By फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
दिल्ली: कभी रिक़्शे के तीन पहियों के सहारे 45 वर्षीय रहमत अली के परिवार की क़िस्मत घूमती आ रही थी, लेकिन अब रहमत अली खुद ही भुखमरी झेलने को और पेट पालने को बेबस हैं. उनके माथे पर चिंता पर लकीरें साफ़ बता रही हैं कि रहमत अली को अब बस खुदा की रहमत का ही इंतज़ार है.
दिल्ली के जामिया नगर में रिक्शा चलाने वाले रहमत अली के आंखों से दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद भी रात को नींद गायब रहती हैं. उनको बस एक ही चिंता सताती रहती है कि गांव में रहने वाले मेरे परिवार का क्या होगा?
पश्चिम बंगाल के मालदा शहर से आकर दिल्ली में अकेले रहने वाले रहमत अली बताते हैं कि उनके ऊपर पत्नी व पांच बच्चों के अलावा बूढ़े मां-बाप की भी ज़िम्मेदारी है. वह सुबह सात से लेकर शाम के सात बजे तक रिक़्शा चलाते हैं. तयशुदा वक़्त इसलिए क्योंकि रहमत के पास खुद का रिक़्शा नहीं है.
वह बताते हैं, ‘रोज़ चाहे कमाई हो या न हो, रिक़्शा मालिक को 150 देना होता है. बाक़ी के बचे पैसे इतने कम होते हैं कि कुछ समझ में ही नहीं आता कि वो ख़ुद क्या खाए और घर वालों को क्या भेजे? यही सोच-सोचकर उसकी पूरी रात बीत जाती है.’
अपने मौजूदा हालातों का ज़िक्र करते हुए वह बताते हैं, ‘दो-चार साल पहले तक अपनी कमाई में से कुछ पैसा घर भेज देता था, उसमें पूरे परिवार का गुज़र-बसर हो जाया करता था. लेकिन अब जब महंगाई आसमान छू रही है, तब हमारी आमदनी पहले से भी कम हो गई है. इसका एकमात्र कारण बैटरी वाला रिक़्शा है.’
रहमत के मुताबिक़ अब लोग रिक़्शा के बजाए ई-रिक़्शा पर बैठना ज़्यादा पसंद करते हैं. क्योंकि लोगों को जल्दी रहती है और उनका काम सस्ते में भी हो जाता है. ऐसे में इस पहिए के धीमी रफ़्तार वाली रिक़्शा को कोई नहीं पूछता. रहमत का कहना है, ‘हमारे पास इतने पैसे भी नहीं है कि हम भी बैटरी वाला रिक़्शा खरीद सकें.’
बिहार से आए 60 साल के नवाब आलम की कहानी रहमत अली के कहानी से भी ज़्यादा दर्दनाक है. नवाब ढ़ाई साल से रिक्शा चलाकर किसी तरह ज़िंदा हैं.
नवाब बताते हैं कि दो जवान लड़कों के होते हुए भी उन्हें घर वालों से निराश होकर इस उम्र में दिल्ली आना पड़ा. काम की तलाश में दो-तीन दिनों तक यहां-वहां घूमते रहे, लेकिन कहीं काम नहीं मिला. बकौल नवाब, ‘बेहाली में खुद को ज़िन्दा रखने के लिए रिक्शा चलाना ही मेरे लिए एकमात्र विकल्प था. अब मैं इस बूढ़ी उम्र में एक साथ दो-तीन लोगों को ढोकर ज़िन्दगी का बोझ ढो रहा हूं.’
नवाब आगे बताते है, ‘इस काम में भी क़िस्मत मेरा साथ नहीं दे रही है. लोगों को जल्दी रहती है. बैटरी वाले रिक्शे पर बैठ जाते हैं. अगर साइकिल रिक़्शा से भी जाना होता है तो वह दूसरे रिक़्शों पर बैठते हैं. उन्हें लगता है कि यह बूढ़ा तेज़ रिक़्शा नहीं भगा पाएगा.’
32 साल के अज़हर की रिक़्शा चलाने की स्पीड तो काफ़ी तेज़ है. लेकिन ई-रिक़्शा ने उनकी ज़िन्दगी की रफ़्तार को धीमा ज़रूर कर दिया है. अज़हर का कहना है कि वह पिछले पांच साल से जामियानगर में रिक्शा चला रहे हैं. लेकिन अब बैट्रीवाला रिक्शा आ जाने से उतनी सवारियां नहीं मिलती हैं. कभी-कभी तो इतने पैसे भी नहीं हो पातें कि गांव में अपने परिवार को पैसे भेज सकें.
