अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
असली आज़ादी कहां गूंज रही थी? लाल क़िले से या फिर छत्तीसगढ़ के गोमपाड़ गांव से. यह सवाल अब भी मेरे ज़ेहन में कौंध रहा है.
मैं उस जगह पर मौजूद था, जहां आज़ाद हिन्दुस्तान के इतिहास में आज तक तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया था. ये छत्तीसगढ़-आंध्र प्रदेश की सीमा पर स्थित छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के कोंटा पंचायत से तक़रीबन 25 किलोमीटर जंगल के अंदर पूरी तरह से नक्सल प्रभावित गांव गोमपाड़ है. यहां आज तक न किसी सरकारी मशीनरी, न किसी गैर-सरकारी संगठन और न ही किसी मिलिट्री-पुलिस की हिम्मत पड़ी कि यहां आकर देश का राष्ट्रीय झंडा तिरंगा फहरा दे.
मैंने इस इतिहास को बनते देखा. उस जगह पर गांव वाले आज़ादी के 70 सालों के बाद पहली बार स्वतंत्रता दिवस के दिन तिरंगा को फहरा रहे थे, जहां अब तक नक्सली विरोध दिवस मनाकर काला झंडा फहराते आए हैं.
ये वही वक़्त था जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिल्ली के लाल क़िले के प्राचीर से आदिवासियों-दलितों के हक़ में आवाज़ बुलंद कर रहे थे. मगर असली आदिवासी कहां हैं और किस हालत में हैं, ये मुझे गोमपाड़ गांव बता रहा था.
सच पूछे तो देश के उस हिस्से में जहां विकास का सूरज आज तक नहीं निकला है, वहां तिरंगा फहराया जाना एक बहुत बड़ी घटना थी. वह भी तब जब इस तिरंगे को किसी प्रशासनिक अधिकारी, नेता या मंत्री की जगह एक छोटी-सी बच्ची ने फहराया हो, जिसके बड़ी बहन मड़कम हिड़मे को पुलिसिया तंत्र ने ‘नक्सली’ बताकर मार दिया हो.
हैरानी इस बात की थी, जिन भोले-भाले गांववालों को हम अक्सर नक्सल समर्थक या देश विरोधी कहकर खारिज कर देते हैं, वही यहां अपने हाथों में तिरंगा लेकर देश की शान बढ़ा रहे थे. उस तथाकथित नक्सली की मां यहां ज़ोरदार भाषण देती है और तिंरगे की मांग करती है और कहती है कि मैं इस तिरंगे को तब तक संभालकर रखूंगी जब तक मेरी बेटी को भारतीय न्यायालय से इंसाफ़ नहीं मिल जाता. जिस दिन मुझे इंसाफ़ मिल गया, उसी दिन मैं इस तिरंगे को इस घाटी में हमेशा के लिए फहरा दूँगी.
मुझे अफ़सोस इस बात का है कि मड़कम हिड़मे की बातों को यहां लिखने वाला या तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया में इसे हाईलाईट करने वाला कोई नहीं था. जबकि मड़कम हिड़मे की मां लक्ष्मी ने जो बातें रखी वो बातें पूरे देश को झकझोर कर रख देती हैं.
बताते चलें कि यह गोमपाड़ वही जगह है जहां 13 जून 2016 को एक युवती मड़कम हिड़मे को नक्सली बताते हुए ‘मुठभेड़’ में मार दिया गया था. लेकिन यहां के स्थानीय निवासी व सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता इसे सुरक्षाबलों द्वारा किया गया फ़र्जी मुठभेड़ में की गई हत्या बताते हैं. इस मामले को लेकर सोनी सोरी सहित अनेक सामाजिक-राजनैतिक संगठन गोमपाड़ से बिलासपुर हाईकोर्ट तक संघर्ष कर रहे हैं. इनके संघर्षों के नतीजे में यह बस्तर का पहला मामला बन गया है जिसकी न्यायिक जांच के आदेश दे दिए गए हैं.
