सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
वाराणसी: पिछली सदी के अंतिम दशक से शुरू होकर भारत सरकार द्वारा कई ऐसी योजनाएं चलायी जा रही हैं, जिनका उद्देश्य प्रमुख रूप से माता और शिशुओं के स्वास्थ्य की रक्षा करना होता है. इनमें से कई योजनाएं भारत में बढ़ रहे कुपोषण को लेकर हैं. लेकिन मौजूदा परिस्थितियों को देखकर यह लग रहा है कि ये योजनाएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी तक ही नहीं पहुंच पा रही हैं.
प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र में इस वक़्त एक लाख से ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. इनमें से पंद्रह हज़ार से अधिक बच्चे अति-कुपोषित की श्रेणी में आते हैं. ये आंकड़े वाराणसी में उत्तर प्रदेश सरकार के बाल स्वास्थ्य विभाग द्वारा कराए गए सर्वे में सामने आए है. इस सर्वे के दौरान लगभग तीन लाख से ज्यादा बच्चों का चिकित्सकीय परीक्षण किया गया था, जिनमें से एक लाख से ज्यादा बच्चे कुपोषण की श्रेणी में पाए गए.
इस संख्या में यह बढ़ाव तेज़ी से हुआ है, क्योंकि ठीक एक साल पहले किए गए सर्वेक्षण में कुपोषित बच्चों की संख्या 40,000 पायी गयी थी. पं. दीनदयाल उपाध्याय जिला अस्पताल में निर्मित पोषण पुनर्भरण वार्ड(Nutrition Rehabilitation Center – NRC) में लगातार बढ़ रहे मरीज़ों की संख्या को देखते हुए यहां के डॉक्टरों का कहना है कि कुपोषित बच्चों की संख्या में इज़ाफा होने के आसार हैं.
वाराणसी में आराजी लाइन विकास खंड में सबसे अधिक बच्चे कुपोषित पाए गए हैं. इस विकासखंड में 3,652 बच्चे कुपोषितों की श्रेणी में आते हैं. चिरईगांव विकास खंड में 2,179 बच्चे, सेवापुरी विकास खंड में 1,666 और हरहुआ विकास खंड में 1,041 बच्चे कुपोषित पाए गए हैं. जिले के अन्य विकास खण्डों में भी कुपोषित बच्चों की संख्या एक हज़ार से दो हज़ार के बीच पायी जा रही है.
यह तो हो गयी वाराणसी के गांवों की बात. वाराणसी के नगरीय क्षेत्र की ओर आएं तो भी हालात अच्छे नहीं हैं. वाराणसी के नगरीय क्षेत्रों में लगभग 5,000 से ज़्यादा बच्चे कुपोषित पाए गए हैं.
हाइड्रोसिफैलस से पीड़ित फलक
इन आंकड़ों से यह साबित हो रहा है कि केंद्र सरकार द्वारा संचालित योजनाएं प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में ही नहीं पहुंच पा रही हैं, इससे बाकी क्षेत्रों का भी अंदाज़ लगाया जा सकता है. हाल के ही दिनों में वाराणसी में कुपोषण के कुछ भयावह मामले देखने को मिले हैं. इनमें से एक मामला वाहिद और शाहज़हां बेगम के बेटे फलक का है. पैदा होने के दौरान फलक बिलकुल सामान्य था, लेकिन कुछ महीनों बाद उसका सिर अपने आकार में बढ़ने लगा. फलक को जब डॉक्टरों को दिखाया गया तो पता चला कि उसके ब्रेन में पानी भर गया है. इस स्थिति को हाइड्रोसिफैलस कहते हैं. फलक को तुरंत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित सर सुन्दर लाल अस्पताल भेज दिया गया, जहां सर्जरी के माध्यम से उसके ब्रेन में जमा पानी निकाला जा सकता था, लेकिन फलक के माँ-बाप ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और वे उसे घर लेते गए.
ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में कुपोषण से निबटने के लिए हथकंडे नहीं अपनाए जा रहे हैं. लेकिन इन कोशिशों के बावजूद वाराणसी में कुपोषित बच्चों की संख्या में लगातार इज़ाफा हो रहा है. पं. दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल में केंद्र सरकार के सहयोग से NRC की स्थापना की गयी है. इस केंद्र में अतिकुपोषित बच्चों की देखभाल के लिए दस बेड का वार्ड है. यह वार्ड लगातार भरा रहता है. बच्चों की माँओं को प्रतिदिन पचास रूपए का सब्सिडीयुक्त भोजन मुहैया कराया जाता है. इसके अलावा केंद्र बच्चों की फीडिंग का भी इंतज़ाम करता है. लेकिन इन सबके बावजूद समीकरण बनने के बजाय और बिगड़ते दिखायी दे रहे हैं.
यहां बतौर न्यूट्रीशन एक्सपर्ट काम करने वाली विदिशा शर्मा जानकारी देती हैं, ‘हमारे लिए पहली चुनौती होती है कि यहां आने वाले कुपोषित बच्चों के वजन में उनके वर्तमान वजन से 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी करने के बाद छोड़ा जाए. कुपोषण से निबटने के लिए यह यूनीसेफ़ के निर्देश हैं. लेकिन अभी सबसे बड़ी समस्या यह आ रही है कि बच्चों के वजन में बढ़ोतरी होने के बाद जब उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज किया जाता है तो उन्हें कुछ दिनों बाद फिर से भर्ती करना पड़ता है.’