बिहार से ताल्लुक रखने वाले 45 वर्षीय साइकिल रिक्शा चालक दुर्गा कुमार कहते हैं, ‘हम लोगों के पास समस्या है कि हम करते हैं तो उसके मुताबिक़ पैसा लेते हैं. अब रिक्शे में भी मोटर लगा दीजिए तो हैंडल घुमाके हम भी सस्ते में आपको ले चलेंगे. हमारी मेहनत का पैसा लोगों को महंगा लगता है.’
ऐसी ही कहानी मुख़्तार की भी है जो पिछले 10 साल से रिक्शा चला रहे हैं. मुख़्तार बताते हैं, ‘रिक्शा चलाकर ही वह आज गांव में पक्का घर बनवा चुके हैं. लेकिन आज इस ई-रिक्शा के आ जाने से वही घर चलाना अब मुश्किल हो चुका है. सवारियां पहले से कम मिलती हैं, मजबूरन हम रिक्शे वाले ज्यादा पैसे मांगते हैं. लेकिन कोई देने को तैयार नहीं होता. समझ नहीं आता अब हमारे धंधे का क्या होगा? परिवार कैसे चलेगा?’
दिल्ली के गली-मुहल्लों में ऐसी कितनी ही बेबस कहानियां पड़ी हैं, जो हमारी भागती ज़िंदगी को मंज़िल तक पहुंचाती है. लेकिन शायद ही रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आम आदमी इन रिक्शेवालों के बारे में सोचता होगा. सरकार की भी नज़र इन पर नहीं जाती है. सरकार के पास विकास के स्वागत की कार्यप्रणाली पर काम कर रही है. दिल्ली दिनोंदिन डिजिटल हो रही है. नई-नई तकनीकें विकसित रही हैं, लेकिन सरकार ने यह कभी नहीं सोचा कि डेवलपमेंट के जिस मॉडल के ज़रिए वह लोगों की ज़िन्दगी को आसान बनाने की कोशिश में लगी हुई है, उस मॉडल का एक पहलू ग़रीब तबक़े के लिए बेरोज़गारी व भूखमरी का कारण बन रहा है.
स्पष्ट रहे कि पिछले साल 31 जुलाई 2014 को राजधानी में ई-रिक्शा के परिचालन पर रोक लगा दी गई थी. अदालत ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि इसका परिचालन अवैध तौर पर हो रहा है और यह यातायात व नागरिकों के लिए खतरनाक है. लेकिन नवम्बर 2014 में ये प्रतिबंध यह कहते हुए हटा दिया गया कि यह ई-रिक़्शा हजारों लोगों को रोज़गार दे रहा है. सरकार के मुताबिक़ तकनीक के सुधार के साथ समाज में वाहनों को सुविधाजनक बनाने की मांग बढ़ी है, इसलिए मानवचालित रिक्शा की जगह वहनीय और सुविधाजनक ई-रिक्शा का विकल्प होना चाहिए. दिल्ली के लगभग हरेक इलाके में अदालत द्वारा साइकिल रिक्शे की एक औसत संख्या निर्धारित की गयी है, लेकिन ई-रिक्शों के लिए ऐसा कोई निर्धारण नहीं हुआ है. दिल्ली के परिवहन मंत्रालय द्वारा ई-रिक्शा में जारी तमाम आदेशों और सर्कुलर में कोई भी ऐसा बिंदु अनुपस्थित है, जिससे साइकिल रिक्शा चालकों की सहूलियत का कोई रास्ता खुल सके. ऐसे में यह बड़ी मछली के छोटी मछली को निगलने का खेल सरीखा होता जा रहा है.
हालांकि यह सच है कि इससे रिक्शे पर सवारी करने वाले कुछ आम लोगों को फायदा ज़रूर मिल रहा है. लेकिन यह बात भी सच है कि हमारी सरकारें अमूमन हक़ीक़तों से दूर होती जा रही हैं. रोज़गार की जितनी ज़रुरत दिल्ली के ई-रिक्शा चालकों को है, ज़ाहिरा तौर पर उतनी ही ज़रुरत साइकिल रिक्शा चालकों को भी है. दिल्ली ही नहीं, एनसीआर के साथ-साथ पूर्वी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई शहरों में जहां-जहां ई-रिक्शे बढ़ रहे हैं, वहां भी इसी किस्म की कहानियां धीरे-धीरे अपने पैर पसार रही हैं. इन बदहाल रिक्शेवालों की हालत देखकर लगता है कि शायद दिल्ली सरकार को पेट्रोल और डीजल की गंध से उबकाई तो नहीं आ रही है, लेकिन अब आम आदमी के पसीने की बू से उनका जी ज़रूर मितलाने लगा है.