By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय यानी मुसलमानों के लिए ये बड़ा दिन था. जो बग़ैर किसी शोर-शराबे के चुपचाप गुज़र गया. न कहीं से कोई आवाज़ उठी और न ही किसी ने याद किया.
18 दिसम्बर का दिन ‘अंतर्राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है. मगर तमाम दिवसों पर सोशल मीडिया गला फाड़कर चींखने वाली आवाज़ें इस मौक़े पर ख़ामोश रहीं.
हैरानी इस बात की भी हुई कि बुद्धिजीवी तबक़े के बीच मुसलमानों के रिप्रेजेन्टेशन का दावा करने वाले तमाम दानिश्वर अपनी क़लम पर ताला जड़े रहें. किसी को याद ही नहीं पड़ा कि यह मौक़ा देश के मुसलमानों से जुड़े कुछ बेहद गंभीर मामलों को हाइलाईट करने का एक बेहतरीन प्लेटफार्म साबित हो सकता था.
‘सबका साथ –सबका विकास’ का दावा करने वाली सरकार भी ख़ामोश रही. अल्पसंख्यक मंत्रालय यूं तो तमाम बड़ी घोषणाओं व ऐलानों का ढ़िंढ़ोरा पीटता है, मगर इस बेहद महत्वपूर्ण मौक़े को उसने भी नज़रअंदाज़ कर दिया.
दरअसल, यह नज़रिया प्राथमिकताओं के छिपे हुए मायाजाल की ओर इशारा करता है. मुसलमानों की तरक़्क़ी का मुद्दा अब सिर्फ़ सियासी मजलिसों का विषय बनकर रह गया है. हालांकि इसके हुकूमत से ज़्यादा ज़िम्मेदार हम ही हैं. हमने हमेशा अपने पिछड़ेपन का रोना रोया है, अधिकार की बात कभी की ही नहीं.
मुझे याद है कि इसी 6 दिसम्बर को जंतर-मंतर पर 50 तंज़ीमों ने मिलकर बाबरी मस्जिद के शहादत की बरसी पर धरने का आयोजन किया था, लेकिन इस धरने में बमुश्किल 500 लोग भी मौजूद नहीं थे. जबकि उसी जंतर-मंतर पर 6 दिसम्बर को ही मुल्क के तकरीबन 5 हज़ार दलित बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की पुण्य-तिथी के उपलक्ष्य में अन्याय, भ्रष्टाचार व गुंडागर्दी ख़िलाफ़ सम्मान, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय और 5 एकड़ भूमि के लिए ‘जन सम्मान दिवस’ आयोजित कर क़ानून में अपने अपने हक़ व अधिकार की बात कर रहे थे. छोटी-छोटी दलित बच्चियों का जोश देखने लायक़ था. लेकिन दूसरी तरफ़ प्रत्यक्ष पहचान वाले मुसलमान वही दाढ़ी-टोपियां, वही नारे –‘बाबरी के गुनाहगारों को गिरफ़्तार करो…’
ये कितना अजीब है कि एक और दलित पुण्य-तिथि पर भी अपने संवैधानिक हक़ की बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ़ मुसलमान अपने तमाम मसले-मसायल को भूल अपने मज़हबी मामलों से आगे ही नहीं निकल पा रहे हैं. जबकि भारत के मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनकी हालत दलितों से भी बदतर है. जब तक वो इस सच को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक वो तमाशबीन भीड़ बनकर नारे ही लगाते रह जाएंगे, जिनका मतलब भी उनको शायद मालूम नहीं होगा.
मुसलमानों से जुड़े मामलों की सबसे त्रासदी यही है कि वे सिर्फ़ मज़हबी मुद्दों के शोर-गुल में ऐसे खो जाते हैं कि उनको अपना हक़ व अधिकार की बातों का पता ही नहीं रहता. ऐसे में ‘अंतर्राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार दिवस’ का मौक़ा किसी वरदान से कम नहीं था, मगर सरकार से लेकर क़ौम के नुमाइंदों तक सभी ने आंखें मूंद लेना ही बेहतर समझा.
(यहां हम सिर्फ़ मुसलमानों की बात इसलिए कर रहे हैं कि क्योंकि सच्चर समिति के रिपोर्ट के मुताबिक़ इन मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर हैं. यही बिरादरी अपने अधिकारों को लेकर कभी सजग नहीं रही, जबकि इसके तुलना में बाक़ी अल्पसंख्यक तबक़ा अपने अधिकारों को लेकर काफी जागरूक नज़र आता है.)
स्पष्ट रहे कि अल्पसंख्यक दिवस हर साल पूरी दुनिया में 18 दिसम्बर को मनाया जाता है. यह दिवस संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1992 में अल्पसंख्यक के हित में घोषित किया गया था. अल्पसंख्यक किसी क्षेत्र में रहने वाले वे लोग हैं, जिनकी संख्या किसी से कम हो जैसे चाहे धार्मिक आधार पर हो, लैंगिक आधार पर हो, भाषा के आधार पर हो, रंग के आधार पर हो. फिर भी वह राष्ट्र निर्माण, विकास, एकता, संस्कृति, परंपरा और राष्ट्रीय भाषा को अनाये रखने में अपना योगदान देते हों तो ऐसे समुदायों को उस राष्ट्र में अल्पसंख्यक माना जाता है.
अल्पसंख्यकों के अधिकारों से सम्बंधित संविधान में प्रावधान
भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के विकास के लिए शैक्षिक अधिकार और उनकी भाषा एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 29 और 30 के अंतर्गत विशेष प्रावधान किए गए हैं.
– देश की प्रत्येक ईकाई में रह रहे सभी अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा, लिपि तथा संस्कृति के संरक्षण का अधिकार है तथा देश में ऐसे कोई भी कानून व नीतियां नहीं बनाई जाएंगी, जिनसे इन अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा व लिपि का शोषण हो.
– सभी धार्मिक, भाषायी व सामुदायिक अल्पसंख्यकों के साथ किसी भी राज्य शिक्षा संस्थान में भेदभाव नहीं किया जाएगा और न ही उन पर किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा थोपी जाएगी.
– सभी धार्मिक, भाषायी तथा सामुदायिक अल्पसंख्यक देश की प्रत्येक ईकाई में अपनी इच्छानुसार कोई भी शैक्षिक संस्थान खोलने के लिए स्वतंत्र हैं.
– किसी भी धार्मिक, भाषायी व सामुदायिक अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्थानों को राज्य द्वारा अनुदान प्रदान करने में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा.