आकिल हुसैन। Twocircles.net
उत्तर प्रदेश में मैनपुरी लोकसभा सीट, रामपुर और खतौली विधानसभा सीट पर उपचुनाव हो रहें हैं। तीनों सीटों पर मुख्य मुकाबला बीजेपी और समाजवादी पार्टी का हैं। कांग्रेस और बसपा ने इन उपचुनाव से दूरी बनाकर रखी है। बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी न होने से अब इन तीनों सीटों पर सबकी नजरें दलित वोटरों पर आकर टिक गई है क्योंकि तीनों सीटों पर दलित वोट अच्छी भूमिका में हैं। वैसे अगर यूपी के कुछ पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों की बात करें तो बसपा का कोर वोटर दलित बसपा से अलग थलग पड़ गया है। लेकिन उसके बावजूद भी दलितों का एक बड़ा वर्ग आज भी बसपा को वोट करता है। खतौली विधानसभा सीट पर भीम आर्मी प्रमुख और दलित नेता चंद्रशेखर आजाद ने आरएलडी कैंडिडेट का समर्थन किया है। चंद्रशेखर आज़ाद का सपा गठबंधन कैंडिडेट को समर्थन मैनपुरी और रामपुर में भी दलितों के बीच असर डाल सकता है।
मैनपुरी में दलित वोटर तय करेंगे जीत की राह
मैनपुरी लोकसभा सीट पर मुलायम सिंह यादव के निधन के चलते उपचुनाव हो रहें हैं। यहां मुकाबला सपा प्रत्याशी डिंपल यादव और बीजेपी के रघुराज सिंह शाक्य के बीच हैं। मैनपुरी लोकसभा सीट पर सन् 1996 से समाजवादी पार्टी का ही कब्ज़ा हैं। उसके पहले भी यहां से समाजवादी दलों के सांसद रहे हैं। बीजेपी को अभी तक मैनपुरी में जीत नसीब नहीं हुईं हैं। मैनपुरी लोकसभा सीट पर यादव और शाक्य वोटर की संख्या के बाद यहां दलित वोटरों की संख्या हैं। दलित मतदाताओं की संख्या लगभग यहां 1 लाख 80 हज़ार के करीब है।
समाजवादी पार्टी ने मैनपुरी में चुनाव हमेशा जातीय आधार पर लड़ा हैं और यहीं वज़ह रहीं हैं कि किसी की भी आंधी या लहर में यहां सपा को कोई हरा नहीं पाया हैं। मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद हो रहें उपचुनाव में बसपा ने प्रत्याशी नहीं उतारा है। मैनपुरी का लगभग 1.80 लाख दलित किस ओर करवट लेगा यह देखना दिलचस्प होगा। बसपा को कभी मैनपुरी में जीत हासिल नहीं हुई है लेकिन बसपा ने अपने दलित वोटरों के सहारे अच्छा प्रदर्शन किया हैं।
पिछले कई चुनाव के आंकड़ों पर जाए तो बसपा मैनपुरी लोकसभा सीट पर लोकसभा के पिछले 5 चुनावों में बसपा यहां दो बार तीसरे स्थान पर रहीं हैं तो वहीं तीन बार दूसरे स्थान पर रहकर सपा को टक्कर जरूर दी है। वर्ष 2004 में बसपा को यहां क़रीब 1.23 लाख वोट मिले थे और दूसरे नंबर पर थी, फिर 2004 के उपचुनाव में बसपा ने यहां 1.70 वोट हासिल किए। अगर 2009 के चुनाव की बात करें तो बसपा को 2.19 लाख वोट मिले थे और दूसरे स्थान पर रहीं। 2014 में वर्तमान सपा एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी डॉ. संघमित्रा मौर्य बसपा से कैंडिडेट थी और तब उन्होंने मोदी लहर के बाद भी 1.42 लाख वोट समाजवादी पार्टी के गढ़ में प्राप्त किए थे। 2019 चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन था और तब जाकर यहां मुलायम सिंह यादव को लगभग 5.25 लाख वोट प्राप्त हुए थे लेकिन जीत का आंकड़ा बेहद कम था करीब 94 हजार वोटों के अंतर से बीजेपी प्रत्याशी हारे थे।