जून के महीने में राज्य सरकार द्वारा कराए गए सर्वे में यह पता चला कि वाराणसी में अति-कुपोषित बच्चों की संख्या में एक महीने में 20 का इजाफा हुआ है. इन सबसे ज्यादा चिंताजनक बात इन बच्चों के परिवारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को लेकर है. इसका जायजा लेने के लिए हमने पोषण केंद्र की डॉक्टर से बात की. उन्होंने जानकारी दी कि कुपोषण का भयावह रूप देखने वाले परिवारों में अधिकतर दलित और मुस्लिम समुदाय के लोग हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इसे किसी जाति या धर्म के खांचे में बैठाने के बजाय शिक्षित और अशिक्षित के खांचे में देखना होगा. डॉ. ज्योति अग्रवाल कहती हैं, ‘वाराणसी जैसे शहर में हम जो मामले देख रहे हैं, उनमें दो हो कारण हैं. पहला तो फैमिली प्लानिंग का अभाव और दूसरा सामजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर. ऐसा नहीं है कि हमारे यहां सामान्य जातियों के मरीज़ नहीं आते हैं. वे भी आते हैं. लेकिन यह एक सम्बन्ध ही है कि फैमिली प्लानिंग और बच्चों के रख-रखाव को लेकर धन और शिक्षा से पिछड़ी जातियां ही वंचित हैं. किसी के पास यदि बारह बच्चे हों और उनकी एक दिन की कमाई सौ रूपए से ऊपर न हो, ऐसे में उनके बच्चे कुपोषित नहीं होंगे तो क्या होगा? बच्चों का पोषण ज़रूरी है. उसके लिए समझदारी से काम लेना होगा, तभी बात बन सकेगी.’
वाराणसी में जहां कुपोषित बच्चों की बढ़ी है, वहीँ आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और जिला प्रशासन के सहयोग से ऐसे मामले भी अब तेज़ी से रोशनी में आ रहे हैं. लेकिन एक NRC पर कुपोषित बच्चों का बोझ इतना बड़ा है कि कई मामलों में बच्चे इस सुविधा से वंचित रह जा रहे हैं.
डॉ. अग्रवाल कहती हैं, ‘हमारे साथ सबसे बड़ी समस्या है कि हमारा केंद्र अपनी क्षमता से अधिक काम कर रहा है. हमारे पास दस बेड हैं और नौ लोगों का स्टाफ है. एक पेशेंट को चौदह दिन रखना होता है. उतने दिनों में उसका टारगेट वजन पूरा करना होता है. तो ऐसे जहां हमारी क्षमता एक महीने में बीस बच्चों को ठीक करने की है, वहीँ हम एक महीने में चालीस से भी ज्यादा बच्चों का ट्रीटमेंट कर रहे हैं.’
यही नहीं, कई बार अभिभावक NRC से बच्चों को लेकर अपनी मर्जी से चले जाते हैं. कई बार तो वह एक या दो दिनों में ही चले जाते हैं, वह भी बगैर डॉक्टर को सूचित किए. इस बारे में विदिशा शर्मा और ज्योति अग्रवाल दोनों का कहना है कि पहले तो लोगों को जानकारी नहीं है कि NRC के नाम पर कोई ऐसी जगह है जहां उनके बच्चों की भली-भांति देखभाल की जा सकती है. और पता होने पर यदि वे आते भी हैं तो वह यह मन बनाकर आते हैं कि यह जगह व्यर्थ है. ऐसे ही अभिभावक अक्सर भाग जाते हैं.
शहर के तमाम डॉक्टरों का यह भी कहना है कि वाराणसी में कुपोषण के मामलों के बढ़ने का यह भी कारण है कि लोगों के नवजात बच्चों के अभिभावकों के काउंसिलिंग की सही व्यवस्था नहीं है. डा. अग्रवाल कहती हैं, ‘हमारे पास सभी मामलों के सही निबटारे के लिए संसाधन नहीं हैं. काउंसिलिंग में भी इसीलिए परेशानियां आती हैं. मरीज भरोसा नहीं करता कि उनका बच्चा ठीक हो सकता है. लेकिन हम भरोसा दिलाना चाहते हैं.’
साल 1993 में राष्ट्रीय पोषण नीति अपनायी गयी. एकीकृत बाल विकास योजना साल 1975 से प्रभाव में है. इनके अलावा बाल संरक्षण योजना, बाल राष्ट्रीय चार्टर और शिशुओं के भोजन के लिए राष्ट्रीय गाइडलाइन जैसी नीतियां एक लम्बे समय से प्रभाव में हैं. लेकिन यह योजनाएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र तक में नहीं पहुंच पा रही हैं. वाराणसी मानव सभ्यता के सबसे पुराने जीवित शहरों में से एक है. लेकिन यह भी एक तथ्य है कि हाल में ही केंद्र सरकार की रैंकिंग में वाराणसी को गंदे शहरों की सूची में रखा गया था. प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में यदि नौनिहाल इस तरह से भूखे-बीमार घूम रहे हैं तो अन्य गांवों-कस्बों की स्थिति कल्पना के ही तलछट में है.