उत्तर प्रदेश : चेहरे के चक्कर में फंसी भाजपा

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

दिल्ली: 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए जीवन-मरण के सवाल की तरह हैं. पार्टी इसे 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल मानकर चल रही है. लेकिन अभी भी पार्टी यह नहीं तय कर पा रही है कि चुनाव में पार्टी का प्रमुख चेहरा कौन होगा? पार्टी किसे आगे बढ़ाकर इस चुनावी दंगल में दांव आजमाएगी?


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मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी को लेकर भाजपा के भीतर एक के बाद एक कई नाम आ चुके हैं, मगर ये सारे नाम सिर्फ़ कयासों तक सिमट कर रह जा रहे हैं. पार्टी के रुख स ऐसा लग रहा है कि पार्टी न तो कोई ठोस फैसला ले पा रही है और न ही पार्टी में किसी के नाम पर आंतरिक सहमति बना पा रही है.

एक ख़बर के ज़रिए यह बात सामने आई थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बीते हफ्ते गोरखपुर में मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर योगी आदित्यनाथ का नाम पेश करेंगे, लेकिन मोदी इस मसले पर पूरी तरह चुप्पी साधे नज़र आए.

बीते दिनों उत्तर प्रदेश में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और मंथन शिविर का आयोजन किया गया. इस बैठक में भाजपा को यूपी में कामयाब बनाने के हर पहलू पर विचार किए गए और ज़मीनी काडर को और मजबूत करने पर जोर दिया गया. इस मीटिंग में सीएम पद के उम्मीदवार के नाम पर ख़ास बातचीत हुई. इस बातचीत में संघ ने योगी आदित्यनाथ, वरूण गांधी और केशव प्रसाद मौर्या के नाम पर खास ज़ोर दिया और यह तय किया गया कि योगी के नाम का ऐलान मोदी गोरखपुर की अपनी रैली में करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

इससे पूर्व भाजपा सांसद रवींद्र कुशवाहा ने भी कहा था कि सीएम की कुर्सी के लिए भाजपा के पास दो ही विकल्प हैं – कल्याण सिंह और योगी आदित्यनाथ. रवीन्द्र कुशवाहा का यह भी दावा है कि प्रदेश के ज़्यादातर सांसद योगी आदित्यनाथ के ही पक्ष में हैं. हालांकि यह बात अलग है कि पिछले साल हुए यूपी विधानसभा के उपचुनावों में भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को ही आगे कर चुनाव लड़ा था, लेकिन पार्टी को ख़ास कामयाबी नहीं मिल सकी.

योगी से पूर्व मीडिया में स्मृति ईरानी का नाम उछाला गया था. जानकार यह भी मानते हैं कि स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय से हटाकर कपड़ा मंत्रालय इसलिए सौंपा गया है ताकि उन्हें यूपी पर फोकस करने के लिए पूरा समय मिल सके. वैसे ईरानी एक कुशल वक्ता हैं और लोगों को अपने पाले में करने का माद्दा रखती हैं. यह अलग बात है कि अमित शाह से इनके रिश्ते बहुत मधुर नहीं माने जाते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की क़रीबी ज़रूर मानी जाती हैं.

गोरखपुर के पड़ोसी ज़िला महाराजगंज के सांसद पंकज चौधरी के समर्थक भी खुलकर उन्हें उम्मीदवार बनाने की मांग के साथ मैदान में उतर चुके हैं. पंकज चौधरी अभी लोकसभा के सचेतक भी हैं, इसलिए पार्टी में उनका क़द किसी बड़े नेता से कम नहीं है.

वरुण गांधी के समर्थक भी इन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार मानते हैं. कुछ दिनों पहले यह कयास भी लगाए जाने लगे कि अगर वरुण गांधी को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी नहीं बनाया जाता है तो वे कांग्रेस के साथ जा सकते हैं. लेकिन अब दुविधा यह है कि कांग्रेस दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए पेश कर चुकी है, ऐसे में यदि वरुण गांधी कांग्रेस में जाते भी हैं तो उनका रोल क्या होगा, इस पर संदेह है.