यहां यह भी स्पष्ट रहे कि यहां झंडा फहराने का ऐलान सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने किया था. जिसके लिए 9 अगस्त को दंतेवाड़ा के अम्बेडकर चौराहा से सोनी सोरी ने हाथों ‘पुलिस हत्या’ से अनाथ हुए हुर्रे के तीन महीने के बच्चे को गोद में लेकर डॉ. अम्बेडकर के प्रतिमा को माल्यार्पन कर ‘अगस्त क्रांति –तिरंगा यात्रा’ की शुरूआत की.
इस यात्रा में देश के अलग-अलग हिस्सों से आए लगभग 50 कार्यकर्ता पैदल यात्रा करते हुए तक़रीबन 200 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए 14 अगस्त की शाम गोमपाड़ पहुंचे. रास्ते में जगह-जगह आदिवासियों ने इनका स्वागत किया, लेकिन इन्हीं रास्तों में इन्हें कई जगह प्रशासन ने अपने अंदाज़ में रोकने की कोशिश भी की. रास्ते में जगह-जगह इन पद-यात्रियों की तस्वीरें खींची गई. इन्हें कई तरह से डराया गया. बंदूकें तानी गईं. लेकिन इन कार्यकर्ताओं के हौसलों के आगे ये सारे ‘टोटके’ नाकाम साबित हुए. 14 अगस्त की रात को जंगल में नक्सलियों की भी मीटिंग आयोजित हुई और संदेश भिजवाया गया कि तिरंगा न फहराया जाए. लेकिन सोनी सोरी पर इन संदेशों का कोई असर नहीं हुआ और 15 अगस्त को सबसे पहले मड़कम हिड़मे को श्रद्धांजलि देते हुए तिरंगा उसी जगह फहराया गया, जहां दादा लोग (बस्तर में गांव वाले नक्सलियों को दादा कहते हैं) अभी तक काला झंडा फहराकर विरोध दिवस मनाते आए हैं.
जब सोनी सोरी स्थानीय भाषा गोंडी में भाषण दे रही थी तो भीड़ में से कई नवयुवक एवं नवयुवतियां बहुत सधे हुए अंदाज़ में भाषण व झंडे का विरोध भी कर रहे थे. पूछने पर पता चला कि उनका यह विरोध इसलिए है कि आज़ाद भारत में उनके ऊपर बहुत पुलिसिया तंत्र हमेशा से ज़ुल्म करती आई है और शासन की कोई सुविधा उनको उपलब्ध नहीं है. जले पर नमक की तरह उन्हीं पर नक्सल समर्थक होने का इल्ज़ाम भी है. इन गांववालों से बात करने पर स्पष्ट तौर पर पता चल रहा था कि लोकतंत्र के सही मायने उन्हें नहीं मालूम. भारत माता की उनकी नज़र में कोई अहमियत नहीं. जब सोनी सोरी ‘भारत माता की जय’ का नारा लगा रही थी, तब यह आदिवासी निर्भाव व खाली आंखों से खामोशी के साथ देख रहे थे. राष्ट्रीय गान की आवाज़ को वे अचंभित होकर सुन रहे थे, यानी इसके यहां कोई मायने नहीं थे.
खैर, 15 अगस्त बीत चुका है. मैं देश के इस बेहद ही गुमनाम व संवेदनशील गांव से लौट चुका हूं. सीआरपीएफ़ कैम्प की रोशनी फीकी पड़ चुकी है. शहर की सड़कें मेरा इस्तक़बाल कर रही हैं. शहर जहां लाउडस्पीकरों से आज़ादी के तराने अब भी बज रहे हैं. ‘अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं…’ की धुन हवाओं में गुंज रही है. मगर इस ‘आज़ादी’ की ज़रूरत किसे है, ये सवाल लगातार मुझे परेशान कर रहा है.