बिहार की चुनाव डायरी – किसकी जोड़ी कितनी हिट

नासिरुद्दीन हैदर

बिहार में चुनाव प्रचार खत्म हो चुका है. आज आखिरी दौर का मतदान भी हो गया है. फिर नतीजों की बारी है. उससे पहले कुछ दिन चर्चा का बाजार गर्म रहेगा. टीवी चैनल भी सर्वे और एक्जिट पोलों से लबरेज़ रहेंगे.



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चुनाव की घोषणा के ठीक पहले, चुनाव की घोषणा के बाद और मतदान के दौरान – बिहार के अलग अलग हिस्सों में जाने का मौका मिला. जब भी कोई मिला, सबका स्वभाविक सवाल होता है – बिहार में क्या हो रहा? बिहार में क्या होगा? कौन जीतेगा?

आमजन के बीच छवि है कि पत्रकारों को दुनिया की हर चीज के बारे में पता होता है. इसलिए चुनाव में क्या हो रहा है या क्या नतीजे आएंगे – पत्रकारों के पास सबसे पुख्ता जानकारी होगी.



मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि क्या होगा या क्या नतीजे आएंगे. हालांकि बतौर पत्रकार मैंने कुछ चीजें देखीं, लोगों से बात की, कुछ चीजें महसूस कीं. उसी आधार पर मैंने बार-बार पूछे जाने वाले कुछ सवालों का जवाब देने की कोशिश की है. यह जवाब मेरे जाती अनुभव पर आधारित है. इससे हर कोई अपने-अपने नतीजे निकलने को आजाद है.

नीतीश कुमार के बारे में लोग क्या सोचते हैं?

यह चुनाव नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द है. अगर कुछ महीनों को छोड दें तो वे दस साल से मुख्यमंत्री हैं. इसलिए चुनाव में वे एक बडा मुद्दा हैं. यह उनके काम और काम करने के तरीके को नापने का भी चुनाव है.

पटना का कुम्हरार हो या दीघा, बांकीपुर या फिर नौबतपुर. गंगा पार हाजीपुर हो या वैशाली या सीमांचल का पूर्णिया या अररिया हो, बहुत कम ऐसे लोग मिलेंगे जो नाम सुनते ही नीतीश कुमार की सीधे-सीधे बुराई करते नजर आएं. गाली देने वाले भी कम मिलते हैं. नौबतपुर में प्रधानमंत्री की रैली में शामिल दबंग युवा हों या वैशाली में पासवान-मांझी की रैली में शामिल गरीब, नीतीश का नाम आते ही उनके विचार धुर विरोधी वाले नहीं रह जाते. तीखी बुराई करने वाले ज्यादातर विरोधी पार्टियों के कार्यकर्ता होते हैं.

समर्थकों के लिए नीतीश बिहार और उनकी जिंदगी में बदलाव की निशानी हैं. वे सड़क दिखाते हैं. कहते हैं याद कीजिए यही नौबतपुर दस साल पहले किस हाल में था. वे अपराध में कमी का हवाला भी देते हैं. वे बिजली की हालत सुधरने की तरफ ध्यान दिलाते हैं. इनके पास गिनाने के लिए कई चीजें हैं – स्कूलों में टीचर आ रहे हैं, पीएचसी पर डॉक्टर आते हैं, लडकियों को साइकिल मिली, स्कूल जाने वालों को ड्रेस, मिड-डे मील मिल रहा, पेंशन मिल रहा. वगैरह वगैरह.

जो समर्थक नहीं रह गए उन्हें सबसे बडी शिकायत है, बाकि सब तो ठीक है लेकिन लालू के साथ जाकर नीतीश ने ठीक नहीं किया. गड़बड़ा गए. लालू काम करने नहीं देगा. नीतीश भी उसी तरह हो जाएंगे. ऐसे लोग यह भी जोड़ते हैं, अगर नीतीश अकेले चुनाव लडते तो उनको कोई रोक नहीं सकता था. नीतीश लालू के बराबर सीट पर लड़ रहे हैं. लालू नीतीश को कभी आगे नहीं बढ़ने देगा. रिमोट अपने हाथ में रखेगा. जब तक भाजपा साथ थी, नीतीश विकास कर रहे थे. देखिए पिछले दो साल में क्या हुआ? इनकी बातों को सुनकर लगेगा कि अगर लालू को छोड दें तो ये सब नीतीश के समर्थक हो जाएंगे.