पिछले कई चुनावों को देखे तो बसपा का कोर वोट एक बड़ी संख्या में बीजेपी को ट्रांसफर हो गया है। समाजवादी पार्टी भी बसपा पर दलित वोट बीजेपी को ट्रांसफर करने का आरोप लगाती आई है। मैनपुरी में करीब 1.80 लाख दलित वोटर में से लगभग 1.30 लाख जाटव दलित हैं। और जाटव वोट अभी भी बसपा को वोट करता आया है जिसकी सबसे बड़ी वज़ह बसपा प्रमुख मायावती का स्वयं जाटव होना है। इसके अलावा गैर जाटव पासी,धोबी और वाल्मीकि वोटर अधिक संख्या में बीजेपी के पास चला गया हैं। मैनपुरी में यह जाटव वोट जिस ओर करवट बैठेगा उसी की राह आसान होती नज़र आ रही है।
सपा और बीजेपी समझ इस बात को समझ रहे हैं कि दलित वोट ही उनकी इस चुनाव में राह आसान करेगा। दोनों दल दलित वोट को पाले में करने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं। इसी को देखते हुए बीजेपी ने अपनी दलित नेताओं की फ़ौज को मैनपुरी में उतार दिया है जो बूथ लेवल से लेकर ब्लाक स्तर तक दलित वोटरों को साधने में लगे हैं। मैनपुरी में सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी दलित वोटरो को डिंपल यादव के पक्ष में करने में लगें हुए हैं। पिछले दिनों अखिलेश यादव का दलितों को रिझाने का प्लान सामने आया था। अखिलेश ने करहल विधानसभा में लोकसभा उपचुनाव के लिए पार्टी कार्यालय का उद्घाटन एक दलित महिला के हाथों करवाया था।
रामपुर सीट में दलितों का बसपा से होता मोहभंग से बीजेपी की राह आसान
आज़म ख़ान की विधानसभा सदस्यता रद्द होने के बाद रामपुर शहर विधानसभा में उपचुनाव हो रहें हैं। सपा ने आज़म ख़ान के करीबी आसिम राजा को प्रत्याशी बनाया है तो वहीं बीजेपी ने आज़म ख़ान के घुर विरोधी आकाश सक्सेना को मैदान में उतारा है। रामपुर शहर विधानसभा सीट पर सबसे अधिक मुस्लिम वोटर हैं जिसके बदौलत ही आज़म ख़ान दस बार विधायक रहे हैं। बीजेपी के साथ साथ बसपा भी यहां कभी जीत का मज़ा नहीं चख सकी है। रामपुर शहर में दलित वोटर लगभग 20 हज़ार हैं इसके बावजूद 2022 विधानसभा चुनाव में बसपा कैंडिडेट को यहां मात्र 5 हज़ार वोट मिले थे।
अगर पिछले चुनावों के आंकड़ों पर जाए तो बसपा यहां 2017 में अच्छा चुनाव लड़ी थी कुल वोट का 25% बसपा को मिला था। 2012 चुनाव में बसपा का यहां वोट शेयर 10% रहा। 2007 में बसपा के वोटों का आंकड़ा मात्र 5 फीसदी रहा था। अगर आंकड़ें देखे तो बसपा का ग्राफ यहां लगातार गिर रहा हैं जिससे स्थिति साफ़ हैं कि बसपा का कोर वोट यहां बीजेपी में शिफ्ट हो गया है। जुलाई में हुए रामपुर लोकसभा उपचुनाव में यह देखने को मिला था कि बसपा का चुनाव न लड़ने का सीधा लाभ बीजेपी को मिला था और सपा का भारी नुक़सान हुआ था। इस विधानसभा उपचुनाव में भी बसपा के लड़ने से बीजेपी को फ़ायदे में हैं।
रामपुर की राजनीति को बारीकी से समझने वाले अब्दुल्लाह आरिफ कहते हैं कि पिछले चुनावों को देखा जाए तो जितना बसपा यहां कमजोर हुईं हैं बीजेपी उतनी ही मजबूत हुईं हैं। पिछले चुनावों में बसपा का का कोर वोट बीजेपी और सपा में 70% और 30% के हिसाब से शिफ्ट हुआ है। रामपुर में ऐसा होने की सबसे बड़ी वजह यह रहीं कि सपा सरकार के दौरान एक शापिंग मॉल के लिए एक दलित बस्ती पर बुलडोजर चलवा दिया गया था जिसके बाद से दलित सपा से नाराज़ रहें। ख़ास बात यह है कि रामपुर में अगर कोई दलित प्रत्याशी नहीं होता दलितों की पोलिंग भी कम रहतीं हैं।
खतौली में चंद्रशेखर के भरोसे दलित वोट साधने की कोशिश में सपा गठबंधन्
मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट पर बीजेपी विधायक विक्रम सैनी की विधायकी जाने के बाद उपचुनाव हो रहें हैं। सपा और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन के चलते यह सीट आरएलडी के पास हैं। आरएलडी ने गुर्जर समाज से आने वाले मदन भैया को प्रत्याशी बनाया है तो वहीं बीजेपी ने विक्रम सैनी की पत्नी राजकुमारी सैनी को टिकट दिया है। खतौली सीट में मुस्लिम वर्ग 27% के साथ अच्छी भूमिका में हैं। वहीं हिंदू वर्ग में यहां दलित सबसे अधिक है। दलित बड़ी तादाद में होने के बाद भी पार्टियां यहां गुर्जर, जाट और सैनी कैंडिडेट उतारती है। इस सीट पर करीब 60 हजार दलित हैं। इसके बाद 30 हजार सैनी और करीब 27 हजार गुर्जर हैं। इनके अलावा जाट इस सीट पर 24 हजार वोटर हैं।
पिछले तीन चुनाव के आंकड़े देखे तो बसपा का प्रदर्शन यहां ठीक रहा है। बसपा ने इस सीट पर महज़ एक बार ही जीत दर्ज की है। बसपा को यहां 20% वोट शेयर मिलता रहा है। 2022 चुनाव में बसपा को यहां लगभग 14% वोट शेयर मिला था वहीं 2017 में बसपा यहां 17% वोट लेकर आई। बसपा यहां दलित वोटरों के भरोसे 2012 में 24% वोट पाई थी जो सपा से एक प्रतिशत ज्यादा था। 2007 में बसपा ने 32% पाकर यहां जीत दर्ज की थी।
खतौली के 2007 के बाद से चुनावी आंकड़ों पर नजर डालें तो यहां बसपा का यहां ग्राफ गिरने लगा है तो वहीं बीजेपी का बढ़ा हैं। इसका मतलब है कि बसपा का वोट भाजपा की ओर झुका हैं। आंकड़ों को देखकर कहा जा सकता है कि इस उपचुनाव में बसपा के न होने का सीधा फायदा बीजेपी को मिल सकता है।
दलित वोटरों की अच्छी तादाद और बसपा का कोई कैंडिडेट न होने के चलते आरएलडी अध्यक्ष जयंत चौधरी ने बड़ा दांव खेलते हुए भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आज़ाद को अपने साथ कर लिया है। खतौली उपचुनाव में बीजेपी के खिलाफ आरएलडी के उम्मीदवार को चंद्रशेखर आज़ाद ने समर्थन दिया हैं। चंद्रशेखर आजाद भी दलितों के बीच अच्छी पकड़ और पैठ रखते हैं और दलित समाज का युवा तबका उन्हें अपना नेता भी मानता है। इस वजह से दलित वोटर का काफी वोट आरएलडी को भी जा सकता है।
2022 चुनाव में बसपा की स्थिति पूरे प्रदेश में अच्छी नहीं थी उसके बावजूद बसपा के यहां गुर्जर प्रत्याशी को गुर्जर और दलित का वोट मिलाकर लगभग 31 हज़ार वोट मिला था। अगर आरएलडी को बसपा को 2022 में मिले वोट का बड़ा हिस्सा और गुर्जरों का साथ मिला तो उसका गुर्जर-जाट-मुस्लिम समीकरण काम कर सकता है और आरएलडी की राह आसान हो सकतीं हैं। वैसे भी खतौली एक लंबे समय तक आरएलडी का गढ़ के तौर पर रहा है।
बसपा के पिछले उपचुनावों को लड़ने का असर
पिछले कुछ उपचुनावों की बात करें तो आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में बसपा ने प्रत्याशी उतारा था वहीं रामपुर में बसपा ने प्रत्याशी नहीं दिया था। आजमगढ़ में बसपा कैंडिडेट होने के कारण सपा को नुकसान हुआ वहीं रामपुर लोकसभा उपचुनाव में बसपा प्रत्याशी न होने के कारण बीजेपी को सीधा फायदा मिला था। हाल ही में लखीमपुर की गोला गोकर्णनाथ विधानसभा सीट पर भी बसपा उपचुनाव से दूर थी और उसी दूरी का बीजेपी का फायदा मिला।
बसपा प्रमुख मायावती ने लखीमपुर की गोला गोकर्णनाथ सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजों पर ट्वीट किया था। अगर उस ट्वीट पर जाएं और उसको समझो तो यह सामने आएगा कि मायावती सपा की बीजेपी से लड़ने की सक्षमता पर सवाल कर रहीं हैं। मायावती ट्वीट के जरिए कहना चाह रहीं थी कि सपा बीजेपी को हराने में सक्षम नहीं है और पिछले उपचुनावों में हुईं सपा की हार को वो अपने ट्वीट के जरिए यही बताकर पेश कर रहीं हैं कि सपा बीजेपी को मात नहीं दे सकतीं हैं।