फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
डेहरी ऑन सोन(बिहार): ऐसे कई नाम हैं जो इंसाफ़ की लड़ाई को अपनी ज़िन्दगी का मक़सद बना लेते हैं. फिर पूरी ज़िन्दगी वे अपने इसी मक़सद को पाने में लगे रहते हैं. बड़े शहरों में ये नाम बड़े सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर देखे जाते हैं, लेकिन छोटे शहरों में ये चौक-चौराहों, गलियों व पान की दुकानों में ही गुमनाम होकर रह जाते हैं. इन्हीं छोटे शहरों के गुमनाम नामों में एक नाम है – इज़हार हुसैन अंसारी. डेहरी ऑन सोन की छोटी-सी जगह में इज़हार अब गरीबों के न्याय के झंडाबरदार हैं.
इज़हार साहब ने गरीबों की इंसाफ़ की लड़ाई का बीड़ा उठाया है. इज़हार हुसैन के घरवालों की ख्वाहिश उन्हें डॉक्टर बनाने की थी लेकिन इज़हार हुसैन ने डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़कर वकालत करने की सोची. उनका मानना था कि नाइंसाफ़ी ही लोगों व समाज को बीमार बना रहा है, तो बीमारी की मूल जड़ से हमें इस बीमारी का इलाज़ करना ज़्यादा ज़रूरी है. इसी सोच के साथ इज़हार डॉक्टरी की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वकालत के मैदान में कूद पड़े.
बिहार के गया शहर के टेकारी गांव में पैदा हुए इज़हार ने 12वीं तक की पढाई गया शहर से ही की. आगे की पढ़ाई के लिए वह पटना गए, जहां उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई शुरू की लेकिन बीच में उनको जीवन के एक ऐसी घटना से रूबरू होना पड़ा, जिसने उन्हें मेडिकल से वकालत में आने पर मज़बूर कर दिया.
घटना का ज़िक्र करते हुए इज़हार हुसैन बताते हैं, ‘मुझे किसी काम के सिलसिले में कोर्ट जाना पड़ा था. जिस वकील से मुझे मिलना था वे मेरे पिता जी के दोस्त हुआ करते थे. वहां पर उनके कुछ क्लाइंट थे, उनमें एक बुजुर्ग शख्स को हाथ जोड़े रोते हुए वकील से आग्रह करते हुए देखा. वे बुजुर्ग अपनी ज़िन्दा जलाई हुए बेटी को इन्साफ़ दिलाने की बात कर रहे थे लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वकील की फीस दे पाते. रियायत के लिए पैर पकड़ कर रोते हुए उस शख्स को देखकर जहां मुझे हैरानी हुई वहीं बहुत से सवाल ज़ेहन में चलने शुरू हो गए. उन्हीं चंद घंटों में मैंने ये फैसला कर लिया कि मुझे डॉक्टर नहीं बनना, बल्कि अब वकालत में आना है.’
उसके बाद उन्होंने लॉ कॉलेज में दाखिला के लिए तैयारी शुरू कर दी. पटना लॉ कॉलेज में दाखिला भी मिल गया. इज़हार हुसैन बताते हैं, ‘मेरे इस फैसले से मुझे काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. मुझे घर से निकाले जाने की धमकी मिली. इन सबके बावजूद मैंने अपना फैसला नहीं बदला और पढ़ाई करता रहा.’
साल 1993 में पटना लॉ कॉलेज से पढ़ाई पूरी करके इज़हार हुसैन ने वकालत की प्रैक्टिस शुरू की. आज 23 साल के वकालत के इस सफ़र में उन्होंने 15 हज़ार से भी ज्यादा मुक़दमे लड़े हैं, जिनमें से इन्होंने 7 हज़ार से भी अधिक मुक़दमे बिना किसी फीस के ही लड़े.
इज़हार सच्चर कमिटी की रिपोर्ट को आधार बनाकर आगे बताते हैं कि कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिम समाज की हालत बद से बदतर है. लेकिन सचाई इससे अलग है. रिपोर्ट में जितना ज़िक्र है, उससे भी ज़्यादा बुरे हालत में इस समय मुस्लिम समुदाय में है. कोर्ट में लाखों मामले अपीयरेंस का है, दहेज़ के मामले, 498(A) के मामले हैं, मेंटेनेंस के मामले हैं. सभी यूं ही लंबित पड़े हुए हैं.
बकौल इज़हार, ‘कोर्ट में औरतों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है. 498(A) के मुक़दमों में लड़का केस के दौरान ही शादी कर लेता है, लेकिन लड़कियों की शादियां नहीं हो पाती हैं. क्योंकि क़ानून के हिसाब से लड़के से बिना तलाक़ वो शादी नहीं कर सकती. इतना ही नहीं, ज़मीनी मामले, दीवानी मामले भी कोर्ट में बहुत आते हैं और इनमें ज़्यादातर मामले मुस्लिमों के ही होते हैं.’