लेकिन इसके साथ ही एक अहम सवाल है, क्या ऐसा कहने वाले अकेले चुनाव लडने पर नीतीश का समर्थन करते? अगर हां, तो लोकसभा चुनाव में क्यों नहीं किया? कुछ का कहना है कि लोकसभा और विधानसभा का चुनाव अलग-अलग होता है. विधानसभा चुनाव में तो नीतीश के साथ ही होते. वे कहते हैं, श्रीकृष्ण बाबू के बाद बिहार को ऐसा मुख्यमंत्री मिला था.

एनडीए के हाल क्या हैं?

बिहार में एनडीए यानी भारतीय जनता पार्टी, लोकजनशक्ति पार्टी, हम (सेक्यूलर) और रालोसपा का संयुक्त मोर्चा. लोकसभा चुनाव में बिहार में जबरदस्त कामयाबी मिली थी. इस लिहाज से उसका भी बहुत कुछ दांव पर है.

प्रचार में एनडीए हावी रहा. एनडीए के पास प्रचार करने वाले नेताओं की फौज है. इनमें कई स्टार प्रचारक हैं. अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों से पता चलता है कि एनडीए का प्रचार कितना सघन है. एक-एक विधानसभा में एक ही दिन कई नेताओं ने सभाएं, रोड शो किए. ज्यादातर बड़े नेता हेलीकॉप्टर से दौरा करते रहे. अखबारों में भी रोजाना एनडीए के ही छोटे-बड़े विज्ञापन निकल रहे हैं.

इसके सबसे बडे स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद हैं. विज्ञापनों और होर्डिंग को देख किसी को भ्रम हो सकता है कि यह लोकसभा चुनाव है या विधानससभा चुनाव. मतदान के दो चरणों तक ज्यादातर विज्ञापनों में दो चेहरे थे – प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह. दूसरे चरण के बाद विज्ञापनों में एनडीए के बाकि नेताओं के चेहरे दिखने लगे. हालांकि अब भी अनुपात में वे प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की तस्वीर के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते. आखिरी दौर का चुनाव खत्म होने तक प्रधानमंत्री ने लगभग तीन दर्जन सभाएं कीं. उनकी सभाओं में भीड़ दिखती है. पीएम की सभा में जिले की सभी विधानसभाओं के उम्मीदवार रहते थे. लिहाजा उनके समर्थक भी होते हैं. इनमें कुछ लोग उन्हें देखने भी आते हैं. पुरुषों की तुलना में महिलाओं की तादाद कम रहती है. सभाओं में शामिल लोग मुखर मिलते हैं. इनके कपड़े लत्ते भी ठीकठाक होते हैं. चारपहिया और दुपहिया गाड़ियों की तादाद भी ठीकठाक रहती है.

प्रधानमंत्री की सभा का मैदानी दायरा बड़ा होता है. इसकी एक वजह हेलीकॉप्टर हैं. हेलीकॉप्टर आमतौर पर सभा स्थल के पास उतरता है. उसके लिए एक बडा घेरा होता है. फिर सुरक्षा का घेरा होता है. जनता इन सब घेरों के बाद होती है. मंच से जनता की दूरी ठीक-ठाक होती है. तस्वीर में सभा का दायरा बडा लगता है.

प्रधानमंत्री के साथ केन्द्रीय मंत्रियों की फौज भी प्रचार में जुटी रही. इसमें सिर्फ बिहारी मंत्री नहीं हैं. मंत्रियों के अलावा दूसरे राज्यों के भाजपा के कई नेता सक्रिय देखे जा सकते हैं.

एनडीए के नेताओं के निशाने पर नीतीश कुमार हैं. लालू-राबड़ी का 15 साल का शासन है. वे इस शासन को ‘जंगलराज’ कहते हैं. इन नेताओं का इलज़ाम है कि अगर लालू-नीतीश जीते तो दोबारा ‘जंगलराज’ आ जाएगा. एनडीए के विकास का मुद्दा वाया दरभंगा पाकिस्तान तक पहुंच गया. आगे कुछ और चर्चा होगी.

किस गठबंधन की जुगलबंदी बेहतर दिखती है?

बिहार के ज्यादातर विधानसभाओं में चुनाव दो गठबंधनों के बीच ही दिख रहा. बमुश्किल 25-30 सीटों पर ही तीन मजबूत दावेदार होंगे. यानी एनडीए और महागठबंधन में ही सीधी टक्कर है. इनमें से कौन गठबंधन आगे निकलेगा, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि गठबंधन के सभी घटक सभी विधानसभाओं में कैसा प्रदर्शन करेंगे. यानी चक दे, वही कह पाएगा जिस गठबंधन का टीम वर्क बेहतर होगा.

