अंधियाती पत्रकारिता के बीच ‘मूनिस’ का उजाला

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

मुज़फ़्फ़रनगर दंगा हो या जेएनयू में देशद्रोह की बहस, इस पूरे मजमून में सबसे ज़्यादा सवाल यदि किसी के चरित्र पर उठा है, तो वह मीडिया के. ख़ास तौर पर इन दोनों ही घटनाओं ने जिस तरह से समाज और उसकी सोच को बांटा है, वैसे ही मीडिया की भूमिका को इसने कटघरे में भी खड़ा किया है.


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हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि मीडिया के चरित्र पर सवाल उठाए गए हों. मीडिया के चरित्र पर यह सवाल हमेशा से उठता रहा है. लेकिन इस बात पर भी एकमत नहीं हो जाना चाहिए कि मीडिया भ्रष्टाचार और अनियमितताओं से ग्रस्त है. यहां भी कुछ अच्छा हो रहा है और होता रहा है.

दस साल पहले गांधी के सत्याग्रह आंदोलन पर एक शोध करते हुए चम्पारण में मेरा परिचय एक ऐसी शख़्सियत से हुआ जो पत्रकारिता जगत के लिए न सिर्फ़ मिसाल, बल्कि एक सबक़ व आदर्श भी है. पीर मुहम्मद मूनिस के नाम से मशहूर इस पत्रकार की क़लम इतनी आक्रामक थी कि अंग्रेज़ इन्हें आतंकी व बदमाश पत्रकार कहने लगे थे. शायद इस दौर में भी ऐसी भयभीत शक्तियां सक्रिय हैं जो इनके नाम को किताबों से गायब करने में लगी हुई हैं.

Pir Muhammad Munis Award

भारत के एक बड़े पत्रकारिता संस्थान में पढ़ाई के दौरान अपने ही जिले से जुड़े हुए आज़ादी के मुजाहिद और पत्रकारिता में ऐतिहासिक योगदान देने वाले इस पीर मुहम्मद मूनिस के नाम से अनजान था. ‘जर्नी ऑफ चम्पारण’ बनाने के दौरान एक बार उनका नाम आया लेकिन ज़ेहन पर कोई छाप छोड़े बिना ही मामला गुज़र गया.

इस पीढ़ी, पहले वाली पीढ़ी और साहित्य रसिकों के बीच मौजूद रहे पत्रकारों में भी पीर मुहम्मद मूनिस का नाम अभी भी नहीं अपनी जगह बना पाया है. पीर मुहम्मद मूनिस को जानने के बाद एक सवाल ज़ेहन में कौंधता है कि आख़िर क्यों इतिहास, समाज और राष्ट्र ने क़लम के इस सिपाही को नज़रअंदाज़ कर दिया?

क़लम से क्रांति करने वाले मूनिस उस दौर में भारत की शोषित-पीड़ित जनता की आवाज़ बने थे. जब ब्रिटिश हुकूमत अपनी ताक़त के चरम पर थी, उन्होंने क़लम से न सिर्फ क्रांति व विद्रोह का बिगुल बजाया बल्कि बेहद गंभीरता से धर्मनिरपेक्षता का पक्ष भी सामने रखा. उन्होंने न सिर्फ ब्रिटिश हुकूमत बल्कि भारतीय समाज में गहरी पैठ रखने वाले धर्म के ठेकेदारों के ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोला और इसकी बेहद भारी क़ीमतें भी चुकाईं.

यह मूनिस के क़लम का जादू ही था कि महात्मा गांधी चम्पारण चले आए और भारत में सत्याग्रह का आग़ाज़ किया. पहली बार ब्रिटिश हुकूमत अहिंसा के आगे झुकने पर मजबूर हुई. आज भारत का हर पढ़ा-लिखा नागरिक चम्पारण सत्याग्रह और गांधी के नाम से तो वाक़िफ़ है, लेकिन पीर मुहम्मद मूनिस से नहीं. ऐसा क्यों? यही सवाल बेचैनी पैदा करता है.

पीर मुहम्मद मूनिस के गृहनगर बेतिया में ही इसी साल उनकी याद में आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करने का मौक़ा मिला. इस कार्यक्रम में जाने-माने टीवी पत्रकार रवीश कुमार को ‘पहला पीर मुहम्मद मूनिस पत्रकारिता अवार्ड’ दिया गया. इस मौक़े पर रवीश कुमार ने अपनी खुशी का इज़हार इन शब्दों में किया, ‘मैं आज खुद को प्रताप अख़बार-सा महसूस कर रहा हूं. ऐसा लग रहा है कि मेरी रूह पर मूनिस साहब लिख रहे हैं और गणेश शंकर विद्यार्थी साहब उस ख़बर को संपादित कर रहे हैं. मुझे लग रहा है कि गांधी इन ख़बरों को पढ़ रहे हैं और चम्पारण आने का मन बना रहे हैं.’

इस मौक़े पर अपने एक संदेश में सभा को संबोधित करते हुए रवीश कुमार ने कहा, ‘मुझे बहुत खुशी है और उससे भी ज़्यादा अफ़सोस कि जिस पत्रकार के नाम पर मुझे यह अवार्ड मिल रहा है, उस पत्रकार को दुनिया ठीक से नहीं जान सकी. जिन लोगों ने उनकी याद को ज़िन्दा किया है, दरअसल वही इस पुरस्कार के असल हक़दार हैं.’

रवीश कुमार के वक्तव्य के बाद से कई गहराईयों से मेरे ज़ेहन में सवाल उठने लगे कि क्या रवीश कुमार को आज के ज़माने का मूनिस कहा जा सकता है? शायद नहीं. क्योंकि पीर मुहम्मद मूनिस जिस वर्ग और समाज के लिए पत्रकारिता कर रहे थे. किसानों पर होने वाले जिन ज़ुल्मों को वे अपनी क़लम के मार्फ़त दुनिया से रूबरू करा रहे थे, वह काम रविश कुमार अभी तक नहीं कर सके हैं और शायद उनकी संस्था इसे करने की इजाज़त भी न दे. क्योंकि मूनिस को टीआरपी की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन आज के दौर के पत्रकारों व संस्थानों को है.

सच तो यह है कि चम्पारण को आज भी मूनिस की ज़रूरत है. अंग्रेज़ ज़रूर चले गए, लेकिन आज भारतीय ही देश के किसानों का खून चूस रहे हैं और बोलने वाला कोई नहीं है.

पत्रकारिता जगत की एक सचाई यह भी है कि इंडस्ट्री बन चुके इस संस्थान में आज भी कुछ ख़ास तबक़े से आए लोगों का ही बोलबाला है. दलितों व मुस्लिमों की मौजूदगी आज भी देश के न्यूज़रूमों में न के बराबर है. मुस्लिम पत्रकारों के नाम तो आप ऊंगलियों पर ज़रूर गिन सकते हैं, लेकिन दलित तो रस्म-अदायगी भर के लिए भी नहीं है.

यह लगभग पूरी विडम्बना ही है कि पत्रकारिता की भूमिका समाज को जागृत करने की थी. इसकी भूमिका जायज़ सवाल उठाने की थी, सरकारों को कटघरे में खड़ा करने की थी. लेकिन आज वही पत्रकारिता आज अपने चरित्र की वजह से समाज को बांट रही है. सरकार की गुलाम बन चुकी है. लेकिन इसके लिए किसी एक संस्थान या पत्रकार को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, इसे होने देने में समूची पत्रकार बिरादरी की साझा ज़िम्मेदारी है. बल्कि उतनी ही जिम्मेदारी पाठकों व दर्शकों की भी है. रवीश कुमार के ही शब्दों में ‘एक कमज़ोर अख़बार, एक कमज़ोर पत्रकार आपको लाचार बनाता चला जाएगा.’

आख़िर में अपने मन की कहने की हिम्मत कर रहा हूं. ये बात चम्पारण के, बिहार के, भारत के मौजूदा हालातों से जुड़ी है. अविश्वास और डर के वे हालात जिनसे आप भी वाक़िफ़ हैं, हम सब वाक़िफ़ हैं और भारत का हर वो दानिशमंद भी वाक़िफ़ है, जिसके दिल में इस देश के भाईचारे, शांति और तरक़्क़ी के ख़्यालात और फ़िक्र हैं. गुमराही, भटकाव और वैचारिक अंधकार के इस दौर में हमें मूनिस के विचारों को अपनाने की ज़रूरत है. मूनिस के विचार हैं कि शोषण के ख़िलाफ़ बुलंद आवाज़, हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के लिए हर मुमकिन प्रयास और शासकीय दमन के ख़िलाफ़ लड़ने का जज़्बा. मौजूदा हालात में हमें इन ख़्यालों को न सिर्फ अपने ज़ेहन में पैदा करना है, बल्कि अपने किरदार में भी उतारना है.

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