इज़हार ज़्यादातर शादी से जुड़े मामले देखते हैं क्योंकि इन मामलों में ज्यादातर गरीब परिवारों से आते हैं. ऐसे परिवार जिनके पास खाने को कुछ नहीं होता, लेकिन लड़की को ब्याहने के लिए वे लड़के को दहेज़ देते हैं, फिर भी उनकी लड़की प्रताड़ना की शिकार होती रहती है.
इन्हीं चीज़ों को देखते हुए इज़हार हुसैन ने गरीबों का मुक़दमा मुफ्त में लड़ने का फैसला लिया. कई बार कागजों में लगने वाले मामूली पैसे भी इज़हार अपनी जेब से खर्च कर देते हैं. अब रोजाना ग़ुरबत में जी रहे लोगों के इन्साफ का मसला इज़हार हुसैन की दिनचर्या में तब्दील हो गया है.
इजहार हुसैन के एक मुवक्किल शमीम अहमद डेहरी में रिक्शा चलाते हैं. शमीम ने अपनी बेटी की शादी पास के ही गांवों में की थी, लड़का दिल्ली में राजमिस्त्री का काम करता था. बेटी को एक बार ससुराल ले गया था. बाद में एक साल हो जाने के बाद भी उसको ले जाने से इंकार करने लगा, बाद में पड़ताल के बाद पता चला कि दिल्ली में लड़के ने एक और शादी कर ली थी.
शमीम अहमद रोते हुए बताते हैं, ‘लड़के के घरवालों ने धारा 420 के तहत केस कर दिया. कोर्ट और वकील की फीस के लिए उनके पास पैसे नहीं थे. घर में दो वक़्त की रोटी भी मुश्किल से चलती थी. बहुत-सी मुश्किलों का सामना करने के बाद किसी ने हुसैन साहब का ज़िक्र किया.’
फ़िर शमीम बताते हैं की इज़हार हुसैन की बदौलत उन्हें जमानत मिली और उनकी दो बेटियों की शादी के लिए इज़हार साहब ने मदद भी की. केस को खत्म हुए एक साल से ज्यादा होने को हैं. शमीम बताते हैं कि उनके कोर्ट जाने का किराया भी हुसैन साहब देते हैं.
इज़हार हुसैन की एक और मुवक्किल रिंकी यादव बताती हैं कि उनके साथ हुई घरेलू हिंसा के खिलाफ़ न्याय की लड़ाई में कैसे इज़हार हुसैन ने उनका साथ दिया, ‘जब मैंने अपने पति से तलाक लेने की बात कही तो ससुरालवाले और ज्यादा जानवरों वाला सलूक करने लगे. भागकर जब अपने मायके आई तो वहां भी मेरा साथ देने वाला कोई नहीं था. भाई और पिता ने समाज और कोर्ट कचहरी के खर्चे की दुहाई देते हुए किसी भी मदद से साफ़ इंकार कर दिया. तब मैं अपने केस के साथ हुसैन साहब के पास आई. दो साल के बाद आज रिंकी अपने पति से अलग रह रही हैं, उनका एक बेटा भी है और आज खुद वह एक आंगनबाड़ी केंद्र चलाती हैं.
रिंकी बताती हैं कि उनके पास केस के लिए रूपए नहीं थे लेकिन हुसैन साहब ने बिना किसी फीस के उनका केस लड़ा और आज वो अपने बेटे के साथ खुशहाल ज़िन्दगी गुज़ार रही हैं.
अपने पास आने वाले मुकदमों का ज़िक्र करते हुए इज़हार बताते हैं कि एक दहेज़ का मामला था, जिसमें ट्रायल के दौरान कोर्ट के आर्डर पर लड़की को ससुराल जाने का आर्डर पास किया गया, लेकिन वो जाना नहीं चाहती थी. परिवार के दबाव में आकर जब ससुराल गई तो ठीक बारहवें दिन उसकी मरने की ख़बर आई. उसके पति ने उसको चूहे मारने वाली दवा देकर उसे मार दिया था. एक ऐसे ही दूसरे मुक़दमे के बारे में वे बताते हैं कि एक सप्ताह के अंदर ही ससुराल के जुल्म से लड़की ने आग लगाकर जान दे दी थी. ऐसे मामले खूब आते हैं. इज़हार हुसैन यह भी बताते हैं कि कई मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें लड़के ही झूठ ही टार्चर हो रहे होते हैं. इज़हार का दावा है कि 23 साल के करियर में कौन सच और कौन झूठ बोल रहा है, ये मुवक्किल का चेहरा देखते ही पता चल जाता है.
आखिर में तुलसीदास को याद करते हुए इज़हार कहते हैं, ‘भय बिनु होई न प्रीत’ ज्यादा कारगर समीकरण है. कानून सभी के ऊपर है और क़ानून का पुख्ता हक़ सभी को मिलना चाहिए. सामाजिक बदलाव के लिए सिर्फ़ कानून ही नहीं, दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पित लोगों की आवश्यकता होती है.’
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