रोड पर हों या सभाओं में, ज्यादातर जगहों पर महागठबंधन के तीनों घटकों के झंडे साथ दिखाई दिए. प्रचार वाहनों पर तीनों पार्टियों के झंडे साथ लहराते देखे गए. किसी क्षेत्र में प्रचार या उम्मीदवार घटक दलों में से किसी का भी हो पर तीनों के झंडे उनके साथ-साथ होने का आभास देते हैं. महागठबंधन के स्टार प्रचारक मुख्यत: दो थे – नीतीश कुमार और लालू यादव. बीच-बीच में सोनिया गांधी और राहुल गांधी आते रहे. नीतीश और लालू साथी दलों के सभी प्रत्याशियों के लिए सभाएं करते देखे गए. उनके चेहरे की तपन से उनकी इस मेहनत का अहसास हो सकता है. यही नहीं वोटरों में महागठबंधन एक इकाई के रूप में दिखता है. एक इकाई के रूप में उसकी पहचान जमीन पर महसूस की जा सकती है. जब आप किसी समर्थक से पूछें कि वह किसके साथ हैं, तो उसका जवाब तीन होता है – नीतीश या लालू या महागठबंधन. इनमें लालू वालों की तादाद कम है.

दूसरी ओर, प्रधानमंत्री की सभाओं में एनडीए गठबंधन की पूरी एकजुटता दिखती है. बडे नेता भी साथ घूमते दिखते हैं. हालांकि जमीन पर एनडीए, महागठबंधन जैसी इकाई के रूप में नहीं दिखता. लोग वोट के लिए भाजपा या मोदी का नाम लेते हैं. एनडीए का हर घटक दल का रिश्ता भाजपा से है. आपस में वह रिश्ता कैसा है, यह जमीन पर साफ नहीं हो पाता. जैसे लोजपा का हम से रिश्ता. हम का रालोसपा से रिश्ता. रालोसपा का लोजपा से रिश्ता. एक उदाहरण से इसे कुछ समझा जा सकता. वैशाली में एक ही दिन में एक ही जगह एक घंटे के अंतराल पर एनडीए के दो बडे नेताओं की सभा होती है. ये दोनों अलग-अलग आए और अलग-अलग गए. ऐसी क्या मजबूरी रही होगी? हालांकि वहां बैठी जनता को बार-बार यह कहा जाता रहा कि दोनों नेता साथ आएंगे. मुमकिन है, यह संयोग हो. पर अखबारों के विज्ञापनों में भी दोनों सभाओं के आयोजन का अलग-अलग ही जिक्र था. यह भी जरूरी नहीं कि किसी सभा में एनडीए के सभी घटक दलों के झंडे बैनर बराबर की संख्या में दिख जाएं. अगर ‘हम’ का उम्मीदवार है तो उसकी सभा में इक्का-दुक्का बाकियों के झंडे दिखते हैं. प्रधानमंत्री की सभाओं में मैदान में भाजपा का झंडा हावी रहता है. एनडीए के घटक दलों का झंडा होता है लेकिन अनुपात में काफी कम. एनडीए की चर्चा ज्यादातर प्रधानमंत्री मोदी के इर्द-गिर्द होती है. कहीं-कहीं पासवान, मांझी या कुशवाहा भी साथ में चर्चा में आते हैं.

‘जंगलराज’ क्या है?

बिहार में पिछले कई चुनावों से जंगलराज एक स्थाई मुद्दा रहा है. इस बार भी मुद्दा है. एनडीए के शब्दों में ‘जंगलराज’ यानी लालू-राबड़ी राज. एनडीए के नेता अपने भाषणों में भी इसे जोर-शोर से उठाते हैं. अब सवाल है कि यह नारा किन्हें भा रहा? यह ज्यादातर उन लोगों को अपील करता दिखता है, जो अपने को ‘ऊंची’ जाति का कहते हैं या शहरों में रहते हैं या बिजनेस करते हैं या पैसे वाले मध्यवर्ग का हिस्सा हैं. एनडीए का ‘जंगलराज’ का संदेश इनका तक पहुंचा है. यह कितना कामयाब है, पता नहीं चलता. लेकिन लोगों की बड़ी गोलबंदी इस मुद्दे के पीछे ही रही हो, ऐसा भी नहीं दिख रहा. अभी तक इसके भी संकेत नहीं मिले कि बाकि जातीय समूहों और ग्रामीण इलाकों में यह कारगर है.

जारी

[हम आगे पढ़ेंगे कि इस चुनाव में ‘विकास’, ‘अल्पसंख्यक’ और पिछड़ी जातियों-दलितों का क्या समीकरण रहा.]

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