर्ष) ने ईंट उठाते हुए नम आंखों से बताना शुरू किया, “पढ़ाई छोड़ने का निर्णय मेरा अपना था, हालांकि अभी भी पढ़ना चाहता हूं लेकिन फिर घरवालों का क्या होगा और एक बहन की शादी होनी भी बची है।” लॉकडाउन के समय बिहार पलायन करने वाले लोगों में एक फिरोज़ भी थें। वो मुंबई में बैग बनाने का काम किया करते थे जिससे ग्यारह से बारह हज़ार मेहनताना मिलता था। फिरोज़ बताते हैं, “पढ़ाई तो अब बहुत दूर की बात लगती है। मुंबई में कुछ पैसों को पास रखकर बाकी अपने घर भिजवा दिया करता था, लेकिन लॉकडाउन के बाद तो वो भी नही बचा इसलिए अब यहीं छोटी मोटी मजदूरी कर लिया करता हूं।”

फिरोज़ के ही साथ मजदूरी का काम कर रहे 18 वर्ष के ताज उद्दीन खुद के बारे में बताने से हिचकिचा रहे थे। वजह थी के काम के समय बात करता देख उनका मालिक उन्हे डांट न दें। फिर बाद में जब भरोसा दिलवाया गया तो उन्होंने बताया की उनके परिवार में 8 व्यक्ति हैं और पिताजी किसी गैराज में काम करते हैं। फिलहाल तो उन्हें मिलाकर घर पे कमाने वालों की संख्या 3 है। लेकिन 5 साल पहले जब उन्हे अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी तब अकेले उनके पिता दिन रात मेहनत किया करते थे। उन्होंने बताया की “उनका परिवार तीन बहनों की शादी के बाद अच्छे खासे कर्ज में चल रहा है।” फिरोज़ की तरह ही ये भी लॉकडॉउन में पलायन करके लुधियाना से वापस बिहार आएं थे। वहां ये अपने भाई के साथ दर्जी का काम किया करते थे।

दरभंगा शहर के निकट ही एक मुर्गे की दुकान चला रहे 17 वर्ष के मोहम्मद सलमान की कहानी भी बाकी बच्चों की तरह ही है। 13 वर्ष की उम्र में अपनी पढ़ाई छोड़ने के बाद वो आज 4 सालों से मुर्गा बेचने का काम कर रहे हैं। “अब्बू फोटोस्टेट की छोटी दुकान से जो कुछ कमा पाते थे उससे 5 बहन और 4 भाइयों के साथ अम्मी का गुज़ारा काफी मुश्किलों से हो पता था। बड़े दो भाइयों ने भी अपनी पढ़ाई छोड़ी थी” सलमान ने आगे बताया “तभी मैंने भी हाथ बटाने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी और मुर्गे की दुकान खोलकर बैठ गया” सलमान के अनुसार वो रोज़ इतना कमा लेते हैं की परिवार भूखे पेट नही सोता है। अभी उनकी बहनों की शादी होनी बाकी है।

15 साल के दिलशाद आलम को सरकारी स्कूलों की पढ़ाई अच्छी नहीं लगती थी। वो प्राइवेट स्कूलों में जाना चाहते थे, लेकिन दर्जी का काम करते हुए उसके पिता मोहम्मद आलम के लिए ये काफी मुश्किल था। दिलशाद का नाम अभी भी सरकारी स्कूल में नामांकित है ताकि ‘मिड डे मिल’ योजना का लाभ उठाकर कम से कम एक समय का खाना जुटाया जा सके। हालांकि दो सालों से वो स्कूल नहीं गए हैं। 75% से काम हाजरी की वजह से बाकी योजनाओं के तहत मिलने वाली रकम से भी वो महरूम हैं। “दोनो भैया शादी के बाद अपनी बीवी के साथ अलग रहते हैं, घर की जिम्मेदारी अकेले अब्बा पर ही आ गई थी।” दिलशाद ने बताया, पास के ही एक नाई के दुकान में दिन भर मेहनत करने के बाद रात तक मुश्किल से 100 रुपए कमाई हो जाती है। दिलशाद 13 सदस्यों के परिवार के पालन पोषण में अपने पिता की मदद करने की कोशिश करते हैं।

ऐसे न जाने कितने बच्चे मिल जायेंगे बिहार की हर गलियों  में जिन्हे मुफ्त शिक्षा और सरकार की लुभावनी योजनाएं भी स्कूलों में बांधकर न रख सकीं हैं। वजह साफ हैं की अगर घर का चूल्हा ही नही जलेगा तो पढ़कर क्या कर लेंगे। शिक्षा तो मुफ्त है लेकिन घर की जिम्मेदारियों का क्या !

एक आंकड़े के मुताबिक कोविड लॉकडाउन की वजह से सबसे ज्यादा बिहार में अबतक 10 लाख बच्चों ने सरकारी स्कूलों को छोड़ दिया है। गिरावट की ये कोई नई संख्या नहीं है ऐसी ही संख्या लॉकडाउन से पहले भी हर साल की आखिर में देखने को मिल जाया करती है। हाल ही मे बिहार के शिक्षामंत्री विजय कुमार चौधरी ने भी स्वीकार किया कि बिहार राज्य में शिक्षा का स्तर राष्ट्रव्यापी रैंकिंग में निम्न स्तर पर है।

2017-18 में आयोजित शिक्षा के ऊपर सामाजिक उपभोग पर राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा सर्वेक्षण से पता चलता है की 6 से 13 वर्ष की उम्र के बच्चों का प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन लेने का अनुपात तकरीबन 99.2 था। लेकिन यही अनुपात माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर नीचे गिरकर 78.8 हो गया। यानी के पूरे भारत में तकरीबन 10% बच्चे प्राथमिक विद्यालय से आगे नही बढ़ सके। यही संख्या माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में बढ़कर 17.5% और 19.8% हो गया।

छात्रों का स्कूलों को छोड़ने की क्या वजह है ! क्या ये वित्तीय बाधाओं की वजह से है !  या घरेलू गतिविधियों में संलग्नता इसके प्रमुख कारण हैं !

सर्वेक्षण के अनुसार शिक्षा में रुचि न होने की वजह से स्कूलों को छोड़ने का हवाला सिर्फ 18.8% पुरुष और 14.8% महिलाओं ने ही दिया। जबकि 61.2% पुरुषों ने आर्थिक तंगी का हवाला दिया और 47.9% महिलाओं ने वित्तीय बाधाओं या घरेलू गतिविधियों को इसका ज़िम्मेदार ठहराया।

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE