फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
रोहतास (बिहार) : रोटी, कपड़ा व मकान के साथ-साथ बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा… ये पांच ऐसी बुनियादी मानवीय आवश्यकताएं हैं, जिसे देश के हर नागिरक को उपलब्ध कराना एक जनवादी सरकार का फर्ज़ होता है.
1947 में जब मुल्क आज़ाद हुआ तो भारत की जनता से इसे उपलब्ध कराने का वादा सरकारी तौर पर किया गया. मगर 68 वर्षों के दौरान भारत की सरकारें एक-एक करके अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को भूलती गईं. पहले जो महामारियां हज़ारों और लाखों लोगों को मौत की नींद सुला देती थीं, अब उनका आसानी से इलाज तो हो जाता है, लेकिन दूसरी तरफ़ आज भी हैज़ा, दस्त, बुख़ार जैसी मामूली बीमारियों से हज़ारों बच्चों की मौत हो जाना एक आम बात है.
उत्तर प्रदेश और बिहार में मस्तिष्क ज्वार, कुत्ता काटने, सांप काटने से हर साल हज़ारों लोग मरते हैं, जबकि इसका टीका आसानी से उपलब्ध है. देशभर में लाखों लोग बीमारियों के कारण मर जाते हैं या जीवनभर के लिए अपंग हो जाते हैं. इसलिए नहीं कि इन बीमारियों का इलाज सम्भव नहीं है, बल्कि इसलिए कि या तो दवाएं वक़्त पर नहीं मिलतीं या फिर इलाज का खर्च उठा पाना उनके बस के बाहर होता है.
ग्रामीण विकास की ‘उजली तस्वीर’ का संबंध स्वास्थ्य सुविधाओं से भी है. ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ी तो हैं, लेकिन ज़्यादातर सरकारी दस्तावेज़ों में… अस्पताल का भवन तो हैं, लेकिन डॉक्टर और अन्य स्टाफ का नामोनिशान नहीं है. इन अस्पतालों में इलाज तो की जा रही है, लेकिन पूरे लापरवाही के साथ…
नीतिश कुमार के पिछली सरकार में रामधनी सिंह के स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद रोहतास के लोगों में एक ख़ास उम्मीद जगी थी कि कम से कम ज़िले में स्वास्थ्य सेवा सुधरेगी, लेकिन उल्टे यहां चिराग तले अंधेरा वाली कहावत नज़र आई. मंत्री जी अपने घर के सामने के अस्पताल को भी नहीं सुधार पाएं.
डेहरी ऑन सोन के अनुमंडल हॉस्पीटल में इलाज के लिए आए शिवपूजन सहाय (52) बताते हैं कि यहां टाईम का बहुत दिक्कत है. बंद होने का समय 12 बजे है, लेकिन11 बजे ही बंद हो जाता है. हम गावं से आते हैं, लेकिन डॉक्टर टाईम पर कभी मिलते ही नहीं, इसलिए इमरजेंसी में प्राईवेट अस्पताल जाना मजबूरी बन जाती है.
स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर यहां के अस्पतालों में सरकार ने निशुल्क दवा योजना तो शुरू कर दी है, लेकिन यहां दवाइयां ही मौजूद नहीं हैं. डेहरी के अनुमंडल अस्पताल में एक डॉक्टर नाम न प्रकाशित करने के शर्त पर बताते हैं कि –‘सुबह अस्पताल पहुंचते ही दवाओं की एक लिस्ट थमा कर कह दिया जाता है कि आज यही दवाईयां मरीज़ों को लिखें.’
डेहरी अनुमंडल अस्पताल जिसमें इनडोर मेडिसिन सूची में 112 दवाओं की लिस्ट है, लेकिन यहां केवल 34 दवाएं ही फिलहाल उपलब्ध है. साथ ही आउटडोर मेडिसिन सूची के 35 दवाओ में से सिर्फ़ 12 दवायें ही मौजूद हैं. इसके अलावा पिछले 6 महीने से कुत्ता काटने का एंटी-डॉट्स मौजूद नहीं है.
जननी सुरक्षा योजना के अंतर्गत गर्भवती महिला को आयरन फोलिक एसिड की टेबलेट 7 महीने तक निशुल्क देनी होती है, लेकिन महिला वार्ड में मौजूद तमाम गर्भवती महिलाओं को ऐसी कोई सुविधा यहां नहीं दी जाती है.
लापरवाही व बदहाली का आलम तो यह है कि यहां हर मर्ज़ के लिए एक ही दवा दी जाती है. उसमें भी अगर डॉक्टर ने चार दवा लिखी है तो सिर्फ़ दो ही दवा उपलब्ध होती है. हैरानी की बात यह है कि मामूली खांसी-सर्दी तक की दवा यहां मौजूद नहीं है. पूछने पर अधिकारी बताते हैं कि हम क्या कर सकते हैं. दवा ऊपर से ही नहीं आती है.
यहां इलाज के लिए आए अशोक के परिजनों का कहना है कि एम्बुलेंस के लिए घंटो फोन करने पर भी अस्पताल के किसी अधिकारी ने फ़ोन नहीं उठाया. यहां मौजूद दूसरे मरीज़ बताते हैं कि अस्पताल में अल्ट्रासॉउन्ड मशीन होने के बाद भी उन्हें बाहर से ज्यादा पैसे देकर अल्ट्रासॉउन्ड कराना पड़ता है.
वापस निकलने के लिए जब अस्पताल के दरवाज़े पर आई तो वहां एक बूढ़े व्यक्ति को आंखें बंद किये रोते हुए पाया. उनका रोना मुझे पूछने पर मजबूर किया कि आखिर उनकी इस आंसू की वजह क्या है? मेरे पूछने पर उन्होंने बस इतना ही कहा –‘मौत को क़रीब से देखा तो ज़िन्दगी की असली क़ीमत का अंदाज़ा लगा और समझ में आया कि क्या कीमत है मेरी और मेरे अपनों की…’ इतना बोलते ही वो ज़ोर से रो पड़ें.
दरअसल, उनकी बेटी का प्रसव होने वाला था. लेकिन पिछले कई घंटों से कोई डॉक्टर या एएनएम का पता नहीं था. इतना ही नहीं, उनके बेटी को अस्पताल में भर्ती करने के पैसे भी मांगे गए थे, जबकि जननी सुरक्षा योजना के अंतर्गत कोई राशि लेने का प्रावधान नहीं है.
जब स्वास्थ सेवाओं के इन हालातों को अपनी नंगी आंखों से देखा तो असली मुश्किलों का अंदाज़ा हुआ. अपनी खुद की तकलीफ़ कम नज़र आने लगी. काश! हमारे सियासतदान उन सरकारी अस्पतालों में ही ‘अच्छे दिन’ ला पाते, जहां लोग तिल-तिल कर अपनी ज़िन्दगी की कीमत चुका रहे हैं…