बदहाली के अंतिम पायदान पर बिहार की उर्दू लाईब्रेरियां

By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार की उर्दू लाईब्रेरियां भयानक संक्रमण के दौर से गुज़र रही हैं. एक ज़माने में उर्दू अदब की नामचीन विरासत रही इन लाईब्रेरियों पर ख़त्म होने का ख़तरा मंडरा रहा है. बिहार में पिछले एक साल में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिसमें इन लाईब्रेरियों में रखी हुई बहुमूल्य धरोहरों को नष्ट करने के ख़ातिर नदियों में बहाने की कोशिश की गई है.


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पटना सिटी में गांधी सरोवर मंगल तालाब के नज़दीक ‘कुतुबख़ाना अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू’ लाईब्रेरी की बिल्डिंग

एक ऐसा ही मामला मई महीने में मुंगेर जिले में भी सामने आया, जहां उर्दू की हज़ारों किताबों को एक लाईब्रेरी से निकालकर गंगा में फेंक दिया गया. यह लाईब्रेरी बिहार की पुराने लाईब्रेरियों में एक थी. इस लाईब्रेरी का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है. बताया जाता है कि 1934 में बिहार में आए भारी भूकम्प में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने की नीयत से मुंगेर में यह उर्दू लाईब्रेरी स्थापित की गई थी.

लाईब्रेरी के सेक्रेटरी मो. फ़ारूक़ के मुताबिक़ इस लाईब्रेरी में 12 हज़ार से अधिक किताबें थी. लेकिन नदी में किताबें बहा देने के बाद अब लाईब्रेरी में एक भी किताब नहीं बची है. बताया जाता है कि इस घटना के पीछे शहर के भगवा बिग्रेड से जुड़े कुछ शरारती तत्वों का हाथ है, जो इस लाईब्रेरी को ख़त्म कर देना चाहते थे. हालांकि कुछ लोग इसके पीछे शहर के एक बिजनेसमैन का हाथ बताते हैं, जो इस हैरिटेज बिल्डिंग पर अवैध क़ब्ज़े की कोशिश में है.


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पटना में गर्वमेंट उर्दू लाईब्रेरी की बिल्डिंग

लेकिन सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि प्रशासन ने अभी तक इस मामले में कुछ नहीं किया और साथ ही क़ौम की नुमाईंदगी करने वाले बड़े-बड़े प्रतिनिधि भी इस पूरे मामले पर अभी तक चुप्पी साधे हुए हैं.

मुंगेर की कहानी बिहार में कोई पहली बार सामने नहीं आई है. इससे पहले पटना सिटी में गांधी सरोवर मंगल तालाब के नज़दीक ‘कुतुबख़ाना अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू’ लाईब्रेरी की किताबें में तालाब में डाल दी गई थी. हालांकि इस लाईब्रेरी की कहानी मुंगेर की कहानी से थोड़ी अलग है.


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बेतिया की सज्जाद लाईब्रेरी में दीमक लगी किताबें

27 मार्च 1939 को स्थापित इस लाइब्रेरी का उद्घाटन कांग्रेस की नेता और स्वतंत्रता सेनानी सरोजनी नायडू ने किया था. इसके संस्थापकों में स्वतंत्रता सेनानी ख़ान बहादुर इब्राहिम हुसैन, जस्टिस अख़्तर हुसैन, अज़ीमाबाद (पटना का पुराना नाम) के मशहूर लेखक नवाब रईस व ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ जैसी मशहूर नज़्म लिखने वाले मोहम्मद हसन उर्फ़ बिस्मिल अज़ीमाबादी शामिल थे. तब यह लाईब्रेरी अज़ीमाबाद के अदीबों व दानिश्वरों का मक्का हुआ करती थी. लेकिन अब यहां जानवरों के खूंटे बंधे हुए हैं. चोर-उचक्कों और शराबियों-जुआरियों ने अब इसे अपना अड्डा बना लिया है. किताबें क्या, इस लाइब्रेरी के दरवाज़े-खिड़कियां तक ग़ायब हो गए हैं. जबकि इस लाईब्रेरी में उर्दू, फ़ारसी, अरबी व पाली भाषा की दस हज़ार से अधिक किताबें थी. कई भोजपत्र व पाण्डुलिपियां भी थीं. उस समय के तमाम मशहूर अख़बार व रिसाले जैसे सर्च लाईट, इंडियन नेशन, आर्यावर्त, सदा-ए-आम, संगम, शमा, फूल आदि इस लाईब्रेरी में आते थे. दूर-दूर से लोग यहां जासूसी की किताबें पढ़ने आते थे क्योंकि उस समय जासूसी की किताबों को पढ़ने का अपना एक अलग मज़ा था. और इस लाईब्रेरी में जासूसी किताबें खूब थी. इब्ने शफ़ी की सिरीज़ की सभी क़िताबें इस लाईब्रेरी में मौजूद थीं.


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बेतिया की सज्जाद लाईब्रेरी की सड़ चुकी किताबें

पश्चिम चम्पारण जिले के बेतिया शहर में भी कभी मशहूर सज्जाद लाईब्रेरी हुआ करता था. बताया जाता है कि 1937 में मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी के गठन के साथ ही शहर के अहम दानिश्वरों के साथ मिलकर मौलाना अबुल मुहासिन मो. सज्जाद ने इस लाईब्रेरी की स्थापना की थी. तब यह लाईब्रेरी आज़ादी के दीवानों का अहम केन्द्र हुआ करता था, लेकिन अब यह लाईब्रेरी बिल्डिंग सहित पूरी तरह से गायब है.

कुछ ऐसी ही कहानी मोतिहारी की उर्दू लाईब्रेरी की भी है. बताया जाता है कि इस लाईब्रेरी के लिए हाफ़िज़ मोहम्मद दीन जैसे लोगों ने स्थापित किया था. लेकिन अब यह लाईब्रेरी लोगों के शादियों की गवाह बनती है. क्योंकि इस लाईब्रेरी की सारी किताबें गायब हैं और इसके कमिटी से जुड़े लोग इसका इस्तेमाल शहर में होने वाले शादियों या मुशायरों में करते हैं.

पटना के अशोक राजपथ स्थित गवर्मेंट उर्दू लाइब्रेरी कभी बिहार की शान हुआ करती थी. इस लाईब्रेरी की स्थापना जनाब डॉ. सैय्यद महमूद (1889-71) ने की थी. इस लाईब्रेरी की पहली चेयरमैन लेडी अनीस इमाम थी, जो 1938 से लेकर जून 1979 तक इस पद पर क़ायम रहीं. कभी इस लाईब्रेरी की देश भर में अपनी पहचान थी, क्योंकि उर्दू की किताबों और अख़बारों का जितना विशाल संग्रह यहां उपलब्ध है, उतना शायद ही देश की किसी और लाइब्रेरी में हो. इस लाईब्रेरी में 38 हज़ार किताबें हैं. लेकिन इस लाईब्रेरी में भी किताबें अब धूल फांक रही हैं. इसके अलावा चिंता का विषय यह है कि यहां दो बार अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य हंमागा कर चुके हैं. उनकी मांग है कि उर्दू की किताबें हटाकर इसे हिन्दी पुस्तकालय बनाया जाए.

बग़ल में स्थित एशिया के बड़ी लाईब्रेरियों में शुमार खुदाबख्श ओरियंटल लाईब्रेरी की हालत भी कुछ अधिक सही नहीं है. यह लाईब्रेरी भी अब अंदर-अंदर ही खोखली होती जा रही है. 2014 में इतिहासकार डॉ. इम्तियाज़ के हटने के बाद अभी तक कोई डायरेक्टर इस लाईब्रेरी को नहीं मिला. स्कॉलरों को स्कॉलरशिप भी मिलना लगभग बंद है. स्टाफ को सैलरी भी वक़्त पर नहीं मिल पाती है.

पटना के खानकाह एमादिया की लाइब्रेरी में रखी किताबें भी अब ख़त्म होने के कगार पर हैं जबकि इस लाईब्रेरी के किताबों के संरक्षण और डिजिटाइजेशन का ज़िम्मा आज से दस साल पहले खुद केन्द्र सरकार ने लिया था. डिजिटाइजेशन के काम लिए केंद्र सरकार ने 2005 की योजना के तहत 90 लाख रुपए की राशि खुदाबख्श लाइब्रेरी को दी थी. लेकिन दस साल में भी यह काम खुदाबख्श लाईब्रेरी पूरा नहीं कर पाई. ऐसे में संरक्षण नहीं होने की वजह से पहले से दयनीय हालत में पहुंचीं किताबों की स्थिति लगातार ख़राब और होती जा रही है.

