उत्तर प्रदेश : दलित वोटों का बंटवारा और बसपा का विकल्प

विद्या भूषण रावत

उत्तर प्रदेश में बहुजन और दलितों का नेतृत्व करने वालों की कतार लग गयी है. ये कोई बुरी बात नहीं है क्योंकि लोकतंत्र में ऐसा होगा. पिछड़ी जातियों की भी तमाम पार्टियां बन चुकी हैं और हर एक जाति भी अपनी एक पार्टी बना रही है. समस्या यह नहीं कि जातियां पार्टी बना रही है बल्कि यह कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएं पार्टियां बनवा रही हैं. इस व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को ‘समाज’ की ‘चाहत’ का नाम दे दिया जा रहा है.


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इन दलों में आतंरिक लोकतंत्र नहीं है. अस्मिताओं की राजनीति करने वाले अपने से नीचे और हाशिये पर रहने वालों की अस्मिताओं और महत्त्वाकांक्षाओं को वैसे ही नकारते हैं, जैसे हिंदुत्ववादी दलितों और पिछड़ों की अस्मिताओं को ‘हिन्दू’ धर्म को तोड़ने की साजिश. असल में जिसे प्रतिनिधत्व नहीं मिलेगा, वह दूसरी तरफ जाएगा.

हालांकि छोटी संख्या वाली जातियो की मांगे गैरवाजिब नहीं हैं. मेरी निजी राय में यह दुखद बात होगी कि दलितों की महादलित जातियां या पिछड़ों की अतिपिछड़ी जातियां हिंदुत्व के खेमे में जाएं. लेकिन यहां मूल समस्या राजनैतिक भागीदारी की है. इसके लिए बड़ी जातियों को दिल बड़ा करना पड़ेगा और कुछ स्पेस कम संख्या वाली जातियो को देना पड़ेगा. बसपा के शुरूआती दौर में कांशीराम ने उन तमाम छोटी-छोटी जातियो को गोलबंद किया, जिनका प्रतिनिधित्व नहीं था. इसलिए मौजूदा समय में बसपा को वह कार्य नहीं छोड़ना चाहिए.

उत्तर प्रदेश का चुनाव केंद्र की सरकार के कार्यो के बारे में जनता की राय भी होगा. राज्य में इस चुनाव में अच्छी पोजीशन के लिए भाजपा दलित वोट को विभाजित करने, पिछड़े वोट में गैर-यादव वोट को अपने पक्ष में लाने के लिए तरह तरह के तिकड़म कर रही है. इसलिए यह देखना जरुरी है कि बतौर प्रत्याशी जिनको खड़ा किया जा रहा है, वे कौन हैं? वे सभी क्यों एक ही जाति में जा रहे हैं? क्या उत्तर प्रदेश के दलित खुद पर हो रहे अत्याचारों को भुला दें? रोहित वेमुला की घटना से लेकर, नौकरियों में आरक्षण के प्रश्न, गुजरात, मध्य प्रदेश में गौरक्षा के नाम पर दलितों और मुसलमानो का उत्पीडन और दलित छात्रों की छात्रवृत्तियों को बंद करना या कम करना सभी को याद होना चाहिए. आज हिंदुत्व ब्रिगेड कही पर भी किसी को नहीं बख्श रही है और कानून व्यवस्था की स्थिति पूर्णतः चरमरा गयी है. उत्तर प्रदेश के लोग मुजफ्फरनगर, दादरी, कैराना, शामली को कैसे भूल सकते हैं जहां प्रदेश की सरकार ने हाथ-पांव खड़े कर दिए. मथुरा में जय गुरुदेव के नाम से जो फौज इकट्ठा होकर ईमानदार पुलिस अधिकारी को मार दे रही है उसकी जांच कहां तक पहुंची, किसी को नहीं पता. न ही इस पर कोई चर्चा ही होती है. अभी इटावा में एक नट समाज के दम्पति को जिस बेरहमी से मात्रा १५ रुपये के उधार न देने के लिए मार दिया गया, वह दिखाता है कि दलितों और अति दलितों की स्थिति उत्तर प्रदेश में कैसी है?

हम नहीं जानते कि प्रदेश सरकार ने दलित पिछड़े आरक्षण के प्रश्न पर क्या रवैया अपनाया है? यह भारत में पहली बार हुआ है जहां प्रदेश की सरकार ने खुले तौरपर ट्रेड यूनियनों को अनुसूचित जातियों के प्रमोशन में आरक्षण के खिलाफ भड़काया. इलाहबाद में पिछड़े वर्ग के छात्रों ने UPSC में आरक्षण के लिए जो लड़ाई लड़ी उसे कोई सहयोग नहीं दिया.

आज एक चुनौती है कि कैसे हिंदुत्ववादी ताकतों को उत्तर प्रदेश में ध्वस्त करें. हम जानते है कि दलितों, पिछड़ों, मुसलमानो, आदिवासियों और अन्य प्रगतिशील लोगो में चिंता व्याप्त है और सभी दक्षिणपंथी शक्तियों को हराना चाहते हैं लेकिन अगर उसे करके दिखाना है तो कैसे? क्या हम केवल ‘भाजपा हराओ’ का नारा देकर ध्वस्त कर सकते हैं? उत्तर प्रदेश में हमें एक विकल्प को चुनना होगा, नहीं तो वोट का विभाजन इन दक्षिणपंथी पार्टियों को सबसे ज्यादा ताकत देगा. इस निर्णय पर पहुंचना होगा कि दलित और पिछड़ों के हित कहां सुरक्षित हैं.

उत्तर प्रदेश में दलित वोटो का विभाजन केवल सवर्ण पार्टियों को लाभ पहुंचाएगा. हम सब जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में मुख्य पार्टियों में बसपा, सपा, भाजपा और कांग्रेस खड़ी हैं और आज तक पार्टियां सत्ता में २९ से ३० प्रतिशत के वोटों के आधार पर आयी हैं. दलितों के वोट को विभाजित कर भाजपा सत्ता में आना चाहती है. दलित संगठन और पार्टियां मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, हरियाणा और अन्य राज्यों को भी अपना केंद्र बना सकते हैं और उत्तर प्रदेश में मेहनत करके २०२१ के चुनाव की तैयारी कर सकते हैं. बसपा को भी बदलना पड़ेगा और वृहत्तर दलित बहुजन समाज के अंदर जो अपेक्षाएं हैं, उनपर खरा उतरना पड़ेगा. हम केवल इन चुनावो की महत्त्ता को देखकर बात कर रहे हैं क्योंकि चुनाव लड़ना और न लड़ना ये लोगो का व्यक्तिगत अधिकार है. बसपा ने हिंदूवादी ताकतों के साथ समझौते की गलती की थी लेकिन उसने उससे सबक सीख लिया और इस पार्टी से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह मज़बूती से अपनी विचारधारा पर कायम रहेगी.

[लेखक दलित विमर्शकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. ये उनके अपने विचार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]

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