अफ़रोज़ आलम साहिल, Twocircles.net
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी भले ही बीजेपी व आरएसएस को अपना दुश्मन नंबर –वन मानते हों, लेकिन सीमांचल के 24 सीटों का समीकरण बताती है कि यहां ओवैसी के पार्टी के चुनाव लड़ने से सीधा फ़ायदा बीजेपी को ही मिलने वाला है.
दरअसल, बिहार के जिस हिस्से से ओवैसी चुनावी ताल ठोकने को तैयार हैं, वहां पहले से ही मुस्लिम वोटों के बिखराव का इतिहास रहा है और इसी बिखराव में हमेशा से साम्प्रदायिक शक्तियों के पौ बारह होते रहे हैं. ऐसे में इस बात का क़यास लगाया जा रहा है कि ओवैसी के इंट्री पुराने इतिहास को और भी धार देने का काम करेगी और बीजेपी की इस चुनाव में डूबती नैय्या को मज़बूत सहारा मिल जाएगा.
देश में जब मंडल की आंधी चली तो 1990 के विधानसभा चुनाव में सीमांचल के 23 सीटों में से 21 सीटों पर सेक्यूलर पार्टियों को ज़बरदस्त जीत मिली, लेकिन 2010 आते-आते इस क़िले की नींव पूरी तरह से दरक गई.
2010 के विधानसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि बीजेपी सीमांचल के 24 सीटों में से 13 सीटें हासिल करने में कामयाब रही थी. जबकि 3 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही. ये चुनाव बीजेपी जदयू के साथ गठबंधन में लड़ी थी. जदयू को भी यहां 5 सीटों पर जीत मिली थी, 2 सीटों पर दूसरे नंबर रही. ये फ़ायदा बाकी पार्टियों के अलग-अलग चुनाव लड़ने की वजह से मिला.
इस चुनाव में राजद को सिर्फ़ 1 सीट पर ही कामयाबी मिली, जबकि 4 सीटों पर राजद दूसरे स्थान पर रही. लोजपा की भी यही कहानी रही. उसने भी 1 सीट पर जीत हासिल की और 4 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही. कांग्रेस को यहां 3 सीटों पर कामयाबी मिली थी, जबकि 5 सीटों पर वो दूसरे स्थान पर रही थी. एनसीपी यहां कुछ नहीं कर पाई, लेकिन 4 सीटों पर दूसरा स्थान पर ज़रूर रही.
जब इन सीटों का गहराई से आंकलन करें तो हम पाते हैं कि इन 24 सीटों में 10 सीट ऐसे हैं, जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 50 फ़ीसद से उपर है. वहीं 5 सीटों पर मुस्लिम वोटरों की संख्या 30 से 40 फ़ीसद के बीच है.
इन 15 सीटों में से 8 सीट पर बीजेपी की जीत हुई. सिर्फ एक कोचाधामन सीट पर राजद जीत पाई थी, बाद राजद के इस विधायक ने 2014 में इस्तीफ़ा दे दिया, वो अब ओवैसी के साथ हैं.
इस बार स्थिति थोड़ी ज़रूर बदली है. लोजपा जहां बीजेपी के साथ है, तो वहीं जदयू, राजद और कांग्रेस एक साथ हैं. ऐसे में महागठबंधन को सीटों का फ़ायदा मिलने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन यहां एनसीपी के अलग चुनाव लड़ने व ओवैसी के मजलिस का चुनाव लड़ने से फिर यह क़यास लगाया जाने लगा है कि यहां मुस्लिम वोटों का बिखराव होगा, जिसका सीधा फ़ायदा बीजेपी को ही मिलने वाला है.
देश भर के मुस्लिम इंटीलेक्चुअल्स का मानना है कि इस बार ओवैसी की पार्टी को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. ऐसा वो इसलिए नहीं कह रहे हैं कि वो ओवैसी के विरोधी हैं, बल्कि वो ऐसा इस आधार पर कह रहे हैं कि ओवैसी की पार्टी की अभी तक कोई तैयारी नहीं है. सीमांचल की ज़मीन पर संगठन का कोई ढांचा मौजूद नहीं है. सच तो यह है कि चुनाव जीता सकने वाले उम्मीदवार मौजूद नहीं हैं.
शायद यही वजह है कि वोटों के इस सियासत में कई ज़हीन आवाज़ें ओवैसी को आईने दिखाने की कोशिश लगातार कर रहे हैं. ये आवाज़ें किसी पक्ष या पार्टी के साथ नहीं हैं, बल्कि सिर्फ सूबे की साम्प्रदायिक माहौल ख़राब करने की कोशिशों से सहमी हुई हैं. उन्हें इस बात का अंदाज़ा है कि इस राजनीतिक दांव-पेंच के क्या गंभीर मायने निकल सकते हैं. मगर ओवैसी पर इनका फ़र्क पड़ने की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं है, क्योंकि जहां बात सत्ता की मलाई की हो, वहां कोई सदभाव या सिद्दांत काम नहीं करता है. हालांकि सुत्रों की माने तो मजलिस यहां 4-5 सीटों से अधिक सीटों पर चुनाव नहीं लड़ने वाली.
एक सच्चाई यह भी है कि मजलिस से ज़्यादा शरद पवार की एनसीपी व मुलायम सिंह की सपा इस इलाक़े में अधिक नुक़सान पहुंचाएगी, जिसपर ज़्यादातर मुस्लिम इंटीलेक्चुअल्स खामोश हैं. शायद इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि इन्हें पता है कि शरद पवार व मुलायम सिंह बीजेपी के इशारे पर काम कर रहे हैं. और ओवैसी के विरोध की वजह शायद ओवैसी की पार्टी से ज़्यादा हमदर्दी हो सकती है.
मजलिस के लोगों का कहना है कि ओवैसी सीमांचल के विकास के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं. लेकिन कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष मिन्नत रहमानी का कहना है कि –‘ओवैसी सीमांचल व मुसलमानों से हमदर्दी की बात करते हैं, हैदराबाद में जहां वो खुद सांसद हैं, पहले वहां के हालात तो बदल कर दिखाएं.’
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि ओवैसी की राजनीति पूरी तरह से ध्रुवीकरण पर आधारित है. यह ध्रुवीकरण दो तरीक़ों से काम करता है- एक उनकी पार्टी के लिए और दूसरा मुस्लिम वोटों के बड़े बिखराव के लिए… और ये बिखराव चुनावी समीकरणों को एक सिरे से उलट देने की क़ुव्वत रखता है.
ऐसे में जब इस बार बीजेपी व उसके सहयोगी दल महागठबंधन के हाथों बुरी तरह से पिछड़ते नज़र आ रहे हैं. ये बिखराव उन्हें जोड़-तोड़ करने और साम्प्रदायिक समीकरणों का भरपूर फ़ायदा उठाने में खासा मददगार साबित होगा.
हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि मुसलमान वोटरों में एक तबक़ा ऐसा है, जो सभी बड़ी सियासी पार्टियों को आज़मा चुका है और उनके नतीजे भी देख चुका है. ओवैसी की पार्टी इसी मानसिकता को भुनाने में ज़ोर-शोर से जुटी हुई है. महाराष्ट्र के बाद उत्तर प्रदेश चुनाव में जाने और इस बार बिहार के सीमांचल से चुनाव लड़ने का ऐलान इसी सोच को भुनाने की एक कड़ी है.