हालाकिं खानकाह से जुड़े लोगों का कहना है कि खुदाबख्श लाइब्रेरी ने दो साल पहले संरक्षण के काम की शुरुआत की थी लेकिन कुछ किताबों को ठीक करने के बाद काम को बंद कर दिया. खानकाह एमादिया ने कई बार खुदाबख्श लाइब्रेरी से शिकायत भी की, लेकिन कोई हल नहीं निकाला जा सका. जबकि यहां बहुत सारी किताबें इस हालत में पहुंच गई हैं कि डिजिटाइजेशन के लिए इन्हें स्कैन करना तक मुश्किल है. हालांकि खुदाबक्श लाइब्रेरी का कहना है कि उसने केन्द्र सरकार के योजना के तहत अब तक 3000 से ज्यादा पांडुलिपियों के डिजिटाइजेशन का काम पूरा किया है.

खानकाह एमादिया क़रीब तीन सौ साल पुराना है. पहले यह फुलवारीशरीफ में था. करीब 200 साल पहले नूर-उल-हक़ इसे पटना सिटी ले आए. खानकाह की स्थापना के समय से ही इसमें पुस्तकालय है. पुस्तकालय में करीब नौ हजार किताब, छह सौ पांडुलिपियां और करीब एक हज़ार हस्तलिखित किताबें मौजूद हैं. सबसे पुरानी पांडुलिपि सरफ-सुजु-हुकम है. कुछ अंग्रेजी किताबों को छोड़कर बाकी सभी उर्दू, अरबी और फारसी भाषा में लिखी हुई है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार में करीब पांच हजार छह सौ ग्रामीण पुस्तकालयों को आर्थिक मदद के अभाव में बंद कर दिया गया. आंकड़े बताते हैं कि अब पूरे राज्य में महज चार सौ लाईब्रेरियां ही चालू हालत में हैं और उनमें से भी ज्यादातर की स्थिति ख़राब है.

बेतिया की सज्जाद लाईब्रेरी को दुबारा शुरू करने की कोशिश यहां के युवा कर रहे हैं. वहीं पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी ‘कुतुबख़ाना अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू’ लाईब्रेरी को एक बार फिर ज़िन्दा करने की नीयत से अगस्त 2013 में ‘उर्दू लाईब्रेरी एक्शन कमिटी’ बनाई गई. इस कमिटी के संरक्षक खुद बिहार सरकार के पूर्व अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री नौशाद आलम हैं. कमिटी के अध्यक्ष समाजसेवी आदिल हसन आज़ाद हैं. आदिल दावा करते हैं कि वे इस लाईब्रेरी को दुबारा ज़िन्दा करके दम लेंगे.

बिहार के शेखपुरा के समाहरणालय परिसर में ही स्थित उर्दू लाईब्रेरी की कहानी तो और भी दिलचस्प है. यह लाईब्रेरी अब होमगार्ड कार्यालय में तब्दील हो चुका है. जब सैकड़ों छात्रों ने प्रदर्शन किया तो प्रशासन की आंख खुली और कहा गया कि लाईब्रेरी से जल्द ही सरकारी दफ्तर को हटाया जायेगा.

ऐसे में निराशा के इन बादलों के बीच अभी एक हल्की-सी रोशनी भी दिखाई पड़ती है. उम्मीद की यह रोशनी युवा तबक़े से आई है, जो विरासत को बचाने और दुबारा से स्थापित करने की लड़ाई लड़ रहा है. यह युवा वर्ग इन लाईब्रेरियों की दशा व दिशा को लोगों तक पहुंचाने में जुटा हुआ है, ताकि समय रहते क़दम उठाया जा सके और उर्दू अदब की अनमोल विरासत आने वाली पीढ़ी के हाथों में सुरक्षित सौंपी जा सके.

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