हिन्दी…तू न हुई मेरे घर की

जावेद अनीस,

भोपाल के लाल परेड ग्राउंड पर आयोजित दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में तामझाम, भव्यता, दिखावा, विरोध, राजनीति, बड़े-बड़े दावे, वायदे, आत्मप्रचार सब कुछ था, बस कमी थी तो सिर्फ हिंदी की. यह एक ऐसे इवेंट के रूप में याद किया जाएगा जिसके कन्टेन्ट में भाषा तो थी लेकिन इसका ट्रीटमेंट काफी हद तक राजनीतिक था. एक तरह से सारा शो उद्घाटन और समापन पर निर्भर था. समापन में अमिताभ बच्चन नहीं आए, उदघाटन में मोदी आये तो जरूर, उन्होंने भाषण भी दिया लेकिन बेअसर रहे. 1975 में जब विश्व हिन्दी सम्मेलन की शुरुआत हुई थी तो लेखक व पाठक के स्तर पर हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत बनाने, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहन देने और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की राष्ट्रभाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने जैसे लक्ष्य रखे गये थे. लेकिन दसवां सम्मेलन तो मोदी टू अमिताभ तक के अपने कार्यक्रम के रूपरेखा को ही साधने में नाकामयाब रहा.


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सम्मेलन अपने शुरूआत से पहले ही विवादों को लेकर चर्चा में रहा. इसमें भोपाल के ही शीर्ष लेखकों को आमंत्रित नहीं किया और उनकी पूरी तरह से उपेक्षा की गई. इनमें पद्मश्री मंजूर एहतेशाम, रमेशचंद्र शाह, मेहरून्निसा परवेज, ज्ञान चतुर्वेदी, साहित्य अकादमी से सम्मानित गोविन्द मिश्र, राजेश जोशी और कुमार अंबुज जैसे हिन्दी के शीर्षस्थ रचनाकार शामिल हैं. बाद में इस पर आयोजकों द्वारा यह तर्क दिया गया कि इस बार आयोजन भाषा को लेकर है साहित्य पर नहीं लेकिन साहित्यकारों को आने से किसी ने रोका भी नहीं है. बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी इस बात को दोहराया.



Photo credit: NDTV

सम्मेलन से एक दिन पहले केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री जनरल वी.के.सिंह द्वारा दिया गया वह बयान सरकार में बैठे लोगों का हिंदी के साहित्यकारों के प्रति नजरिये को दिखता है जिसमें उन्होंने कहा कि “कुछ लोगों को लग रहा है कि वे आते थे, दारू पीते थे, आलेख पढ़ते थे, कविता पढ़ते थे और चले जाते थे, वैसा इस बार नहीं है.” उनके इस बयान पर काफी हंगामा हुआ. मीडिया को भी केवल उद्घाटन एवं समापन सत्र में ही रहने की इजाजत थी, 12 सत्रों में से किसी में भी मीडिया को प्रवेश की इजाजत नहीं थी. इन सबको देखकर ऐसा लगा कि कहीं हिंदी को मीडिया एवं रचनाकारों से खतरा तो नहीं है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने उदबोधन में कहा कि “मैंने चाय बेचते-बेचते हिंदी सीखी है और गुजराती लोग सामान्य भाषा में गुजराती का उपयोग करते हैं और जब तू-तू, मैं-मैं करते हैं तब हिन्दी भाषा का उपयोग करते हैं.” ऐसे जुमले उछाल कर उन्होंने विवादों को ही जन्म दिया. सम्मेलन के समापन समारोह में अमिताभ को बुलाए जाने के औचित्य पर भी सवाल उठे, इस पर विदेश मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा तर्क दिया गया कि अमिताभ बच्चन का ‘कौन बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम हिंदी में आता है और उसका लाभ युवा वर्ग व अन्य लोगों को मिला है. इसलिए यह जरूरी था कि एक ऐसा रोल मॉडल चुना जाए, जिसने आज की जिंदगी में हिंदी को लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया है. दरअसल भारत के दक्षिणपंथी खुद ही स्वीकार करते हैं कि वे वामपंथी बुद्धिजीवियों, रचनाकारों के मुकाबले अपना कोई प्रतितंत्र विकसित नहीं कर पाए है. उनके पास ऐसे बुद्धिजीवी, लेखक भी नहीं हैं जो मुख्यधारा के सामने टिक सकें, हिंदी में ऐसा कोई बड़ा रचनाकार नहीं है जिसे शुद्ध रूप से दक्षिणपंथी कहा जा सके. इसलिए हिंदी को मोदी और अमिताभ से अपना काम चलाना पड़ रहा है.

संघ परिवार का हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का एजेंडा जगजाहिर है, आयोजन की भाषा शैली में यह बात बखूबी निखर कर आती है, जैसा कि केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने समापन समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि “एक भाषा के रूप में हिंदी न सिर्फ भारत की पहचान है बल्कि यह भाषा हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक, संप्रेषक और परिचायक भी है”. मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भी हिंदी को भारत के माथे की बिन्दी बताते हुए इसे राष्ट्रीय अस्मिता और देश के स्वाभिमान का प्रतीक करार दिया. विश्व हिंदी सम्मेलन की आयोजन समिति का उपाध्यक्ष अनिल माधव दवे को बनाया गया जो राष्ट्रीथय स्व यंसेवक संघ के प्रचारक रह चुके हैं. शिवराज सिंह चौहान द्वारा घोषणा की गयी कि अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय को अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप दिया जाएगा. यह वही अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय है जहां “संस्कारवान संतान” के लिए पाठ्यक्रम शुरू किया है. जिसका मक़सद गर्भवती महिलाओं को हिंदू संस्कारों और गर्भ संवाद के ज़रिए ‘स्वस्थ’ और ‘बुद्धिमान’ शिशु पैदा करने में मदद करना है.

यह पूरी तरह से राजकीय सम्मेलन था जहां आम लोगों को शामिल होने के लिए 5000 रुपए रजिस्ट्रेशन फीस रखी गयी थी, भीड़ जुटाने के लिए मध्यप्रदेश हर जिले के जिलाधिकारी को 50 से लेकर 500 तक शिक्षकों और प्राचार्यो को सम्मेलन में भेजने का लक्ष्य दिया गया था. मंच पर केंद्र और राज्य सरकार के नौकरशाह और राजनेता ही नजर आये. सत्र भी बड़े सरकारी टाइप थे जैसे ‘गिरमिटिया देशों में हिंदी’, ‘विदेश नीति में हिंदी’, ‘प्रशासन में हिंदी’ एवं ‘विदेशों में हिंदी शिक्षण समस्याएं और समाधान आदि. ऐसा कोई सत्र नहीं था जिसमें हिंदी के लोकव्यापीकरण के लिए जनता की भागीदारी पर चर्चा की गयी हो. इसी वजह से यह पूरी तरह से एकतरफा और सरकारी समाधान का अनुष्ठान बनके रह गया.

यह आयोजन विदेश मंत्रालय का था और मध्यप्रदेश सहभागी राज्य था. विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के चौहान के रिश्ते नरेंद्र मोदी के साथ कभी भी स्वाभाविक नहीं रहे हैं. लेकिन इधर भाजपा में मोदी-शाह की जोड़ी के उभार के बाद यह दोनों नेपथ्य में हैं और अपने आप को बचाये रखने की कवायद में ही व्यस्त रह गये हैं. पिछले दिनों यह दोनों ललितगेट और व्यापमं को लेकर संकट में थे और इससे भाजपा नेतृत्व व मोदी सरकार की काफी किरकिरी भी हुई थी. फिलहाल पार्टी में हाशिये पर चल रहे सुषमा और शिवराज ने इस सम्मलेन का इस्तेमाल नरेन्द्र मोदी को खुश करने और उनका विश्वास जीतने के लिए भी किया है. तभी तो पूरे भोपाल को मोदीमय कर दिया गया था, पूरे सम्मेलन की प्रचार सामग्री और आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छाए हुए थे. मुख्य मार्गों पर मोदी के बड़े-बड़े कट आउट लगाये गये थे, ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कि यह हिंदी नहीं मोदी सम्मलेन हो.

शिवराजसिंह चौहान ने तो अपने स्वागत भाषण का आधे से ज्यादा समय मोदी और गुजरात का बखान करने में ही बिता दिया और मोदी को देश के करोड़ों जनता के ह्रदय का हार और वैश्विक नेता संबोधित करते हुए कहा कि ‘उनकी वाणी, स्वभाव और संस्कार में हिंदी है और उन्होंने हिन्दी का मान बढ़ाया है.’ शिवराज ने मोदी की तुलना गांधी से करते हुए कहा कि ‘यह सुखद संयोग है कि 80 साल पहले गुजरात के वैश्विक नेता महात्मा गांधी हिंदी साहित्य सम्मलेन का उदघाटन करने इंदौर आये थे आज उसी गुजरात की धरती से पूरी दुनिया को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से सम्मोहित करने वाले श्रीमान मोदी इस सम्मलेन का उद्घाटन करने पधारे हैं’.

इस सम्मेलन पर सवाल उठाते हुए भोपाल के साहित्यकारों और रचनाधर्मियों द्वारा एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया गया और आरोप लगाया गया कि सम्मेलन में व्यापारिक कंपनियों की भरमार है और उद्घाटन से लेकर समापन समारोह तक के मंचों पर नेता और अभिनेता ही नजर आने वाले हैं. विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी भाषा के साथ-साथ ज्ञान एवं विवेक के प्रवेश पर रोक लगा दी गई. यह कैसा सम्मेलन है, जिसमें हिंदी के वरिष्ठ भाषाविद एवं लेखकों को आमंत्रित नहीं किया गया. यह मांग भी की गयी कि विश्व हिंदी सम्मेलनों से हिंदी का कितना भला हुआ है, इस पर केंद्र सरकार को श्वेत-पत्र जारी करना चाहिए.

लेकिन यह कवायद महज आलोचना बन कर रह गयी इससे विश्व हिंदी सम्मेलन को वैचारिक स्तर पर चुनौती नहीं दी जा सकी. दरअसल हिंदी सम्मेलन पर सवाल खड़ा करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करने का विचार भी 8 सितम्बर को भोपाल के गाँधी भवन में डा.एम.एम.कलबुर्गी की हत्या के विरोध में आयोजित एक सभा में निकल कर आया था, जिसमें भोपाल शहर के लेखक, कवि, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता शामिल हुए थे. यह विरोध ज्यादा रचनात्मक हो सकता था, जैसे कि छोटा ही सही लेकिन इसके बरअक्स एक समानांतर आयोजन किया जा सकता था इसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित होती. इसका असर और सन्देश ज्यादा व्यापक होती और असहमतियां भी स्पष्ट रूप से सामने आ पाती.

बहरहाल तमाम विवादों के बीच सरकार ने इस सम्मेलन को सफल करार दिया है, हिन्दी के बहाने कई हित साध लिए गये हैं, यह सम्मेलन पहली तो पूर्णत: सरकारी सम्मेलन बन कर रह गया. दुर्भाग्य से 10वां विश्व हिंदी सम्मेलन के साथ–साथ इसका विरोध भी बिना कोई छाप छोड़े समाप्त हो गया है.

[जावेद एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]

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