कई बार इस रेस में सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके कल्याण सिंह का भी नाम आया. यह अलग बात है कि 84 साल के कल्याण सिंह की उम्र इन्हें इस रेस में शामिल होने के लिए साथ नहीं दे पा रही है. हाल के समय में भी कल्याण सिंह की राजनीतिक सक्रियता देखने को नहीं मिल रही है लेकिन जानकार मानते हैं कि यूपी के वोटरों का समीकरण उनको अभी भी इस रेस में शामिल किए हुए है. कल्याण सिंह अपनी उम्मीदवारी से जुड़े सवालों पर मीडिया में टालमटोल करते नज़र आ रहे हैं. ये टालमटोल ही इस बात की ओर इशारा करता है कि वे भी इसके लिए ख़्वाहिशमंद हैं. हालांकि वे यह भी चाहते हैं कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया जाता है तो फिर उनके सांसद पुत्र राजवीर सिंह को इस पद के लिए उतारा जाए.

इस फ़ेहरिस्त में सबसे अहम नाम गृहमंत्री व प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह का भी है. सूत्र बताते हैं कि राजनाथ सिंह गृहमंत्री जैसा पद छोड़ना नहीं चाहते हैं. और वे अपने पुत्र पंकज सिंह को मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी दिलाने की जुगत में लगे हुए हैं.

इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री की इस रेस में दिनेश शर्मा और कलराज मिश्र का नाम भी आ चुका है, क्योंकि कांग्रेस के ब्राहमण चेहरे शीला दीक्षित के सामने सिर्फ़ यही नाम ठहरते हैं. जहां कलराज मिश्र उत्तर प्रदेश में पार्टी के पुराने और क़द्दावर नेताओं में से एक हैं, वहीँ दिनेश शर्मा इस समय पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रिय लोगों में शुमार रहे हैं.

पार्टी आलाकमान की यह मंशा भी पिछले दिनों सामने आई है कि वह मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए किसी गैर यादव अन्य पिछड़े वर्ग के नेता को सामने रख कर चुनावी मैदान में उतरना चाहती है. अगर ऐसा है तो इस कड़ी में केन्द्रीय मंत्री उमा भारती और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या का नाम भी आ सकता है. हालांकि उमा भारती यूपी से सांसद ज़रूर हैं, लेकिन वह मूलरूप से मध्य प्रदेश की हैं.

लम्बे समय से यूपी की सत्ता से दूर भाजपा का प्रदेश संगठन बिखराव का शिकार है. बाक़ी है तो सिर्फ़ नेताओं की महत्वकांक्षाएं. इसीलिए पार्टी का हर बड़ा नेता मुख्यमंत्री उम्मीदवार की रेस में खुद को प्रोजेक्ट करने में लगा हुआ है. कार्यकर्ताओं को भी अपने-अपने पक्ष में लाने की कोशिश की जा रही है ताकि दबाव में आकर पार्टी उसके नाम का ऐलान कर दे. हालात ऐसे हो गए हैं कि जिस पार्टी को इस वक़्त वोटरों के दरवाज़े पर दिखना चाहिए, वह आपस की खींचतान में ही वक़्त बर्बाद कर रही है.

सच तो यह है कि कल्याण सिंह के जाने के बाद से ही प्रदेश भाजपा के लीडरों में शून्य की स्थिति है. इसीलिए कल्याण सिंह आज भी यूपी की राजनीति में अपना हिस्सा चाहते हैं. राजस्थान का राज्यपाल बनने के बाद लगातार वे अपने बेटे को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं.

राजनाथ सिंह से लेकर योगी आदित्यनाथ तक सभी उस फ़सल में अपना हिस्सा अभी से मांगने लगे हैं, जो फ़सल अभी पैदा ही नहीं हुई है. यह इस बात का संकेत है कि पार्टी के पास पाने को बहुत ज़्यादा नहीं है, मगर खोने को पूरी ज़मीन उसने तैयार कर रखी है. भाजपा की असल दुविधा और असल कहानी यही है.

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